– तनवीर जाफरी –
फतवा इस्लाम धर्म से जुड़ी एक ऐसी व्यवस्था को कहा जाता है जिसमें इस्लाम धर्म का ज्ञान रखने वाले शिक्षित लोगों की एक समिति अथवा धार्मिक मामलों के जानकार यानी मुफ्ती द्वारा अपने अनुयाईयों को दिशा निर्देश जारी किया जाता है। आमतौर पर फतवा लेने या देने की स्थिति उस समय पैदा होती है जब कुरान शरीफ अथवा शरीया के माध्यम से दौर-ए-हाजि़र में किसी सवाल का उपयुक्त जवाब न मिल पा रहा हो। किसी मुफ्ती या धार्मिक विद्वानों की फतवा समिति द्वारा जो फतवा जारी भी किया जाता है वह कुरान शरीफ तथा इस्लामी शरिया की शिक्षाओं तथा दिशा निर्देशों के अंतर्गत् ही होना चाहिए। इसके अतिरिक्त फतवा किसी ऐसी व्यवस्था का नाम है जिसे धार्मिक आदेश के रूप में समझने के बजाए महज़ एक धार्मिक रौशनी में दी गई एक सलाह समझा जाता है जिसपर अमल करना या न करना भी कोई ज़रूरी नहीं है। परंतु दुर्भाग्यवश हमारे देश में अनेक बार कई पेशेवर िकस्म के कठमुल्लाओं द्वारा समय-समय पर ऐसे फतवे जारी किए गए जिन्होंने फतवों का ऐसा मज़ाक बना दिया कि भारत के एक टीवी चैनल ने ‘फतेह का फतवा’ नाम का एक लघु धारावाहिक ही चला डाला। ज़ाहिर है इसके प्रसारण में फतवों तथा पेशेवर फतवेबाज़ों की जमकर आलोचना की गई तथा कई बार फतवों का मज़ाक उड़ाया गया तथा फतवा अथवा बात-बात पर फतवा जारी करने वालों की कानूनी व धार्मिक हैसियत पर सवाल खड़े किए गए।
इसमें कोई शक नहीं कि किसी धर्मगुरु का यह कर्तव्य है कि वह अपने अनुयाईयों को सही मार्ग पर चलने की सलाह दे। परंतु उसे यह अधिकार भी नहीं कि वह धर्मगुरु या मुफती अपने राजनैतिक पूर्वाग्रहों के चलते कोई ऐसा पक्षपातपूर्ण फतवा जारी करे जो न केवल इस्लाम धर्म की बदनामी का कारण बने बल्कि इससे इस्लाम व पूरे देश के मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से भी देखा जाने लगे। भारत में फतवों का राजनीतिकरण 1970 के दशक में उस समय शुरु हुआ जब दिल्ली की शाही जामा मस्जिद के इमाम मौलाना अब्दुल्ला बुख़ारी द्वारा 1977 के चुनावों में जनता पार्टी के पक्ष में मुसलमानों से वोट दिए जाने संबंधी फतवा जारी किया गया। तब से लेकर अब तक फतवा बाज़ी पूरी तरह से राजनैतिक रूप धारण कर चुकी है। अलग-अलग िफरके से संबंधित मुसलमानों के धर्मगुरू अपने-अपने राजनैतिक पूर्वाग्रहों के तहत अपने-अपने अनुयाईयों को फतवे अथवा दिशा निर्देश जारी करते आ रहे हैं। परिणामस्वरूप आज हमारे देश में इन फतवों को गंभीरता से तो कम परंतु मज़ाक के रूप में ज़्यादा लिया जाने लगा है।
पिछले दिनों ऐसा ही एक विवादित तथाकथित फतवा कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम सैयद मोहम्मद नूरूल रहमान बरकती द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा पश्चिम बंगाल के एक भाजपा नेता के विरुद्ध जारी किया गया। अपने फतवारूपी बयान में बरकती ने कहा कि-‘नोटबंदी के कारण हर रोज़ लोगों को प्रताडि़त होना पड़ रहा है और समस्याएं झेलनी पड़ रही हैं। मोदी नोटबंदी के नाम पर समाज और देश की भोली-भाली जनता को बेवकूफ बना रहे हैं। अब कोई उन्हें प्रधाानमंत्री बनाना नहीं चाहता’। यह पहला अवसर है जबकि किसी धर्मगुरु द्वारा देश के प्रधानमंत्री को भी अपनी ‘फतवाबाज़ी’ में निशाना बनाया गया हो। ज़ाहिर है इस फतवे की देश में जमकर आलोचना हुई तथा बरकती के विरुद्ध कोलकाता में एक मुकद्दमा भी दर्ज किया गया। प्रधानमंत्री को अपने फतवे में घसीटने से पूर्व भी मौलाना बरकती पश्चिम बंगाल के भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष के विरुद्ध एक अत्यंत विवादित फतवा जारी कर चुके हैं। भाजपा नेता ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के विरुद्ध एक आपत्तिजनक व अभद्र टिप्पणी की थी। ज़ाहिर है इस प्रकार की राजनैतिक टीका-टिप्पणी का जवाब तृणमूल कांग्रेस के किसी प्रवक्ता की ओर से ही दिया जाना चाहिए था। परंतु टीपू सुल्तान मस्जिद कोलकाता के शाही इमाम का ममता बैनर्जी के पक्ष में खड़े होते हुए भाजपा नेता के विरुद्ध फतवा जारी करना अपने-आप में यह प्रमाणित करता है कि मौलाना बरकती धर्मगुरु कम एक पूर्वाग्रही राजनैतिक कार्यकर्ता अधिक हैं।
मौलाना बरकती ने अपने फतवे में कहा कि-‘उन्होंने हमारे प्यारे मुख्यमंत्री तथा देश के सबसे धर्मनिरपेक्ष नेता के विरुद्ध गंदी टिप्पणी की है। उनपर पत्थर फेंके जाने चाहिए तथा उन्हें बंगाल से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। वे बंगाल में रहने के लायक नहीं हैंं’। इस फतवे की भाषा न केवल कटुता का इज़हार करती है बल्कि इसकी भाषा से यह भी ज़ाहिर होता है कि आज के दौर में भी कुछ मौलाना तालिबानी दिशा निर्देशों से प्रभावित हैं। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में जहां कानून व भारतीय संविधान को प्रमुखता दी जाती हो वहां पत्थर मारने जैसी बेहूदी बातें करना या अपने अनुयाईयों को इसके लिए प्रोत्साहित करना निश्चित रूप से इस्लाम धर्म का मज़ाक उड़ाना तथा इस्लाम व मुसलमानों की स्थिति को भी संदिग्ध बनाना है। यदि कोई मुसलमान व्यक्ति किसी को अपना इस्लामिक धर्मगुरू,पेश इमाम या मुफ्ती मानकर उसके पीछे खड़ा होकर नमाज़ पढ़ता हो या उसके धार्मिक दिशा निर्देशों को सम्मान देता हो इसका यह अर्थ तो हरगिज़ नहीं है कि वही मुसलमान उस धर्मगुरु के पूर्वाग्रही राजनैतिक दिशा निर्देशों का भी पालन करे? किसी भी व्यक्ति की धार्मिक,सामाजिक तथा राजनैतिक सोच व फैसलों में अंतर भी हो सकता है। वैसे भी लोकतंत्र में राजनैतिक फैसले लेना या किसी का विरोध अथवा पक्षपात करना किसी व्यक्ति का निजी फैसला है। फतवे से संबंधित एक और गौर करने लायक विषय यह भी है कि इस्लाम धर्म कई अलग-अलग वर्गों या समुदायों में बंटा हुआ है। लिहाज़ा किसी एक वर्ग के मुफती या धर्मगुरु द्वारा जारी किए गए किसी फतवे का अनुसरण किसी दूसरे समुदाय या वर्ग का मुसलमान करे ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।
हालांकि फतवा शब्द इस्लाम धर्म से ज़रूर जुड़ा है। परंतु फतवा सरीखे बयान व अभद्र दिशा निर्देश हिंदू धर्म के भी कई धर्मगुरुओं द्वारा समय-समय पर अपने अनुयाईयों व समर्थकों को दिए जाते हैं। इससे भी समाज में बेचैनी बढ़ती है। यहां तक कि इनके कई बोल तो इस कद्र आपत्तिजनक होते हैं जो हमारे देश के कायदे-कानून तथा सरकारी योजनाओं को भी धक्का पहुंचाते हैं। मिसाल के तौर पर उन्नाव से भाजपा सांसद सच्चिदानंद हरि साक्षी महाराज ने देश के मुसलमानों की ओर इशारा करते हुए एकबार फिर कहा कि चार बीवी और चालीस बच्चे हमारे देश को मंज़ूर नहीं हैं। उनका यह कथन निश्चित रूप से मुस्लिम समाज को बदनाम करने वाला तथा देश के हिंदुओं को मुस्लिम समाज की बढ़ती जनसंख्या का झूठा भय दिखाने की गरज़ से दिया गया बयान है। वे पहले भी ऐसे विवादित बयान दे चुके हैं। साक्षी महाराज का मकसद उत्तर प्रदेश के हिंदू वोटों का धु्रवीकरण कराना तथा मौका मिलने पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की कुर्सी झटकना है। योगी आदित्यनाथ तथा साध्वी प्राची जैसे सांसद भी ऐसे ही नकारात्मक कामों में जुटे हुए हैं। हर एक के अपने पूर्वाग्रह हैं तथा अपने-अपने राजनैतिक लक्ष्य व महत्वाकांक्षाएं हैं। यह लोग भी एक सम्मानित धर्मगुरु होने का दुरुपयोग करते हुए मौलाना बरकती की ही तरह समय-समय पर कुछ न कुछ आपत्तिजनक ‘फतवे’ जारी करते रहते हैं। लिहाज़ा सभी धर्मों के धर्मगुरुओं को चाहिए कि वे फुज़ूल के गैर ज़रूरी फतवों से बाज़ आएं क्योंकि भारतीय समाज अब ऐसे फतवों व फतवेबाज़ों को गंभीरता से लेने के बजाए इन्हें महज़ तमाशा समझने लगा है।
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Tanveer Jafri
Columnist and Author
Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.
He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.
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