– निर्मल रानी –
हम भारतवासी वैसे तो यह कहते हुए फूले नहीं समाते कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारतवर्ष के निवासी हैं। हमें बताया जाता रहा है कि हमारी व्यवस्था अर्थात् भारतीय लोकतंत्र जनता का है इसे जनता ने जनता के लिए बनाया है। परंतु यदि हम इसी लोकतंत्र के कायदे-कानूनों तथा इसके संविधान में उल्लिखित कई बातों पर सूक्ष्म दृष्टि डालें तो हमें कुछ और ही हकीकत देखने को मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि देश के सारे कायदे-कानून समस्त संवैधानिक दिशा निर्देश केवल आम नागरिकों के लिए ही हैं। जबकि देश के नेता कायदे व कानूनों की इन सीमाओं से बाहर हैं। और यही स्थिति यह सोचने को विवश कर देती है कि भारत में वास्तव में लोकतांत्रिक व्यवस्था है या फिर हमारे देश को नेतातंत्र द्वारा चलाया जा रहा है?
हमारी कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था में आिखर यह कैसा मज़ाक है कि यदि आपको किसी सरकारी विभाग में चपरासी,सिपाही अथवा तृतीय श्रेणी के किसी अन्य पद पर नौकरी लेनी हो तो आपके लिए बारहवीं अथवा दसवीं कक्षा का पास करना अनिवार्य है। परंतु यदि आपको देश का अथवा किसी राज्य का शिक्षामंत्री बनना हो अथवा गृहमंत्री या रक्षामंत्री कुछ भी बनना हो तो उसके लिए शिक्षा की कोई अनिवार्यता नहीं है? यानी एक अनपढ़ शिक्षामंत्री देश के किसी भी वाईस चांसलर यहां तक कि आईएएस रैंक के अपने अधीनस्थ सचिवों को दिशा निर्देश दे सकता है और इतने काबिल व पढ़े-लिखे लोग एक अनपढ़ शिक्षामंत्री के समक्ष तब तक बैठ नहीं सकते जबतक शिक्षामंत्री स्वयं बैठ न जाए या उस उच्चाधिकारी को बैठने को न कहे। इसी प्रकार यदि किसी साधारण भारतीय नागरिक पर किसी प्रकार का कोई आपराधिक मुकद्दमा चला है और वह उस संबंध मेंं जेल जा चुका है तो हमारे लोकतंत्र के कानून के अनुसार वह व्यक्ति फैसला होने तक अपनी नौकरी से बर्खास्त रहेगा। परंतु यदि किसी नेता पर दर्जनों बड़े से बड़े आपराधिक मुकद्दमे चल रहे हों तो भी वह नेता मंत्री,गृहमंत्री आदि जो चाहे बन सकता है और स्वयं अपराधी होने के बावजूद अपने राज्य अथवा देश के पुलिस प्रशासन को अपने नियंत्रण में रख सकता है। यह लोकतंत्र है या एक मज़ाक़?
हमारे ‘लोकतंत्र’ में ऐसी व्यवस्था है कि हमारे देश का कोई नेता अपनी सुविधा हेतु तथा अपनी जीत सुनिश्चित करने की खातिर यदि चाहे तो दो सीटों से एक साथ चुनाव लड़ सकता है। और दोनों जगहों से विजयी होने की स्थिति में किसी एक सीट से त्यागपत्र दे सकता है। फिर उसके द्वारा रिक्त की गई सीट पर पुन: चुनाव कराया जाता है जिसका खर्च देश की जनता को वहन करना पड़ता है। यह पूरी कवायद केवल इसलिए है कि दो स्थानों से चुनाव लडऩे वाला नेता चुनाव हारने का जोखिम नहीं उठाना चाहता। परंतु क्या एक साधारण मतदाता इसी प्रकार किन्हीं दो मतदान केंद्रों या दो अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों में जाकर मतदान कर सकता है? हरगिज़ नहीं। यह सुविधा हमारे लोकतंत्र में केवल नेताओं को प्रदान की गई है कि वह दो स्थानों से चुनाव तो लड़ सकते हैं परंतु कोई मतदाता दो जगहों पर वोट नहीं डाल सकता। इसी प्रकार देश के किसी नवयुवक को जब सरकारी नौकरी मिलती है तो उसकी पुलिसिया तफतीश की जाती है। उसके चरित्र,उसके किसी आपराधिक रिकॉर्ड के होने न होने के विषय में पूरी जानकारी लेकर संबंध विभाग को रिपोर्ट भेजी जाती है कि अमुक युवक का चरित्र ठीक है अथवा नहीं। और यदि वह कभी किसी आपराधिक मामले में जेल गया हो या उसपर कोई मुकद्दमा चल रहा हो तो उसकी नौकरी खटाई में पड़ जाती है। परंतु किसी नेता के साथ ऐसा नहीं है। वह नेता तो अपराधी होने के बावजूद यहां तक कि किसी अपराध में जेल में रहते हुए भी चुनाव लड़ सकता है। और जीतने के बाद सदन में आकर शपथ ले सकता है और मंत्री भी बनाया जा सकता है।
हमारी कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह व्यवस्था भी है कि एक सरकारी कर्मचारी देश के विभिन्न राज्यों के नियमानुसार कहीं अठावन वर्ष में तो कहीं साठ वर्ष की आयु में सेवानिवृत कर दिया जाता है। गोया ऐसा माना जाता है कि वह व्यक्ति अब अपनी आयु के अनुसार अपने विभाग को अपनी सेवाएं देने योग्य नहीं रहा। परंतु इस नेतातंत्र का कमाल देखिए कि यहां तो नब्बे वर्ष की आयु के लोग भी प्रधानमंत्री तक बनने के लिए अपना मुंह खोले नज़र आते हैं। जो लोग चलने-फिरने से मोहताज हैं, जिनकी सूझ-बूझ व सोच-विचार की क्षमता भी खत्म हो चुकी है, जो बोलते कुछ हैं और उनके मुंह से निकलता कुछ है, ऐसे लोग भी चुनाव लडऩे, मंत्री बनने, राज्यपाल अथवा बड़े से बड़े संवैधानिक पद पर नियुक्ति पाने के लिए आज़ाद रहते हैं। यही वजह है कि सरकारी सेवा के अनेक चतुर बुद्धि लोग सरकारी सेवाओं में रहते हुए अपने राजनैतिक संबंध अपनी विचारधारा से मेल खाते हुए दलों के साथ बनाकर अपने विभाग से अवकाश प्राप्त करते ही राजनीति में कूद पड़ते हैं। गोया सरकारी सेवा से फुर्सत पाने के बाद उनके जीवन की नई राजनैतिक पारी शुरु हो जाती है। और भारतीय लोकतंत्र का बेचारा ‘लोक’ नेतातंत्र की इन सब चालाकियों को देखता रह जाता है। नेता तंत्र की इस सर्वोच्च व्यवस्था अर्थात् राजनीति में जब तक आप बोल सकते हैं, चल सकते हैं यहां तक कि संकेतों से भी अपना काम चला सकते हैं तब तक आप सक्रिय राजनेता बने रह सकते हैं। गोया जब तक आपके द्वार पर यमराज दस्तक न दे तबतक आप इस नेतातंत्र के सिरमौर बने रह सकते हैं।
इसी नेतातंत्र की एक और त्रासदी गौर कीजिए। ऐसा भी नहीं है कि मंत्री अथवा प्रधानमंत्री बनने के लिए आपका चुनाव जीतना भी ज़रूरी हो। यदि आप चुनाव हार भी गए हैं तो भी देश के नेतातंत्र में नेताओं को घबराने की ज़रूरत नहीं है। ऐसे लोगों को भी मंत्री पद की शपथ दिलाई जा सकती है तथा समय आने पर उन्हें विधानपरिषद अथवा राज्यसभा का सदस्य बनाकर उनके लिए सरकारी सुविधाएं,सरकारी तन्ख्वाह आदि की व्यवस्था की जा सकती है। गोया जनप्रतिनिधि बनने हेतु जिस व्यक्ति ने जनता के बीच जाकर चुनाव लड़ा और जनता ने उसको नकार दिया उसके बावजूद नेतातंत्र का तक़ाज़ा यही है कि वह लोकतंत्र को ठेंगा दिखाता हुआ उसी नकारे गए नेता को पिछले दरवाज़े से मंत्रिमंडल में शामिल करने में सक्षम है। ज़रा सोचिए कि यदि लोकतंत्र का कोई बेचारा ‘लोक’ किसी सरकारी सेवा की किसी परीक्षा में फेल हो जाए तो क्या उसे उस विभाग में या किसी दूसरे विभाग में अथवा उससे कम ग्रेड या कम वेतनमान की नौकरी दिए जाने का प्रावधान है? जी नहीं। यहां तक कि देश की सर्वोच्च सेवा समझी जाने वाली केंद्रीय लोक सेवा आयोग की भारतीय विदेश,प्रशासनिक तथा पुलिस सेवाओं जैसी परीक्षाओं में भी यदि कोई युवक प्रवेश परीक्षा पास कर गया हो और उसके बाद उसने मेन टेस्ट भी पास कर लिया हो परंतु यदि वह साक्षात्कार में पास नहीं हो पाया तो उसे अगले वर्ष पुन: प्रवेश परीक्षा देनी पड़ती है। श्रेणियों के अनुसार उसके परीक्षा के प्रयास की संख्या भी निर्धारित है। साक्षात्कार में युवकों के व्यक्तित्व, उनका लबो-लहजा,उनका आकर्षण आदि सबकुछ देखा जाता है। काबिलियत तो इतनी रहती ही है कि वे साक्षात्कार तक अपनी योग्यता के बल पर पहुंचे।
परंतु नेतातंत्र मेें तो योग्यता के पैमाने ही निराले हैं। किसी राजनेता का पुत्र,पत्नी अथवा परिवार का सदस्य होना ही सबसे बड़ी योग्यता हो सकती है। शारीरिक विकलांगता,शैक्षिक योग्यता किसी प्रकार की प्रवेश परीक्षा या साक्षात्कार की तो कोई ज़रूरत ही नहीं है। दुनिया के सभी क्षेत्रों में यदि आप नकार दिए गए हों,किसी भी क्षेत्र में आप असफल रहे हों तो भी हमारे नेतातंत्र की यह व्यवस्था है कि आप राजनीति में प्रवेश कर सकते हैं और एक सफल नेता के रूप में देश पर राज कर सकते हैं। देश को चलाने वाले सरकारी कर्मचारी अपनी तन्ख्वाहें बढ़ाने के लिए अक्सर हड़ताल करते दिखाई देते हैं। कई बार सरकार उनकी मांगों को मानती है तो कभी अनसुनी कर देती है। कर्मचारियों की तन्ख्वाहें कब और कितनी बढ़ाई जाएं इसके लिए भी बाकायदा वेतन आयोग का गठन किया गया है जो समय-समय पर अपनी रिपोर्ट सरकार को देता है और सरकार उस रिपोर्ट के आधार पर कर्मचारियों की वेतन वृद्धि करती रहती है। और सरकारी कर्मचारी सरकार के वेतन बढऩे संबंधी आदेश की प्रतीक्षा में सरकार की ओर ताकता रहता है। परंतु यदि नेतातंत्र में शामिल लोगों की तन्ख्वाहें बढऩी हों तो इसके लिए न तो कोई वेतन आयोग है न ही किसी को हड़ताल या शोर-शराबा करने की ज़रूरत है। इस कबीले के महानुभाव, चाहे वह पक्ष के हों या विपक्ष के सभी अपनी तनख्वाहें बढ़ाने के लिए एकमत हो जाते हैं और जब और जितनी चाहें तन्ख्वाहें स्वयं बढ़ा लेते हैं। इन्हें संसद व विधानसभाओं में खाने-पीने व घरेलू उपयोग की वस्तुएं खरीदने पर विशेष छूट व सब्सिडी भी प्राप्त होती है। परंतु लोकतंत्र का बेचारा ‘लोक’ अपनी खून-पसीने की कमाई से सरकारी टैक्स भरकर इन शासक रूपी नेतातंत्र के लोगों की ऐश के लिए इनकी विदेश यात्राओं के लिए, इनके हवाई जहाज़ व एसी में खर्च के लिए तथा इनकी कारों के लंबे कािफलों,इनकी सुरक्षा तथा इनके मेहमानों की मेहमाननवाज़ी व इनकी अपनी आवभगत का प्रबंध करने में ही अपना जीवन बिता देता है। ऐसे में देशवासियों का यह सोचना बेहद ज़रूरी है कि हमारा देश लोकतांत्रिक देश है या फिर यहां नेतातंत्र का राज है?
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निर्मल रानी
लेखिका व् सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
संपर्क : – Nirmal Rani : 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City13 4002 Haryana , Email : nirmalrani@gmail.com – phone : 09729229728
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