– घनश्याम भारतीय –
सदियों से दबे-कुचले समाज के उद्धारक बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर का जन्म दिवस पूरे देश में जिस उत्साह के साथ मनाया गया उससे समाज में एक नया संदेश गया है। अंबेडकर जयंती पर इस तरह का उत्साह पहले कभी नहीं देखा गया। वजह साफ है कि पहले बाबा साहब की जयंती या पुण्यतिथि वर्ग विशेष के लोग ही मनाते थे, परंतु इस बार सियासी फेर में जातीय संकीर्णताओं का परित्याग कर लोगों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। संघी सोच के लोग सर्वथा आगे रहे। सरकारी स्तर पर इस बार राष्ट्रीय पर्व सरीखे आयोजन हुए। कहीं ज्ञान दिवस के रूप में तो कहीं समरसता दिवस के रूप में हुए आयोजन बीच बाबा साहब की लोकग्राह्यता उभरकर सामने आई। इस बीच समाज विरोधी तत्वों ने उस बृहद समूह को बदनाम करने का घिनौना षड़यंत्र किया जो समूह बाबा साहब को महापुरुष नहीं अपितु भगवान समझता है। इस पर लोगों ने खूब चटखारे भी लिया।
हुआ यूं कि सोशल मीडिया (फेसबुक और व्हाट्सएप)पर एक ही तरह के कई फोटो वायरल हुए। जो संभवतः किसी सरकारी विद्यालय में क्लिक किए गए थे। जिसमें पीछे श्यामपट्ट पर डॉ अंबेडकर जयंती लिखा दर्शाया गया था और सामने रखी मेज पर एक तस्वीर रखकर कुछ लोग माल्यार्पण कर रहे थे। अलग-अलग तस्वीरों में अलग-अलग महिला पुरुष दर्शाए गए हैं। मुख्य बिंदु यह है कि जिस चित्र पर माल्यार्पण किया जाना दर्शाया गया है वह चित्र डॉ अंबेडकर के बजाय नेताजी सुभाष चंद्र बोस का है। किसी किसी में अंबेडकर भी गलत लिखा गया है। बस इसी तरह की अलग-अलग तस्वीरों को साझा कर लोगों ने सोशल मीडिया पर लंबी लंबी पोस्ट भी लिख मारी। बिना किसी मंथन के पोस्ट लिखने वालों की अभिव्यक्ति निश्चित रूप से एक वर्ग विशेष को बदनाम करते हुए उसे अज्ञानी मूर्ख और अयोग्य सिद्ध करने की पोषक रही है। इसे लेकर सोशल मीडिया पर कई दिनों से शब्द युद्ध भी छिड़ा हुआ है।
स्पष्ट कर देना उचित होगा कि उक्त पोस्ट में दलितों और पिछड़ों को निशाने पर रखकर उनकी क्षमता और योग्यता को नियंत्रित शब्दों में लगभग गाली देते हुए कहा गया है कि ‘आरक्षण वालों से और क्या उम्मीद की जा सकती है।’ पोस्ट में यह भी कहा गया है कि ‘आरक्षण से नौकरी पाये जिन लोगों को बाबा साहब और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर में अंतर का ज्ञान नहीं वह बच्चों को कैसी शिक्षा देंगे।’ इसके अलावा और न जाने क्या क्या लिख डाला लोगों ने। जिसे लेकर शुरू शाब्दिक वाक्युद्ध में बहुत कुछ सामने आया। सच कहें तो यह बात मेरे गले के नीचे उतरी ही नहीं। क्योंकि जो समाज बाबा साहब को नेता नहीं, महापुरुष भी नहीं अपितु भगवान समझता है उस समाज के लोग भला इतनी बड़ी चूक या गलती कैसे कर सकते हैं ?
वास्तव में समाज में पनपी भेदभाव की खाई को पाटने और सामाजिक समरसता कायम करने के प्रयास ऐसे ही तत्वों की हरकतों से अब तक सफल नहीं हो पाए। एक दूसरे के बीच कटुता पैदा कर सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करना ऐसे लोगों का उद्देश्य होता है। बनते तो सब राम भक्त हैं परंतु उनका आचरण जीवन में नहीं उतारना चाहते। यानी राम को मानने वाले राम की नहीं मानते। अरे दलित-पिछडे विरोधियों ! तुम्हारे भगवान ने आदिवासी शबरी के जूठे बेर खाकर भेदभाव की सोच को तमाचा मारा था। मरे हुए पशुओं की सड़ी-गली मांस खाने वाले गिद्ध को गले लगाया था।… और एक तुम हो कि भगवान राम के आदर्शों को ठोकर मार रहे हो। सदियों से उपेक्षित समाज को आज भी गुलाम बनाए रखना चाहते हो। तुम चाहते हो कि वह समाज आज भी तुम्हारी दासता स्वीकार किए रहे, और सिर उठाकर न जी सके। वास्तव में यही तुम्हारी भूल है।
आरक्षण के साथ आरक्षित वर्ग से इतनी ही घृणा है तो तोड़ दो जातियों के तिलिस्म को, और दे दो समानता का अधिकार। फिर उस वर्ग को आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। सच कहें तो सारे विवाद की जड़ सिर्फ जातियां ही हैं। जिसे भगवान ने नहीं इंसान ने बनाया है। भगवान की बनाई जातियों में प्रेम है। यथा महिला और पुरुष, मानव और पशु पक्षी।…और इंसान की बनाई जातियों में द्वेष। जब भगवान की बनाई जातियां देखने में भिन्न होते हुए भी एक दूसरे के प्रति अगाध प्रेम रखती हैं,तब मानव का मानव के प्रति प्रेम क्यों नहीं होता? मेरे ख्याल से कुछ धूर्त लोगों द्वारा मानव को जातियों में बांट कर कटुता का जो बीजारोपण सदियों पहले किया गया था उसी का दुष्परिणाम आज भी समाज का एक बड़ा समूह भुगत रहा है। सदियों से सताए गए समाज को बाबा साहब के संघर्षों से जब आरक्षण की सीढ़ी मिली तो लोगों के पेट में मरोड़ होने लगा। जिन पदों पर वर्ग विशेष के लोगों का सदियों से कब्जा रहा है, उस पर जब दूसरे लोग उसी सीढ़ी के माध्यम से पहुंचने लगे तो मरोड़ स्वाभाविक भी है।
कितने शर्म की बात है कि बाबा साहब के खून पसीने की कमाई आज जब फलित हो रही है तो लोगों से देखा नहीं जा रहा है। शायद यही वजह है कि इस बार अम्बेडकर जयंती पर आरक्षित वर्ग के शिक्षकों को बदनाम करने की साजिश की गई और इसके लिए सोशल मीडिया को हथियार बनाया गया। लेकिन दलित और पिछड़े वर्ग के लोग अब नासमझ नहीं रहे। इसके पीछे के सारे षड़यंत्र को वे बखूबी समझ रहे हैं। यह बात और है कि समय समय पर आरक्षण का जिन्न बोतल से बाहर निकलता रहता है। बीते कुछ वर्षों में बोतल से बाहर निकले आरक्षण के उसी जिन्न से एक साजिश के तहत कहलवाया जा रहा है कि अब जाति आधारित आरक्षण समाप्त कर उसे आर्थिक आधार पर दिया जाना चाहिए। लेकिन यह कोई नहीं कह रहा कि जाति ही समाप्त कर देनी चाहिए। जातियां जब समाप्त हो जाएंगी तो आरक्षण का आधार स्वतः आर्थिक हो जाएगा।
बात यह गौर करने की है कि जातीय भेद मिटाने के लिए ही आरक्षण की व्यवस्था की गई थी, परंतु आज लोग जातियां कायम रखते हुए आरक्षण समाप्त करना चाह रहे हैं। ऐसा चाहने वाले वही लोग हैं जिन्होंने स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनने पर कहा था ‘राजा नहीं फकीर है , देश की तकदीर है। ’ आगे चलकर जब बी पी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दी तब नारे को इस तरह बदल दिया गया कि ‘राजा नहीं रंक है, देश का कलंक है’। आशय स्पष्ट है कि बात जब तक अपने हित की हो तब तक ठीक और जैसे ही दूसरे की हित की शुरुआत हो, वह गलत घोषित कर दी जाती है। देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य और हो ही नहीं सकता। वास्तव में जिस समाज में देश की तकदीर समझे जाने वाले व्यक्ति को सिर्फ इसलिए देश का कलंक घोषित कर दिया गया क्योंकि उसने सदियों से उपेक्षित वर्ग का हक और हित सुरक्षित कर दिया था। वह समाज आरक्षित वर्ग के लोगों के सम्मान में वृद्धि और उनकी बढ़ती ताकत को आखिर कैसे बचा पाएगा? ‘पूजिए विप्र सकल गुण हीना, सूद्र न गुण गण ज्ञान प्रवीना’ की सोच रखने वाले समाज से भला और क्या उम्मीद की जा सकती है?
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परिचय -:
घनश्याम भारतीय
राजीव गांधी एक्सीलेंस एवार्ड प्राप्त पत्रकार
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