– निर्मल रानी –
हमारे देश में महिलाओं को किस कद्र सम्मान दिए जाने का प्रदर्शन किया जाता है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब हम भारतवर्ष के काल्पनिक स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं तब भी एक महिला रूपी चित्र को भारत माता की शक्ल में दिखाते हैंं। जब हम देवियों की बातें करते हैं तब भी महिलाएं ही दवियों के रूप में नज़र आती हैं। जब हम नवरात्रों के उपरांत पूजन का आयोजन करते हैं उस समय भी कन्याओं की पूजा कर हम यही संदेश देने की कोशिश करते हैं कि हमारे मन में कन्याओं के प्रति कितनी श्रद्धा व सम्मान है। धर्म व अध्यात्म के क्षेत्र में महिलाओं की सक्रियता का अंदाज़ा भी इस प्रचलित कहावत से लगाया जा सकता है कि-‘औरतों का पीर कभी भूखा नहीं मरता’। सरकार द्वारा भी बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ जैसा लोकलुभावन नारा देकर यह जताने का प्रयास किया जा रहा है कि सरकार वास्तव में पुरष-महिला अनुपात के अंतर को लेकर तथा कन्याओं की शिक्षा के प्रति कितनी गंभीर है। परंतु क्या वास्तव में हमारे देश में यानी भारतमाता की धरती पर महिलाओं को वैसा ही मान-सम्मान,अधिकार तथा आज़ादी हासिल है जैसाकि प्रदर्शित व प्रचारित किया जा रहा है?
हमारे देश के अनेक धर्मगुरू,केंद्रीय मंत्री तथा कई बड़े राजनेता समय-समय पर अपने ‘उद्गार’ इस विषय पर प्रस्तुत करते रहते हैं। उनके इन विचारों से ही ऐसा प्रतीत होने लगता है दुनिया की आधी आबादी को भारतवर्ष में केवल 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का शोर-शराबा करना भी महिलाओं को महज़ एक वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किए जाने की साजि़श मात्र है। कुछ राजनैतिक दल जहां संसद में महिला आरक्षण विधेयक पारित कराए जाने की बात करते रहे हैं वहीं कुछ दल ऐसे भी हैं जिन्होंने किसी न किसी बहाने की आड़ में महिला आरक्षण विधेयक का खुलकर विरोध भी किया। देश के एक जि़म्मेदार राजनेता ने तो एक बार यहां तक कहा कि-संसद में महिलाओं की संख्या अधिक होगी तो जनता उनके पीछे सीटियां बजाती दिखाई देगी। इत्तेफाक से यह कथन एक ऐसे राजनेता का था जिसकी अपनी बहू भी सांसद रह चुकी हैं और इनके परिवार की दूसरी बहू भी राजनीति के मैदान में ताल ठोंक चुकी हैं। ऐसे नेताओं के इस प्रकार के बयानों से यह साफ ज़ाहिर होता है कि इन्हें अपने घर की महिलाओं को आगे लाने में कोई समस्या नज़र नहीं आती जबकि इन्हीं को शेष महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने से देश में सीटियां बजती दिखाई देती हैं।
पिछले दिनों एक बार फिर एक केंद्रीय मंत्री ने महिला पर्यट्कों को यह सलाह दे डाली कि वे स्कर्ट पहनकर आगरा जैसे पर्यट्न स्थलों पर न जाएं। एक केंद्रीय मंत्री जैसे जि़म्मेदार पद पर बैठे हुए व्यक्ति द्वारा महिलाओं को ड्रेस कोड संबंधी दिशा निर्देश जारी करना निश्चित रूप से महिलाओं के कपड़े पहनने की स्वतंत्रता में खुला हस्तक्षेप है। इत्तेफाक से जिस समय उन केंद्रीय मंत्री का यह बयान आया उसी दौरान हरियाणा विधानसभा में एक धर्मगुरु द्वारा निर्वस्त्र अवस्था में राज्य विधानसभा के सभी मंत्रियों व सदस्यों को ‘उपदेश’ दिया गया। देश के अनेक बुद्धिजीवी इस बात पर सवाल खड़ा करने लगे कि जब विधानसभा में महिलाओं की उपस्थिति में एक पुरुष संत पूर्णतया नग्र अवस्था में अपने प्रवचन दे सकता है फिर आिखर महिलाएं स्कर्ट पहनकर पर्यट्न स्थलों पर क्यों नहीं जा सकती? यही धर्मगुरु जिन्होंने हरियाणा विधानसभा में नग्रावस्था में अपना प्रवचन दिया यह इससे पूर्व मध्यप्रदेश विधानसभा में भी इसी रूप में ‘उपदेश’ दे चुके हैं। हमारे देश में धर्मविशेष से संबंध रखने वाले साधू-संतों का एक प्रमुख वर्ग अपनी परंपराओं व रीति-रिवाजों के अनुसार निर्वस्त्र रहता है। और धर्मपरायण महिलाएं इस प्रकार के साधू-संतों के दर्शन पाने को लालायित रहती हैं। कोईभी इस प्रकार की नग्र अवस्था में रहने वाला धर्मगुरु कभी यह कहते नहीं सुनाई दिया कि महिलाओं को नग्र संतों के दर्शन नहीं करने चाहिए। जबकि महिलाओं के लिबास व उनके पहनावे को लेकर हमेशा ही तरह-तरह की बातें सुनुने को मिलती रहती हैं। ज़ाहिर है महिलाओं के प्रति पुरुष प्रधान समाज के इस प्रकार के दोहरे व सौतेले आचरण से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में महिलाओं के प्रति पुरुष समाज के सद्विचार केवल दिखावा मात्र ही हैं। इसमें सच्चाई शायद नाममात्र भी नहीं ।
गत् दिनों मुंबई में हाजी अली की दरगाह की मज़ार शरीफ तक महिलाओं को प्रवेश दिलाए जाने संबंधी आदेश मुंबई उच्च न्यायालय द्वारा जारी किया गया। जो महिलाएं हाजी अली की दरगाह के भीतरी हिस्से तक जाने में सिर्फ इसलिए असमर्थ थीं क्योंकि पुरुष समाज द्वारा स्वयं गढ़े गए नियमों के अनुसार उन्हें मज़ार तक जाने से प्रतिबंधित कर दिया गया था,उन्होंने उच्च न्यायालय के आदेश का भरपूर स्वागत किया तथा दरगाह के भीतर तक प्रवेश मिलने को अपनी जीत व कामयाबी के रूा में देखा। इस फैसले के बाद एक बार फिर यह प्रमाणित हो गया कि पुरुष समाज अपने तर्कों-वितर्कों तथा कुतर्कों के द्वारा जहां तक भी उसका अपना वश चले वह महिलाओं पर पुरुष समाज द्वारा थोपे गए अंकुश को बरकरार ही रखना चाहता है। यदि दरगाह की प्रबंधन समिति स्वयं दरगाह की पवित्रता तथा उसके मान-सम्मान को मद्देनज़र रखते हुए कुछ दिशा निर्देशों के साथ पुरुषों व महिलाओं को दरगाह के भीतर तक जाकर दर्शन करने के निर्देश देती तो शायद किसी महिला को अदालत का दरवाज़ा खटखटाना न पड़ता और न ही इस विषय में अदालती हस्तक्षेप की नौबत आती। परंतु पुरुषों के अडिय़ल व पक्षपातपूर्ण रवैये के चलते अदालत को आिखरकार हस्तक्षेप करना पड़ा जिसमें औरतों को जीत हासिल हुई। महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर में भी पुरुष समाज द्वारा महिलाओं को एक विशेष स्थान तक जाने से रोकने पर ऐसी ही टकराव की स्थिति कई बार पैदा हो चुकी है। सोचने का विषय है कि आिखर पुरुषों को इस बात का अधिकार क्यों और किसने दिया है कि महिलाएं अमुक स्थान पर जाएं या न जाएं। उनके पहनावे तथा लिबास कैसे हों और कैसे न हों?
हरियाणा विधानसभा में जिन ‘महापुरुष’ द्वारा निर्वसत्र होकर अपना प्रवचन दिया गया उन्होंने अपने प्रवचन में यह फरमाया कि राजनीति पर धर्म का अंकुश होना चाहिए। यह विषय एक अलग,गंभीर तथा बड़ी बहस का विषय है। परंतु इस विषय को भी उन्होंने महिलाओं के साथ जिस तरीके से जोड़ा वह ध्यान आकर्षित करने योग्य था। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार पुरुषों का महिलाओं पर अंकुश रहता है उसी तरह धर्म का राजनीति पर अंकुश रहना चाहिए। यहां इन ‘महान’ संत के विचारों के विषय में कुछ कहने का तो मेरा साहस नहीं परंतु इतना ज़रूर है कि आज हमारे देश में महिलाओं द्वारा ओलंपिक खेलों में जिस प्रकार भारत की लाज बचाने का काम किया गया है यदि उन महिला खिलाडिय़ों पर पुरुषों का इस प्रकार का अंकुश रहता कि उन्हें कहां जाना है, क्या करना और क्या पहनना है तो निश्चित रूप से भारत एक कांस्य पदक को भी तरस जाता। परंतु ‘महान’ संत ने अपने विचारों से तो कम से कम यह ज़ाहिर कर ही दिया कि संत समाज के कुछ लोग महिलाओं के प्रति कैसी सोच रखते हंै? आज भी यदि राजनीतिक क्षेत्र में पंचायतों,नगरपालिका वार्डों अथवा प्रधान या जि़ला परिषदों के चुनावों में जहां कहीं भी महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की जा चुकी हैं वहां भी यदि हम नज़र दौड़ाएंगे तो यही दिखाई देता है कि उस क्षेत्र के पुरुष नेताओं द्वारा किसी योग्य,शिक्षित व सामथ्र्यवान महिला को चुनाव मैदान में उतारने के बजाए अपने ही घर की किसी सदस्या को चुनाव मैदान में उतारा जाता है और उनके नाम का प्रयोग केवल नाममात्र किया जाता है। यहां तक कि विजयी होने के बाद भी उस महिला का सगा संबंधी नेता ही जनता की दु:ख-तकलीफ का समाधान करता दिखाई देता है।
लिहाज़ा महिलाओं के आरक्षण,उनकी पूजा करने,उनके बढ़ाओ और बचाव जैसे लोकलुभावन नारे गढऩे आदि से कुछ हासिल होने वाला नहीं जब तक कि पुरुष प्रधान समाज खासतौर पर इस समाज के मुखिया बने बैठे धर्मगुरु व राजनेता अपनी अंतरात्मा के साथ महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके हितों की बात नहीं करते। जो रूढ़ीवादी सोच महिलाओं को पुरुषों से कमतर समझती आ रही है जब तक उस सोच का वर्चस्व समाज पर कायम रहेगा तब तक आधी दुनिया को बराबरी का अधिकार मिलने की बात करना केवल कल्पना के घोड़े दौड़ाना ही समझा जाना चाहिए।
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निर्मल रानी
लेखिका व् सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
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