अद्भुत शिक्षाविद् एवं उद्भट साहित्यकार: डाॅ0 राम खेलावन राय

– प्रभात कुमार राय –

birth anniversary of Dr. Ram Khelavan Royमेरे पूज्य पिताजी (स्व0 धर्मदेव राय, गा्रम-नारेपुर, पत्रालय-बछवाड़ा, जिला-बेगूसराय) से घनिष्ठ मित्रता के कारण तथा पाश्र्व गाँव (रानी) के निवासी होने के कारण, डाॅ0 राम खेलावन राय(पूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दी विभाग, पटना विष्वविद्यालय) जब भी अपने गाँव आते थे, मेरे निवास पर अवश्य पधारते थे। उनके आगमन पर स्थानीय साहित्य प्रेमियों का ताँता लग जाता था तथा रोचक साहित्यिक चर्चाएं हुआ करती थी। अपनी विलक्षण मेधा तथा रोबीले एवं प्रखर व्यक्तित्व के धनी राम खेलावन बाबू इलाके में प्रख्यात थे। मैं जब मिड्ल स्कूल का छात्र था तब उन्होंने मुझसे परिचय पूछा। अपना नाम (प्रभात) बताने पर वे मुझसे ’प्र’ उपसर्ग से आरंभ होनेवाले कुछ अन्य शब्दों को बताने को कहा। मैंने प्रबल, प्रदीप, प्रवीण, प्रकाश आदि बताया जिसे सुनकर उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की क्योंकि ये सभी शब्द तेज और ऊर्जा को इंगित करते हंै। हिन्दी साहित्य के इतने बड़े और मर्मज्ञ विद्वान के समक्ष मैं आदर-मिश्रित-भय के कारण नर्वस हो गया था। फलस्वरूप अपने पिताजी का नाम बिना सम्मानसूचक ’श्री’ लगाये बता दिया। वे उबल पड़े। उन्होंने कहाः “यह तो तुम्हारे ’बाप’ का नाम है। अपने ’पिताजी’ का नाम बताओ।“ तब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। 1964 में उच्च विद्यालय नारेपुर की पत्रिका में छात्रों के बारे में उनका उपदेशात्मक निबंध पढ़ा था जिसका मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। ’उपनिषदों के आदर्श बालक’, पतली कलेवर वाली उनकी किताब भी बचपन में पढ़ने का मौका मिला। यह पुस्तक बाल-साहित्य में श्रेष्ठ स्थान रखता है। प्रेरक लेखों का उद्देश्य बच्चों के चरित्र का निर्माण है। शिक्षा के संबंध में उनके विचार स्पष्ट थे: वे चाहते थे कि बालकों एवं युवाओं को अर्थकरी विद्या पढ़ायी जाय किन्तु उस शिक्षा की जड़ भारतीय दर्शन में हो। जीवन मूल्य की दृष्टि से त्याग, परिग्रह, अनुशासन, संयम और विनय विधार्थियों के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करे। उनकी रचनाआंे में संदेश अत्यंत गहरा है और अर्थ व्यापक। कई स्थल पर अपने लेखन में वे मनुष्य के पुरूषार्थ को जगाते हैं। वे यथास्थितिवादी नहीं हैं। अतीत से प्रेरणा और शक्ति ग्रहण कर वे यथास्थिति पर प्रहार करते थे जिससे वत्र्तमान में हलचल पैदा हो, उथल-पुथल मचे और भविष्य निर्माण में सहूलियत हों। किताबी शिक्षा जीवन की यथार्थ भूमि पर पूर्णतया सफल नहीं होती है। जब जीवन में द्वन्द और संघर्ष आता है, पुस्तक की पंक्तियाँ मस्तिष्क से गायब हो जाती है या अपना शाब्दिक अर्थ बताकर ओझल हो जाती हैं। उनकी दृष्टि में नवीनता का अर्थ प्राचीनता का सर्वथा त्याग नहीं है। उनका मानना था कि हमें अपनी परंपरा के सर्वोत्तम अवयवो का समन्वय पाष्चात्य जगत के सर्वोत्तम गुणों से करना है ताकि पुरातनता और नव्यता में व्याप्त दोषों से अपने को मुक्त रख सकंे।
मैंने अपने गाँव एवं विद्यालय में तुलसी जयंती के अवसर पर उनका भाषण दो बार सुना था। तुलसी उनके प्रिय कवि थे। वे तुलसी को भगवान के प्रति समर्पित, लोक-मर्यादा का संवाहक और लोक-मंगल के प्रतिनिधि कवि मानते थे। उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि तुलसीदास अत्यंत संयमी, शक्तिशाली और महान थे। रामचरितमानस में नायिकाएं अनेक हैं, श्रृंगार-वर्णन के भी स्थल अनेक हैं, किन्तु कवि ने कहीं शील का अतिक्रमण होने नहीं दिया। जब सीता स्वयंवर में पधारती है, तुलसी कहते हैं-

“सोह नवल तनु सुंदर सारी।
जगति जननी अतुलित छवि भारी।।

साठ के दशक में उच्च विद्यालय में उनकी पुस्तक ‘प्रवेशिका निबंधावली’ छात्रों एवं शिक्षकों के बीच काफी लोकप्रिय थी क्योंकि वह लीक से हटकर विशिष्ट शैली में प्रवाहमयी ढ़ंग से लिखा गया था। निबंध लेखन में उन्होंने विशेष ख्याति अर्जित की है। सूत्र वाक्यों का सटीक प्रयोग के कारण निबंध के मुख्य बिंदुओं का सहज स्मरण हो जाता था। मैं विद्यार्थी जीवन के बाद अपने कामकाजी जीवन में भी उनके निबंधों में व्यक्त विचारों को ससम्मान उद्धृत कर अपने कथ्य को विश्वसनीयता प्रदान करने का अभ्यासी रहा हूँ। ‘हमारा गाँव“ शीर्षक निबंध में अपनी बेबाक टिप्पणी के कारण कई स्थानीय लोगों के वे कोपभाजन भी बन गये थे। उन्होंने ग्राम्य जीवन को बहुत निकट से, बारीकी से तथा गहरी आत्मीयता से देखा था। वे अपने कथानकों में सामाजिक विसंगतियों की पड़ताल करते हुए उन कारकों को चिन्हित करते हैं, जिनके कारण वे विसंगतियाँ जनित हुई हैं। वे सदैव अशिक्षा, अंधविश्वास, आर्थिक दैन्य और शोषण आदि को उजागर कर उन्हें समूल नष्ट करने पर बल देते थे। अपने निबंधांे में राष्ट्रकवि दिनकर की कविताओं की पक्तियाँ को कई जगह उद्धृत किया है।  वे श्रम की महत्ता को आत्म बल का आधार मानते थे। अपने निबंध में दिनकर जी की निम्न पंक्तियों को समाविष्ट किया है:

‘‘नींद कहाँ उनकी आँखों में जो धुन के मतवाले हैं,
गति की तृषा और बढ़ती पड़ते पग में जब छाले है।“

गाँव में नष्ट होती मानवीय संवेदना और राजनैतिक एवं सांस्कृतिक क्षरण से वे काफी चिंतित रहते थे। अपने निबंध में प्रकृति-चित्रण भी बेजोड़ ढ़ंग से किया है। प्रकृति उनके निबंध में आलंबन और उद्दीपन दोनों रूप में आयी है।
1968 में पटना सायंस काॅलेज में प्राक् विज्ञान में दाखिला के बाद वे मेरे स्थानीय अभिभावक बन गये। उस समय वे वहाँ हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष थे। महान वैज्ञानिक एवं गणितज्ञ, डा0 एन. एस. नागेन्द्रनाथ, जो नोबल पुरस्कार विजेता आयंस्टीन एवं सी.वी.रमण के साथ काम कर चुके थे, पटना सायंस काॅलेज के प्राचार्य थे। उन्हें डाॅ0 राम खेलावन राय हिन्दी सिखाते थे तथा उनको अपना नाम और हस्ताक्षर ना. सु. नागेन्द्रनाथ, के रूप में करने को प्रेरित किया। दक्षिण भारतीय होने के बावजूद डा0 नागेन्द्रनाथ का हिन्दी में काम-काज पर काफी बल था। डा0 नागेन्द्रनाथ प्रो0 राम खेलावन राय का बहुत सम्मान करते थे जिससे ये महाविद्यालय के अन्य प्राध्यापकों के ईष्र्या के पात्र बन गये थे। विज्ञान के छात्रों द्वारा हिन्दी की पढाई में उचित ध्यान नहीं देना उन्हें सालता रहता था। मुझे उन्होंने स्पष्ट हिदायत दे रखी थी कि हर रविवार को किसी विषय पर संक्षिप्त आलेख लिखकर उन्हें दिखाया जाना है। सचमुच विज्ञान विषयों पर ज्यादा ध्यान एवं समय देने के कारण हमलोग हिन्दी के साथ न्याय नहीं कर पाते थे। निबंध लिखने वक्त यह भय सताते रहता था कि अगर कोई चूक हुई तो डाँट मिलेगी। क्योंकि वे एक-एक शब्द को ध्यान से देखते थे और पूर्ण विराम, अर्द्ध विराम तक उनकी दृष्टि जाती थी। किसी निबंध में मैंने “उज्जवल“ शब्द का प्रयोग किया था। इस पर वे बिफर पड़े। उन्होंने संधि विच्छेद कर बताया कि शुद्ध स्पेलिंग उज्ज्वल है। मेरे चेहरे पर भय-मिश्रित-निराशा को भांपकर उन्होंने कहा कि तुम्हें घबराने की कोई जरूरत नहीं है। देखो, प्रो0 रामतबक्या शर्मा, जो हिन्दी के महान विद्वान थे, ने अपनी डी0लिट् थीसिस में जिसका प्रारूप वे जाँच रहे थे, ठीक यही गलती की है। इससे मुझे भरपूर सांत्वना मिली।
प्राक्-विज्ञान की कक्षा में वे हम सबों को “हिन्दी साहित्य: विविध विधाएं“ तथा दिनकर-रचित ‘रश्मिरथी’ के कुछ अंश पढ़ाते थे। “जीवन“ पर एक निबंध में कई दार्षनिकों एवं चिंतकों का जीवन के संबंध में विचार बताया गया था। उन्होंने तमाम परिभाषाओं के विवेचन के बाद गुरूदेव रवीन्द्र की निम्नलिखित व्याख्या को सर्वश्रेष्ठ बताया था:
‘‘मानव के इस दुःख में केवल आंसुओं का मृदुल वाष्प नहीं हृदय का प्रखर तेज भी है। विश्व में तेज पदार्थ है। मानव चित्त में दुःख है। वही प्रकाश है, गति है, ताप है। वही टेढे़-मेढ़े रास्तों से घूम-फिरकर समाज में नित्य-नूतन कर्मलोक और सौंदर्य लोक का निर्माण करता है। कहीं खुलकर तो कहीं छिपकर, दुःख के ताप ने ही मानव संसार की वायु को धावमान रखा है।’’
रश्मिरथी पढ़ाते वक्त वे उदाहरण देकर बड़े ही प्रभावी ढ़ंग से यह बतलाते थे कि भाषा का तेज या प्रवाह प्रसंग के अनुसार किस तरह परिवर्तित होता है। तोड़-मरोड़, प्रचंड प्लावन, दुर्जय प्रहार, झकोर, झंझा, चक्रवात, विशीर्ण आदि शब्दों के जरिए किस तरह दिनकर जी युद्ध का माहौल और कर्ण के रण-कौशल की भयावहता को मूत्र्त करते है। वे दिनकर जी द्वारा कर्ण के प्रबल आत्मविश्वास और प्रचंड शक्ति के वर्णन करने वाली पंक्तियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे।

“जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड
मैं क्या जानू जाति? जाति है ये मेरे भुजदंड।“..

तीसरे सर्ग में कृष्ण की न्याय-याचना की अवहेलना कर दुर्योधन कृष्ण को बंदी बनाने के षडयंत्र में लग जाता है, तब स्वंय कवि निम्न टिप्पणी करते है

“जब नाश मनुज पर छाता है
पहले विवेक मर जाता है।“

राम खेलावन बाबू इस विरोधाभास को प्रमुखता से इंगित करते थे कि समाज में उपेक्षित कर्ण उस पक्ष का समर्थन कर रहा है जिसका विवेक मर गया है। क्या यह कर्ण के लिए न्यायोचित था? दिनकर जी के इस भावनात्मक आवेश को जो उभयनिष्ठता दर्शाता है, वे आलोचना करते थे। वे विलक्षण अध्यापक थे। किसी भी विषय की गहराई में प्रवेश कर उसे साधारण लोगों के समझ का बता देनें में उन्हें महारथ हासिल थी। गूढ़ से गूढ़तर विषय को भी सरल और बोधगम्य बनाने की कला में वे पारंगत थे। वे हमेशा विस्तार और व्यापकता में विचरण करते थे और इस प्रक्रिया में बहुधा विषयांतर हो जाते थे। उनकी खासियत थी कि बोलते समय प्रतिभा का विस्तार किसी भी दिशा में हो और कितना ही हो लेकिन एकाग्रता का तार को टूटने नहीं देते थे। रश्मिरथी पढ़ाने के क्रम में प्रथम क्लास में उन्होंने महाकाव्य, प्रबंध काव्य और खण्ड काव्य की विशेषताएं और अंतर को सोदाहरण विस्तार से बताया था जिसमें महाप्राण निराला की कविताओं का खासकर सस्वर जिक्र्र किया था। विश्लेषण के समय वे तार्किक ढ़ंग से पुस्तक में वर्णित विचारों पर असहमति भी जताते थे। संस्कृत की उक्तिः “पुस्तके च या विद्या परहस्तेषु यद्धनम। उत्पन्नेषु कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम। (पुस्तक के अंदर की विद्या और दूसरे के हाथ में रखा हुआ धन, समय पड़ने पर काम नहीं आता।“) में विष्वास रखते थे। वे दृढ़ मत के थे कि विद्या पेट या जिह्वा में नहीं, अधरों पर होनी चाहिए। उनके ज्येष्ठ सुपुत्र डाॅ0 रजनी कांत राय बताते हैं कि प्रारंभिक षिक्षा काल में उनके गुरू कमलेष्वरी प्रसाद जी उन्हें यह सिखाया था। वह बार-बार दुहराते थे कि अगर प्रष्नों के उत्तर देने में सोचने की जरूरत पड़ती है तो स्पष्ट संकेत है कि आप को उत्तर मालूम नहीं हैं। कारण, उत्तर के निष्चित रहने पर सही एवं एकमात्र अभिव्यक्ति में विलम्ब कैसा?
साहित्य में प्रगतिवाद, प्रयोगवाद आदि आलोचनाओं के विषय में उन्होंने बड़ी बेबाकी से अपनी मान्यताओं को ‘प्रयोग, प्रगति और परंपरा’ पुस्तक में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा में काव्य-प्रवाह, भाव और विचारों की प्रखरता के साथ मौलिकता की छाप है।
भाषा की दृष्टि से राम खेलावन बाबू का स्थान समकालीन लेखकों में बहुत ऊँचा था। भावों के अनुकूल प्रभावी शब्दों का सटीक चयन करना उनकी विशेषता थी। कहावतों और मुहावरों का प्रयोग अत्यंत सुंदर ढ़ंग से किया करते थे। उनकी भाषा रोचक, प्रवाहमयी, जीवंत तथा चित्ताकर्षक थी। इनके निबंधांे में सुरूचि-संपन्न, कल्पना, बहुवर्णन के साथ-साथ हास्य-व्यंग के छींटे भी हुआ करते थे। उनकी भाषा में पांडित्य भी था और लालित्य भी। अपने लेखन में किसी परंपरा और शैली का अनुगमन नहीं किया। उनका संपूर्ण लेखन गैर-पारंपरिक, नव्य और अपनी तरह से वाकई अनूठा था। उनकी रचना में शब्द प्रयोग का अद्भुत संयोजन होता था। ज्ञान को संवेदना में स्थानान्तरित करना किसी भी रचना का लक्ष्य होना चाहिए। उनके लेखन में विषयगत विविधता थी। वे जटिल यथार्थ की सूक्ष्म समझ को हृदयग्राही ढंग से व्यक्त करते थे। साहित्य की दुनिया में नाना प्रकार की विकृतियाँ, दुरभिसंधियों और अंतहीन महत्वाकांक्षाओं से वे आहत होते थे। वे सभी विचारधारा के रचनाकारों एवं साहित्य प्रेमियों के बीच समादृत थे। उनका मानना था कि हिन्दी पूर्णरूपेण समृद्ध एवं विकसित भाषा है तथा उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही प्रबल है जितनी विश्व के किसी और समृद्ध भाषा की हो सकती है।
पिताजी बताते थे कि राम खेलावन बाबू बचपन से ही अत्यंत मेधावी, कुशाग्र बुद्धि एवं प्रतिभा संपन्न थे। वे बचपन से ही चश्मा का प्रयोग करते थे। कम उम्र में ही वे एक लेखक के रूप में पहचाने जाने लगे थे। उन्होंने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने स्वाभिमान को सदैव अनुप्रेरक रखा। वे बेगूसराय जिले के साहित्यिक-सांस्कृतिक चेतना के प्रेरणा-श्रोत और गौरव स्तंभ थे। रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों का विपुल अध्ययन उन्होंने छात्र जीवन में ही कर लिया था। उनके लिए साहित्य आत्म-परिष्कार का एक माध्यम था। अपने व्यावहारिक कार्यो के साथ शास्त्रों का नियमित अध्ययन, चिंतन सत्संग आदि साधनों को अपनाते हुए परिश्रमपूर्वक शास्त्र एवं साहित्य के तमाम आशयों को अच्छी तरह समझ लिया था। हिन्दी, संस्कृत के प्रायः सभी महारथी शास्त्र एवं साहित्य में उनकी गहरी पैठ का लोहा मानते थे। वे अपने विचारों पर दृढ़ रहनेवाले व्यक्ति थे और प्रतिपक्षी को अपने तर्को से सहमत कराने में विश्वास रखते थे। घोर तार्किकता में आस्था रखने के बावजूद वे आस्तिक और श्रद्धावान थे। वे धार के विरूद्ध तैरनेवाले योद्धा थे तथा अपकीर्ति का परवाह किये बिना उस बात को जरूर बोलते थे जिसे वे उचित समझते थे। डाॅ0 रजनी कांत राय ने बताया कि वे बराबर बाल्मीकि रामायण के निम्न ष्लोक का उल्लेख किया करते थे जो रावण द्वारा पाद-प्रहार के उपरान्त विभीषण ने कहा थाः

सुलभाः पुरूषः राजन सततं प्रियवादिनः।
अप्रियस्य य पत्थस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।।

(राजन, सदा प्रिय लगनेवाली मीठी-मीठी बातें कहने वाले लोग तो सुगमता से मिल सकते हैं, परन्तु जो सुनने में अप्रिय किन्तु परिणाम में हितकारी हो ऐसी बात कहने और सुनने वाले दुर्लभ होते हैं।) उन्होंने इस उक्ति को अपना सूत्र-वाक्य बना लिया था।

ष्  वे नैष्ठिक पुरूष थे। विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी मनः स्थिति संक्रामक नहंी होती थी वरन् उनकी जिजीविषा दूसरों के लिए प्रेरक शक्ति का काम करती थी। तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना उन्होंने प्रतिभा तथा जुझारूपन से किया। कहा जाता है आस्कर वाइल्ड जब अमेरिका पहुँचे तो चुंगी थाने पर बोले- ‘मेरे पास प्रतिभा के अलावा और कुछ नहंीं है।’ उन्होंने वसूलों और सिद्धातों से कभी समझौता नहीं किया। वे कर्मठता के अवतार थे। वे एक सुलझे हुए चिंतक और मनीषी थे। लोकजीवन और लोक संस्कृति में गहरी पैठ, बचपन से ही कठोर जीवनानुभव और आत्म-निर्मित व्यक्तित्व के फलस्वरूप अर्जित संवेदनशीलता उनके जीवन को प्रखरता प्रदान करने में अहम भूमिका निभायी। उनके देहावसान पर पिताजी ने अपनी त्वरित टिप्पणी में लिखा था कि भावी पीढ़ी यह कल्पना भी नहीं कर पायगी कि ऐसा प्रखर एवं प्रतिभा-संपन्न व्यक्ति साहित्य जगत में विचरण करता था।
नब्बे के दशक में उनका निबंध गणतंत्र दिवस के अवसर पर ‘हिन्दुस्तान’ दैनिक ने प्रमुखता से प्रकाशित किया था। निबंध में समाप्त हो रहे जीवन-मूल्यों के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की गयी थी। वे भारतीयता के प्रति पूर्ण समर्पित थे। उन्हें यह कदापि बर्दाश्त नहीं था कि स्वराज-प्राप्ति के बाद हम अपनी अस्मिता को भुला दें तथा अपनी बहुमूल्य सांस्कृतिक विरासत से अपरिचित होते  जाए। उनके अनुसार भारतीय समाज में ऐसा परिवत्र्तन हो गया है, जिस भारत को लोग सभ्यता का प्रांगण समझते रहे, वहीं आज गरल-वर्षण हो रहा है। राष्ट्रकवि दिनकर की निम्न पंक्तियों का उल्लेख वे बराबर किया करते थेः

‘‘पग पग पर हिंसा की ज्वाला,
चारो ओर गरल है
मन को बांध शांति का पालन,
करना नहीं सरल है।’’

लेकिन घोर निराशा में आशा की किरणें उन्हें दिनकरजी की पंक्तियों में ही दिखायी देता थाः

“तब उतरेगी शांति धरा पर,
मनुज का मन जब कोमल होगा।
जहाँ आज है गरल
वहाँ शीतल गंगाजल होगा।“

उनकी अपेक्षा थी कि साहित्य द्वारा सम्यता की समीक्षा भी होनी चाहिए। लोकतंत्र और षड्यंत्र में सिर्फ शाब्दिक तुकांत ही नहीं मिलती है। लोकतंत्र में होने वाले षड्यंत्रों पर तीखी नजर रखकर उसे उजागर किया जाना है। उन्होंने राजनीति में भी प्रवेश किया लेकिन छल प्रपंच एवं शुचिता का अभाव के कारण उन्हें राजनीति रास नहीं आयी और अपने को अलग कर लिया। 1942 के ”भारत छोड़ो“ आंदोलन में भी पढ़ाई छोड़कर उन्होंने सक्रिय भूमिका निभायी थी।

उनकी वाणी का स्वर ओजस्वी था। उनमें प्रखरता, व्यंग और कटाक्ष भी होता था। धारा-प्रवाह भाषण के दरम्यान जो तेज उनकी वाणी में समाया रहता था वह उनके चेहरे पर भी दीप्त हो उठता था। उदाहरण-प्रमाण, तर्क-दलील, हास परिहास, कशाघात आदि उनके भाषणों में घुला रहता था। अपने सिद्धांत पक्ष के समर्थन और प्रतिपादन में ओजस्वी वाणी के साथ विद्वता और वाग्मिता की गहरी छाप श्रोताओं पर छोड़ते थे। एक ही विषय पर कई-कई व्याख्यान देने के क्रम में भी हर बार नए नुक्ते, नई जानकारियाँ देते थे। सचमुच ऐसा लगता था कि उनकी जिह्वा पर साक्षात सरस्वती का वास है। उनकी वाग्मिता के चमत्कार और उक्ति-वैचित्र्य की विद्रग्धता साहित्य क्षेत्र में सदा उद्घृत होती रहेगी। कई भाषणों में मैने पाया कि मंच पर बोलते समय संयत, शांत और आत्मविश्वास से लवरेज होकर एक-एक शब्द का चुनाव और गढ़े हुए वाक्यों को लय में भंगिमाओं के साथ व्यक्त करते थे। उनमें विश्लेषण एवं विवेचन का अद्भुत साम्यर्थ था। ठीक वक्त पर ठीक सूत्र याद आना, व्युत्पन्नमतित्व, स्वर का उचित आरोह-अवरोह,  भंगिमा के साथ कथ्य को प्रस्तुत करना आदि उनकी विशिष्टता थी। उनके कथित का वजन उनके लिखित की तुलना में कहीं ज्यादा था जो उनकी अक्षय ख्याति का आधार है। उनके कटु आलोचक भी इस बात से सहमत हैं कि उनके अल्प लेखन के साथ उनकी विशद वक्तृत्व क्षमता को जोड़ दिया जाय तो उनके विराट कृतित्व का पता चल सकेगा। वे ऐसी तन्मयता से बोलते थे जैसे अपने आपको भूल गये हों तथा श्रोताओं के अंतस् की गहराई में अनूठी सहजता के साथ उतरते थे। वे दक्ष संचालन से किसी भी समारोह को उत्सव में तब्दील कर देते थे। संस्कृत, साहित्य, कला, इतिहास, धर्म और वाड्‐मय आदि अनेक विषयों और ज्ञान की शाखाओं में उनकी पैठ थी और बिना किसी तैयारी के इन विषयों पर अधिकारपूर्वक व्याख्यान दे सकते थे। उनकी प्रभावी वक्तृतता, प्रवाहमान शैली श्रोताओं की स्मृति में तेजी सी आई हुइ नदी के बहाव के रूप में अंकित होती थी। अपने व्याख्यानों में कई हृदयग्राही संस्मरण भी सुनाते थे। अपने विचारों को कारगर और निर्भीक ढ़ंग से अभिव्यक्त करना उनकी मौलिक विशिष्टता थी। किसी प्रसंग की पुनर्प्रस्तुति वह इस मोहक अंदाज में करते थे कि श्रोताओं को वह सदैव याद रहता था। उत्तेजना और आवेग को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्दों के चयन में उनकी वाजीगरी थी।

अस्सी के दशक में योग तथा आयुर्वेद का गहन अध्ययन कर उसका नियमित प्रयोग खुद करने लगे तथा अपने स्नेही मित्रों को स्वस्थ जीवन के लिए नुस्खा भी पत्र के माध्यम से देते थे। उनके पत्रों की विशिष्ट शैली थी। बानगी के तौर पर पिताजी को लिखे गये उनके कुछ पत्रों को उदघृत किया जा रहा हैः
5.11.1984
आदरणीय धर्मदेव बाबू,
सादर नमस्कार

मैं आपके लिए कतिपय महाऔषधियों का अनुसंधान कर रहा था। अब आपसे निवेदन है, प्रार्थना है, अनुरोध है कि आप निम्नांकित साधन शीघ्रातिशीघ्र, पत्र मिलने के साथ प्रारंभ कर हमें कृपापूर्वक सूचित करें।
साधनाएं इस प्रकार है-
सग्गा चिरायता प्रातः-काल में एक पाव जल में भिगोकर छोड़ दें। दूसरे दिन प्रातः काल उसे खौला दे और साफ कपड़े से छानकर चाय के समान गरम रहते पी जाय। प्रातः काल में पुनः उसी समय दूसरा चिरायता जल में भिगोंने के लिए दे दें। चिरायता भिगोंने का काम पीतल या काँसा, तांबे के ग्लास या पात्र में हो। यह सीधे कायाकल्प है। शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने में अनुपम है। रक्त शुद्धि, उदर शुद्धि आदि इसके मुख्य गुण है।………….
स्नेहाकांक्षी
राम खेलावन राय
एक दूसरे पत्र में भी उन्होंने पिताजी को स्वास्थ्य संबंधी सुझाव दिया था।

2.2.1991
आदरणीय धर्मदेव बाबू,
सादर नमस्कार,

यो तो आपका स्वास्थ्य संतोषजनक है, पर मुझे केवल उतने भर से संतोष नहीं है। अतः मेरा निवेदन है कि अभी हाल में आविष्कृत एक रसायन का सेवन आप अविलंब शुरू कर दें। यह अत्याधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धि है – जो जिनसिंग नाम कोरियन जड़ी से निर्मित है। कहते हैं इसके लगातार सेवन से उम्र को 20 वर्ष पीछे ले जाता है। प्रयोग प्रारंभ करने के उपरान्त अपना अनुभव लिखने की कृपा करें।
स्नेहाकांक्षी
राम खेलावन राय
अपने शिक्षकों के प्रति उनकी असीम श्रद्धा थी। गुरू-भक्ति में उनकी प्रबल आस्था थी। मिड्ल स्कूल के प्रधानाध्यापक पं0 दीनानाथ झा के बारे में उनकी टिप्पणी इस प्रकार हैः
‘‘पंडित दीनानाथ झा सिर से पैर तक शिक्षक थे। अपने घोर अध्यवसाय, उत्कृष्ट चारित्रिक बल, विशाल व्यक्तित्व तथा बच्चों के प्रति सहज स्वाभाविक वात्सल्य भाव के कारण हम छात्रों के हृदय पर निरंकुश शासन करते थे। छात्रों को अपने गुरू सम्राट पर गर्व था। हममें से कोई छात्र अपने इस देवता के विरोध में कुछ भी नहीं सुन सकता था। उनके आदेशों में माँ का दुलार, पिता की थपकी और मित्र का आग्रह, तीनों एक ही साथ मिला-जुला होता था।’’
बाबू श्री कृष्ण सिंह, मिड्ल स्कूल, नारेपुर के शिक्षक, जिनसे सौभाग्यवश मुझे भी पढ़ने का मौका मिला, के बारे मे उनका चित्रण:
“बाबू श्री कृष्ण सिंह जिस समय कक्षा में मुस्कुराते या हँसते भी रहते थे, उस समय भी लड़के प्रायः भयाक्रांत रहते थे। वे अध्यापन के क्रम में कभी-कभी अत्यंत मधुर वाणी का भी प्रयोग करते थे, किन्तु उनकी यह मधुरवाणी भय की चासनी से सम्पुटित होकर ही छात्रों के मनः प्रदेश में प्रकट होती थी……… लगता है हम संसार में सबसे अधिक भाग्यवान है कि हमें जीवन के उषा काल में ही ऐसे गुरू मिले जो छोटी सी छोटी त्रृटि को भी अदंडित नहीं छोड़ सकते थे, कि जिनमे नाम स्मरण मात्र से अनजान में भी त्रृटियाँ करने का साहस नहीं होता था“।
राष्ट्रकवि दिनकरजी से प्रो. राम खेलावन राय की अंतरंगता थी। राजेन्द्रनगर (पटना)में पड़ोस में आवास होने के कारण जब भी दिनकर जी पटना में रहते थे राम खेलावन बाबू के साथ साहित्यिक चर्चा किया करते थे। इनसे दिनकर जी का पत्राचार भी होता था। दिनकर जी का एक पत्र जो उनकी मृत्यु के डेढ़ महीने पहले लिखा गया था, उनके घनिष्ठ संबंध को दर्षाता है:
31 सरदार पटेल रोड नई दिल्ली,
4.3.1974
“प्रियवर, तुम्हारी याद रोज आती है। तुम, रजनीकांत और योगेन्द्र गाढे़ वक्त मेरे काम आये। भगवान तुम्हें सपरिवार सुखी रखें। तुम्हारे घर में जो टेलीफोन है उसका नंबर भेज दो। आते जाते कभी अरविंद, रीता आदि से मिल लिया करो।
तुम्हारा
दिनकर“
आवेग-संवेग उनके स्वभाव में इस सीमा तक घुल-मिल गया था कि प्रायः उन्हें क्रोधी और अभिमानी भी समझ लिया जाता था। प्रो. राम बचन राय ने अपने आलेख, ‘एक शिक्षक किताबें कंठाग्र कर लेता है’ (हिन्दुस्तान दैनिक में 7.5.2014 को प्रकाशित) लिखा है, ‘प्रो. राम खेलावन राय अपने प्रचंड क्रोध के लिए कुख्यात थे। क्रोधी स्वभाव के कारण वे “परषुराम“ और “दुर्वासा“ के नाम से चर्चित थे।उनका कद छोटा था, मगर क्रोध उनमें इतना ज्यादा था कि छात्रगण आपस में उन्हें ‘लोंगी मिर्च’ कहा करते थे। उन्होंने अपने निबंध में लिखा है, ‘शिक्षा प्राप्त करने की दिशा में जितने प्रेरक तत्व हो सकते हैं, उनमें शिक्षक के प्रति भय की भावना ही व्यक्ति को सम्मान की दृष्टि से देखने के लिए बाध्य करती है। भय ही अनुपस्थिति में आदेशपालन का कार्य संभव नहीं है।’’ उनके क्लास में प्रवेश करने पर जो छात्र ठीक से खड़ा नहीं होता था या खड़ा होने में आलस दिखाता था या देर से कक्षा में प्रवेष करता था, उसे जबर्दस्त डाँट खानी पड़ती थी। दिनकरजी का मत है कि क्रोध साहित्यकार का आवश्यक गुण है। जिसमें क्रोध पी जाने की शक्ति है वह या तो संत है या डिप्लोमेट, जो व्यवहार में वैष्णवी विनम्रता लाकर सबको खुश रखना चाहता है। जिसमें क्रोध नहीं वह बुद्धिजीवी कानफार्मिस्ट हो जायगा और कानफार्मिस्ट होना जीवन का नहीं, उसकी मृत्यु का लक्षण है। लगता है राम खेलावन बाबू दिनकर जी की निम्न पंक्तियों से प्रेरित थेः

“अरि का विरोध अवरोध नहीं छोडूंगा।
जब तक जीवित हूँ, क्रोध नहीं छोडूंगा।।“

लेकिन उनके क्रोध में कोई दुर्भावना नहीं छिपी रहती थी। मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते समय जब कभी-कभी उनसे लंबे अंतराल के बाद मिलने जाता था तो देखते ही बिफर पड़ते थे तथा कहते थे, ‘तुम दुष्ट हो।“ चेहरे पर उदासी को भाँप तुरत अपने अंदाज में फिर स्पष्ट करते थेः ‘दुरः तिष्ठति सः दुष्टः’। क्रोध के वक्त चेहरे पर सख्तगी थोड़ी ही देर में मुस्कान का रूप ले लेता था। ‘वज्रादपि कठोर-मृदुनि कुसुमादपि’ एक विराट समष्टि कि वे प्रतिमूर्ति थे।

उनके मनोजगत में एक ‘फादर फीेगर’ अवस्थित था और अपने इलाके के लोगों के हितैषी और रहनुमा की भूमिका में रहते थे। अपने अंचल के लोगों से स्थानीय भाषा में स्नेहपूर्वक बतियाते थे तथा व्यवहार में गवई आत्मीयता दिखाते थे। उनके घर पर छात्रों, शोधार्थियों, लेखकों तथा विद्वानों का आना-जाना लगा रहता था। रोड नं0-3, राजेन्द्रनगर, पटना एक साहित्यिक तीर्थ बन गया था। उनका परम स्नेह और उदारता अनगिनत शिष्यों के लिए स्मृति रूप में अमूल्य निधि है। अपने समकालीन साहित्यिको के साथ संस्मरण, बतकही एवं साहित्यिक विमर्श का अटूट सिलसिला उनके निवास पर चलता रहता था। विधानुरागियों एवं साहित्य पिपासुओं को अपना समय और श्रम देकर वे पूरी एकाग्रता और तन्मयता के साथ उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करते थे। उन्होंने विद्यार्थियों को उपदेश एवं साहित्य के माध्यम से ज्ञान और जीवन के विभिन्न रूपों से अवगत कराया। वे अपने शिष्यों और मित्रों के लिए बहुत वत्सल थे, जो एक बार उनसे मिला, वह उनका होकर रह गया।
उन्हें सबसे ज्यादा सुकून किताबों के बीच ही मिलता था। किताबें उनके लिए उस घर की तरह थी जहाँ हर-बार आदमी लौटकर जाता है। मैंने उन्हें रेल यात्रा के क्रम में भी तल्लीन होकर पुस्तक पढ़ते देखा है। उन्हें नई-नई पुस्त्कें प्राप्त करने, पढ़ने तथा जमा करने का शौक था। जिन लोगों ने उनसे शिक्षा पायी, वे उन्हें अत्यंत उच्च कोटि का शिक्षक मानते हैं। जिन लोगों ने उनके मार्गदर्शन में शोध किया है, वे उन्हें विद्यारण्य का सुयोग मार्गदर्शक मानते हैं, वे कत्र्तव्यनिष्ठ और कार्य-तत्पर थे। उनके व्यक्तित्व का ध्यान आते ही मेरे मन में ऐसी प्रतिमा खड़ी हो जाती है जो कोमल भी है और कठोर भी, भावुक भी और व्यावहारिक भी, जो कारयित्री और भावयित्री, दोनों प्रतिभाओं से संपन्न है। वे सदा अपने आचरण, अर्जित ज्ञान और विद्वता के माध्यम से हम सबों को अच्छा नागरिक बनने की प्ररेणा देते थे। ऐसे मनीषी का जितना भी स्नेहपूर्ण सान्निध्य मिल पाया, उसे मैं अपना परम सौभाग्य और अपने जीवन की उपलब्धि मानता हूँ।

वे बिहार की साहित्यिक-संास्कृतिक चेतना के प्ररेणा-स्रोत और गौरव-स्तंभ थे। दरअसल राम खेलावन बाबू एक व्यक्ति नहीं संस्था थे। वे जीवंत संस्मरण-कोष थे। वे भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके बौद्धिक अवदान से आने वाली पीढ़ियाँ निरंतर उपकृत होती रहेगी।

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प्रभात कुमार राय

मुख्यमंत्री, बिहार के ऊर्जा सलाहकार

Former Chairman of Bihar State Electricity  Board & Former  Chairman-cum-Managing Director Bihar State Power (Holding) Co. Ltd. . Former IRSEE ( Indian Railway Service of Electrical Engineers ) . Presently Energy Adviser to Hon’ble C.M. Govt. of Bihar . Distinguished Alumni of Bihar College of Engineering ( Now NIT , Patna )  Patna University. First Class First with Distinction in B.Sc.(Electrical Engineering). Alumni Association GOLD MEDALIST  from IIT, Kharagpur , adjudged as the BEST M.TECH. STUDENT.

Administrator and Technocrat of International repute and a prolific writer . His writings depicts vivid pictures  of socio-economic scenario of developing & changing India , projects inherent values of the society and re-narrates the concept of modernization . Writing has always been one of his forte, alongside his ability for sharp, critical analysis and conceptual thinking. It was this foresight and his sharp and apt analysis of developmental processes gives him an edge over others.

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