लेखक सुशांत सुप्रिय
( उन सभी को समर्पित जिन्हें
‘ अपना शहर ‘ छोड़ना पड़ा )
” लीजिए , आपका शहर आ गया , ” पत्नी ने कार का शीशा नीचे करते हुए कहा । कार शहर के बाहरी इलाक़ों से गुज़र रही थी ।
” पापा , आप यहीं बड़े हुए थे ? ” पिछली सीट पर बैठे राहुल ने पूछा ।
“हाँ , बेटा । ”
मैंने भी कार का अपनी ओर का शीशा नीचे कर लिया । हवा में जैसे दूर कहीं से लौट आई एक जानी-पहचानी-सी गंध थी । हम घंटाघर के पास से गुज़र रहे थे । आगे स्कूल । फिर थाना । फिर बाज़ार …
कुछ साल पहले मैं यहाँ आया था । पिताजी के देहांत के समय । अकेला ।
माँ को साथ ले जाने ।
यह वह शहर था जहाँ मैं पैदा हुआ था । पला-बढ़ा था । स्कूल-कॉलेज गया था ।
” पापा , क्या यही आपका स्कूल था ? ”
” हाँ , बेटा । ”
कार स्कूल के सामने से गुज़र रही थी ।
” पापा , आप शरारती बच्चे थे या सीरियस ? ” राहुल पूछ रहा था ।
— सुरिंदर ?
— येस मैडम ।
— नफ़ीस ?
— प्रेज़ेंट मैडम ।
— सुमन ?
— येस मैडम ।
— माइकल ?
— येस मैडम ।
— मनीष ?
— येस सर ! सॉरी ! येस मैडम …
कार जी.टी. रोड पर भाग रही है । सड़क के दोनों ओर लगे बरगद के बरसों पुराने पेड़ काट दिए गए हैं । दोनों ओर नई-नई कोठियाँ , नई-नई दुकानें बन गई हैं । इलाक़ा इतना बदल गया है कि पहचाना नहीं जा रहा ।
कार एक बंद गली के आख़िरी मकान के सामने आकर रुकती है । यहीं मैं पैदा हुआ था । यहीं मैं पला-बढ़ा था । इस मकान से जुड़ी यादों का ख़ज़ाना है मेरे ज़हन में ।
जाड़ों की गुनगुनी धूप में छत पर मूँगफली खाते और पतंगें उड़ाते हम भाई-बहन । गर्मियों की छुट्टियों में मकान के भीतर ठंडे कमरों में ‘ रूह अफ़्जा ‘ पीते और शतरंज खेलते हम भाई-बहन । दफ़्तर से लौटकर हम भाई-बहनों को ‘ बैगाटेल ‘
नाम का नया खेल खेलना सिखाते पिताजी । दीवाली की शाम को गणेश-लक्ष्मी की पूजा करते माँ-पिताजी और गली में पटाखे छोड़ते हम भाई-बहन । पटाखों की आवाज़ से डर कर पलंग के नीचे दुबक जाता हमारा पालतू कुत्ता जैकी । गली में गिल्ली-डंडा और कंचे खेलते हम भाई-बहन ।
” पापा , क्या हम हर साल यहाँ नहीं आ सकते ? ” कार से उतरते हुए राहुल पूछता है । मेरी आँखें उसकी माँ की आँखों से मिलती हैं । फिर मैं दूसरी ओर देखने लगता हूँ ।
इस बार मैं इस मकान को बेचने आया हूँ । जब तक माँ थीं , मैंने उनकी इच्छा का सम्मान किया । अब माँ भी नहीं रहीं । एक भाई विदेश में है । दूसरा देश के सुदूर कोने में । भाई-बहन सब की यही राय है कि अब यह मकान बेच दिया जाए । क्या मकान बेच देने से उससे जुड़ी यादें ख़त्म हो जाती हैं ? क्या मकान बेच देने से उस में बिताए पल नष्ट हो जाते हैं ।
अब हम मकान के भीतर आ गए हैं । बेड रूम की दीवार पर पिताजी की फ़ोटो टँगी हुई है । फ़ोटो पर धूल जमी हुई है । और सूख गए फूलों की माला टँगी हुई है । सूखी फूल-माला हटा कर मैं फ़ोटो दीवार से उतार लेता हूँ । जेब से रुमाल निकालकर पिताजी की फ़ोटो साफ़ करता हूँ । फ़ोटो में पिताजी मुस्करा रहे हैं । लगता है जैसे अभी बोल पड़ेंगे — ” मन्नू , क्या बात है , बेटा ? इतने गम्भीर क्यों
हो ? “
” पापा , दादाजी हमारे साथ क्यों नहीं रहते थे ? ” मेरे बगल में खड़ा राहुल पूछ रहा है । और मेरे ज़हन में कुछ बरस पहले का दृश्य उभरने लगता है ।
आँगन में पिताजी का पार्थिव शरीर पड़ा है । बगल में माँ सिसक रही है । माँ को सहारा दिए बहन बैठी है । गिनती के दो-चार लोग और हैं । पिताजी की आँखें बंद हैं । चेहरे पर पीड़ा की कुछ स्पष्ट लकीरें हैं । पिताजी को रात में दिल का दौरा पड़ा था । जब तक उन्हें अस्पताल ले जा पाते , वे चल बसे थे ।
पिताजी यहाँ चालीस साल पहले आ कर बसे थे । उन्हें इस प्रांत से , इस शहर से मोह था । यहाँ की भाषा , संस्कृति , लोग — सब उन्हें अच्छे लगते थे । पर यहाँ वालों ने उन्हें कभी अपना नहीं समझा । उन्हें दफ़्तर में , मोहल्ले में , समाज में , हर कहीं यह अहसास दिलाया जाता था कि वे ‘ सन-ऑफ़-द-सोएल ‘ नहीं हैं ,
वे ‘ बाहरी ‘ हैं । वे यहाँ दूसरे दर्ज़े के नागरिक थे । और उनके साथ हम भी । क्योंकि हमारा रंग थोड़ा गहरा , नाक थोड़ी चपटी , और बोली थोड़ी अलग थी । क्योंकि यहाँ खड़ी नाक वाले लोग रहते थे । उनका रंग साफ़ था । उनकी बोली अलग थी । उनके रीति-रिवाज भिन्न थे । वे यहाँ के ‘ धरती-पुत्र ‘ थे । जबकि हम ‘ बाहरी ‘ थे ।
आप कहीं चालीस साल रहते हैं । आप वहाँ की भाषा-बोली , वहाँ के रीति-रिवाज , वहाँ की संस्कृति सीखते हैं । आप को वहाँ के लोग , वहाँ की मिट्टी अच्छी लगने लगती है । आप ‘ वहीं का ‘ हो कर रहना चाहते हैं । आप चाहते हैं कि आकाश जितना फैलें , समुद्र भर गहराएँ , फेनिल पहाड़ी नदी-सा बह निकलें । पर चूँकि आप ‘ बाहरी ‘ हैं , इसलिए आप को हथेली जितना भी नहीं फैलने दिया जाता , अँगुल भर भी नहीं गहराने दिया जाता , आँसू भर भी नहीं बहने दिया जाता । आपकी पीठ पर काँटों के जंगल उग जाते हैं जहाँ आपको मिलती हैं केवल मरी हुई तितलियाँ और झुलसे वसंत । आप पाते हैं कि आप किसी आग की झील में हैं जहाँ सर्पों के सौदागर रहते हैं …
फिर यहाँ के ‘ बाहरी ‘ लोगों के ख़िलाफ़ पहली बार दंगा हुआ । और हमारे भीतर-बाहर कई कश्मीर , कई गुजरात , कई बोस्निया , कई फ़िलिस्तीन घट गए । तब हमें यह निर्णय लेना पड़ा कि क्या हम दूसरे दर्ज़े का नागरिक बन कर यहीं रहें और दंगों की भेंट चढ़ जाएँ , या अपने हिस्से की धूप , अपने हिस्से की हवा , अपने हिस्से का आकाश तलाशने कहीं और जाएँ ? हम भाई-बहन बाहर निकल गए । इस घुटन और यंत्रणा से दूर । लेकिन पिताजी ने माँ के साथ यहीं रहने को चुना । हम सब ने बहुत समझाया — पिताजी , अब यहाँ क्या रखा है ? हमारे साथ चलिए । हम भाई-बहनों का यहाँ से मोह-भंग हो चुका था । एकाध अपवाद को छोड़ दें तो जिनके साथ खेले-कूदे , जिनके बीच पले-बढ़े , वे ही आज आपके ख़ून के प्यासे बन गए थे ।
जब पड़ोसी ही आपके ख़ून का प्यासा बन जाए तो उस जगह रहने की क्या तुक है ?
पर पिताजी नहीं माने ।
” मैंने अपने जीवन के अमूल्य वर्ष यहाँ की धरती को दिए हैं । यह मेरी कर्म-भूमि रही है । इन लोगों के बीच ही मेरा जीवन गुज़रा है । मुझे इस धरती से प्यार है । यहाँ की हवा , पानी , मिट्टी से प्यार है । यहाँ वाले चाहे मुझे जो मानें , अब मुझे यहीं जीना-मरना है । बच्चो , तुम लोग जाना चाहो , जाओ । मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा । पर मुझे और अपनी माँ को यहीं रहने दो । ” पिताजी ने कहा था ।
पिताजी , आपने यहाँ बहुतों का भला किया । बहुत सारे यहाँ वाले आप को सीढ़ी बना कर ऊपर चढ़ गए । यहाँ बहुतों ने आप को पुल बना कर मंज़िलें पाईं । पर पिताजी , आप की अर्थी को कंधा देने ये नहीं आए । आप यहाँ चालीस वर्ष रहे ।
आपने इन्हें अपना माना । आप इनके दुख-सुख में शरीक हुए । पर आप की शव-यात्रा में शामिल होने ये नहीं आए । यहाँ वालों के लिए शुरू से अंत तक आप
‘ बाहरी ‘ ही रहे पिताजी । केवल दूसरे दर्ज़े के नागरिक …
मकान का सौदा हो चुका है । राहुल बेहद उदास है । भीतर कहीं मेरे मन का एक कोना भी उदास है । एक रिश्ता है जो छूट गया है । एक बंधन है जो टूट गया है । मुझे माफ़ कर दीजिएगा , माँ-पिताजी । मुझे माफ़ कर देना मेरे शहर ।
सामान ट्रक में लादा जा चुका है । पिताजी की लाइब्रेरी साथ ले जा रहा हूँ । किताबों में पिताजी की आत्मा बसती थी ।
चलने से पहले एक भरपूर निगाह मकान पर डालता हूँ । ऐ मेरे मन , रोना नहीं , रोना नहीं — खुद से कहता हूँ ।
ट्रक चल पड़ा है । पीछे-पीछे कार । अब हम गली से बाहर आ गए हैं ।
” पापा , क्या अब हम यहाँ कभी नहीं आएँगे ? ” राहुल उदास स्वर में पूछ रहा है ।
चलते समय पड़ोस में रहने वाले बूढे बाबा लाठी टेकते हुए मिलने आ गए थे ।
” जा रहे हो बेटा ? मकान बेच कर तुमने अच्छा नहीं किया । ” उन्होंने कहा था । ” ख़ैर ! यह तुम्हारा अपना शहर है । कभी-कभार आते रहना । “
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सुशांत सुप्रिय
कवि , कथाकार व अनुवादक
शिक्षा: अमृतसर ( पंजाब ) व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ : हत्यारे , हे राम, दलदल ( कथा-संग्रह ) ,एक बूँद यह भी , इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं (काव्य-संग्रह),सम्मान : भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा
रचनाएँ पुरस्कृत ।
# कमलेश्वर – कथाबिंब कथा प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष प्रथम
पुरस्कार व् अन्य प्राप्तियाँ -:
कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी , उर्दू , पंजाबी , उड़िया , असमिया , मराठी , कन्नड़ व मलयालम आदि भाषाओं में अनूदित व प्रकाशित , कहानियाँ कुछ राज्यों के कक्षा सात व नौ के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल , कविताएँ पुणे वि.वि. के बी.ए. ( द्वितीय वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में शामिल , कहानियों पर आगरा वि.वि. , कुरुक्षेत्र वि.वि. व गुरु नानक देव वि.वि.,अमृतसर के हिंदी विभागों में शोधकर्ताओं द्वारा शोध-कार्य । अनुवाद की पुस्तक ” विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ” प्रकाशनाधीन , अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन , अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह ” इन गाँधीज़ कंट्री ” प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ” द फ़िफ़्थ डायरेक्शन ” प्रकाशनाधीन ।
# सम्पर्क : मो – 8512070086 , ई-मेल: sushant1968@gmail.com