– अरुण तिवारी –
नदी बंाध विरोधियों के लिए अच्छी खबर है कि देश की सबसे बङी अदालत ने दिल्ली सरकार को चेताया है कि वह बांधों के निर्माण के लिए तब तक दबाव न डाले, जब तक की वह दिल्ली की जल-जरूरत को पूरा करने के लिए अपने सभी स्थानीय विकल्पों का उपयोग नहीं कर लेती। जाहिर है कि इन विकल्पों में दिल्ली के सिर पर बरसने वाला वर्षा जल संचयन, प्रमुख है। आदेश में यह भी कहा गया है कि दिल्ली अपने जल प्रबंधन को सक्षम बनाये तथा जलापूर्ति तंत्र को बेहतर करे।
पनबिजली के विरोधाभास
नदी बांध विरोधियों के लिए बुरी खबर है कि देश की इसी सबसे बङी अदालत ने अलकनंदा-भागीरथी नदी बेसिन की पूर्व चिन्हित 24 परियोजनाओं को छोङकर, उत्तराखण्ड राज्य की शेष पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिए, पर्यावरण मंत्रालय को छूट दे दी है।
गौरतलब है कि वर्ष 2013 में हुए उत्तराखण्ड विनाश के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए उक्त उल्लिखित 24 परियोजनाओं की पर्यावरण व अन्य मंजूरियों को अदालत में चुनौती दी गई है। इन 24 पनबिजली परियोजनाओं के बारे में न्यायालय ने अपने एक पूर्व आदेश में कहा था कि इनके प्रभाव का अध्ययन होने के बाद प्राप्त रिपोर्ट के आधार पर ही आगे के कदम तय करें।
तय कायदों के आधार पर पर्यावरण मंजूरी देना और पाना, निश्चित ही क्रमशः संवैधानिक कर्तव्य और हकदारी है। सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल इसी आधार पर निर्णय लिया है। ंिकंतु बांध प्रबंधक, हर हाल में तय कायदों की पालना करें; इसका निर्णय अभी तक शासन, प्रशासन, प्रबंधन और न्यायालय द्वारा किसी भी स्तर पर नहीं लिया जा सका है।
क्या जरूरी है कि हम इंतजार करें कि हिमालय के बाकी नदी बेसिन मंे भी 2013 की उत्तराखण्ड आपदा दोहराई जाये ? क्या जरूरी है कि हम तब उन बेसिन की बांध परियोजनाओं के प्रभाव के आकलन का आदेश दें ? क्या जरूरी है कि महाराष्ट्र की तरह हिमालयी बांधों में भी घोटाला सामने आया, तब हम चेतें ? हम हर काम दुर्घटना घट जाने के बाद ही क्यों करते हैं ? जलाश्यों में जल भंडारण की क्षमता गत् वर्ष के 78 प्रतिशत की तुलना में घटकर, 59 प्रतिशत रह जाने से हमें समझ में क्यों नहीं आता कि उम्र बढने के साथ बांध परियोजनायें अव्यावहारिक हो जाने वाली है।
गौर कीजिए कि अक्तूबर, 2014 की तुलना में 15 अक्तूबर, 2015 की यह तुलना, देश के मुख्य 91 जलाश्यों की जलभंडारण स्थिति पर आधारित है। इधर, माटू संगठन ने अपनी ताजा जांच में पाया है कि उत्तराखण्ड में विश्व बैंक और एन टी पी सी की पनबिजली परियोजनायें पर्यावरणीय नियमों की पालना नहीं कर रहे हैं; उधर, वाडिया इन्स्टीट्युट ने का एक अध्ययन में चीख-चीख कर कह रहा है कि कई बारहमासी हिमालयी नदियां, छोटे नालों में तब्दील हो चुकी हैं। कई तो बारिश समाप्त होने के बाद हर साल सूख ही जाती हैं। यह अध्ययन, गत् 30 वर्ष की निगरानी पर आधारित है। हालांकि वैज्ञानिक, इसमें जलवायु परिवर्तन की ही अधिक भूमिका मानते हैं। कारण के रूप मंे पेङों की गिरती संख्या, कम होती हरियाली, भूस्खलन और पनबिजली परियोजनाओं को प्रमख माना गया है। इन परियोजनाओं के कारण पहाङों में दरार की घटनायें और संभावनायें बढ़ी है। ऐसा लगता है कि न हमें हिमालय की परवाह है, न नदियों की और न इनके बहाने अपनी।
समाज का विरोधाभास
अदालत रोक का आदेश देती है, तो नुकसान को जानते हुए भी नदियों में मूर्ति विसर्जन की जिद्द करते हैं। वाराणसी प्रशासन ने दुर्गा मूर्ति विसर्जन के लिए तीन ’गंगा सरोवर’ बनाकर तैयार कर दिए हैं; फिर भी प्रशासन अपनी जगह, आदेश अपनी जगह और समाज अपनी जिद्द अपनी जगह। काश! वाराणसी का समाज, मूर्ति विसर्जन की जगह, वाराणसी में गंगा से मिलने वाले कचरे-नालों को लेकर कभी ऐसी जिद्द दिखाये।
गंगा: दिखावटी न रह जायें पहल
अच्छा है कि बंगाल ने डाॅल्फिन को बचाने की जिद्द में देश का पहला ’डाॅल्फिन कम्युनिटी रिजर्व’ बनाने की पहल शुरु कर दी है। ज्यादा अच्छा तब होगा, जब डाॅल्फिन के लिए संकट का सबब बने कारणों को खत्म किया जायेगा। अच्छा है कि केन्द्र सरकार ने गंगा में जहरीले बहिस्त्रावों के कारण प्रदूषण को लेकर बिजनौर और अमरोहा स्थानीय निकायों को नोटिस जारी कर दिए हैं। गौरतलब है कि बिजनौर और अमरोहा, दोनो ही ’नमामि गंगे’ परियेजना के हिस्सा है।। उत्तर प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी बिजनौर व अमरोहा की 26 पंचायतों को नोटिस भेजे हैं। ये नोटिस, केन्द्र सरकार के निगरानी दल द्वारा साप्ताहिक आधार पर नदी जल के नमूने की रिपोर्ट के आधार पर भेजे गये हैं।
यमुना: कागजी न रह जायें चेतावनियां
उधर खबर है कि यमुना को प्रदूषित करने के मामले में राष्ट्रीय हरित पंचाट ने आगरा की सात काॅलोनियों को वारंट जारी कर दिए हैं। नोटिस भेजने का सिलसिला पुराना है। ज्यादातर नोटिस, भ्रष्टाचार का सबब बनकर रह जाते हैं। ज्यादा अच्छा तब होगा, जब ये नोटिस कुछ सकारात्मक नतीजा लायेंगे।
दिलचस्प है कि अपना प्रदूषण संभालने की बजाय, आगरावासी, नदी में प्रवाह बढ़ाने की मंाग कर रहे हैं। यदि इस मांग की पूर्ति, बैराज बनाकर की गई, तो मांग कल को स्वयंमेव परेशानी का सबब बन जायेगी। अच्छा होता कि आगरावासी पहले अपने प्रदूषण की चिंता करते, अपने सिर पर बरसने वाले पानी का संचयन कर यमुना का प्रवाह बढ़ाते और फिर कमी पङने पर शासन से कहते कि यमुना को और प्रवाह दो।
दिल्ली सरकार, यमुना नदी व बाढ़ क्षेत्र के विकास को लेकर कोई बिल लाने वाली है। इसका मकसद, बाढ़ क्षेत्र की सुरक्षा, संरक्षण, स्वच्छता, पुनर्जीवन और यमुना नदी का विकास के लिए विशेष प्रावधान करना बताया जा रहा है। भला नदी का भी कोई विकास कर सकता है! सुना है कि प्रावधानों को लागू करने के लिए ’यमुना विकास निगम लिमिटेड’ नाम की एक कंपनी भी बनेगी। विविध एजेंसियों की बजाय, यमुना के सारे काम यह एक कंपनी ही करेगी। खैर, अच्छा होता कि दिल्ली सरकार, बिल लाने से पहले यमुना के लिए मौजूदा संकट का सबब बने अतिक्रमण को लेकर कोई ठोस कार्रवाई करती और इसके लिए किसी को अदालत का दरवाजा खटखटाने की जरूरत न पङती।
अतिक्रमण पर कब चेतेगी सरकार
गौरतलब है कि यमुना बाढ़ क्षेत्र पर बढ़ते अतिक्रमण और जारी निर्माण को लेकर ’यमुना जिये अभियान’ ने राष्ट्रीय हरित पंचाट में पहुंच गया है। उसने ऐसे निर्माण पर रोक व जुर्माने की मांग कर दी है। अवैध कब्जे व निर्माण के कारण, ओखला बैराज से जैतपुर गांव के बीच के करीब चार किलोमीटर के हिस्से में यमुना का सिकुङ गया है। यमुना का यह दक्षिणी क्षेत्र ही वह क्षेत्र है, जो दिल्ली की पेयजल मांग के 70 प्रतिशत हिस्से की पूर्ति करता है। इस दृष्टि से बाढ़ क्षेत्र का अतिक्रमण और खतरनाक है, किंतु केन्द्र, राज्य और संबंधित एजेंसियों को लगता है कि जैसे इसकी कोई परवाह ही नही है। निजामुद्दीन पुल के पास यमुना किनारे दिल्ली परिवहन निगम के बस डिपो का मामला लंबा खींचा जा ही रहा है। यमुना जिये अभियान ने पत्र लिखकर दिल्ली के उपराज्यपाल, मुख्यमंत्री और दिल्ली विकास प्राधिकरण का ध्यान भी इस ओर आकर्षित किया है। यमुना सिग्नेचर ब्रिज का काम करीब 85 प्रतिशत पूरा कर लिया गया है, लेकिन दिल्ली सरकार ने इसके लिए अपेक्षित पर्यावरण मंजूरी अभी तक नहीं ली है। इसके लिए हरित पंचाट द्वारा बताई समय सीमा भी बीत चुकी है।
बुनियाद प्रश्न
बुनियादी प्रश्न यह है कि हर बार गुहार लगाने की जरूरत क्यों हैं? जब कभी मसला अटकता है, तो एजेंसियां, एक-दूसरे पर और केन्द्र व राज्य सरकारें भी एक-दूसरे की कमी बताकर जिम्मेदारी से पल्ला झाङ लेती हैं। इनमें आपस में न कोई तालमेल है और न तालमेल की मंशा। इस खेल से नाराज राष्ट्रीय हरित पंचाट ने 19 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड तथा केन्द्र सरकार के संबंधित अधिकारियों तथा उद्योग प्रतिनिधि की बैठक भी बुलाई थी।
आखिरकार हमारी सरकारें, नदी समाज के साथ एक बार बैठकर क्यों नहीं सारे विवाद के नीतिगत पहलुओं का निपटारा कर लेती ? क्यों नहीं सभी की जिम्मेदारियां और पालना सुनिश्चित करने की व्यवस्था तय हो जाती है ? सुना है कि दिल्ली जलनीति बनाने की प्रक्रिया चल रही है। क्या इसमंे दिल्ली नदी नीति और व्यवहार सुनिश्चितता पर अलग से कुछ तय किया जा रहा है ?
कहना न होगा कि मसला चाहे बांध का हो, प्रदूषण का या जलप्रवाह का, सारी विवाद की जङ, संवैधानिक स्तर पर संबंधित नीतिगत सिद्धांतों तथा उनकी पालना की सख्त व प्रेरक व्यवस्था का न होना है। शासन, प्रशासन और समाज की नीयत और संकल्प तो अन्य बिंदु हंै ही। क्या उक्त स्थितियों में ’नमामि गंगे’ का सपना पूरा हो सकता है ? क्या उक्त स्थितियों के चलते कोई भी एक सरकार, गंगा, यमुना या किसी भी एक प्रमुख नदी को उसका प्रवाह व गुणवत्ता वापस लौटा सकती है ?
मैं नहीं समझता कि समग्र नीति, व्यवहार और अच्छी नीयत के बगैर यह संभव होने वाला है । बगैर यह सुनिश्चित किए नदी प्रदूषण मुक्ति के कार्य, धन बहाने की भ्रष्ट युक्ति साबित होने वाले हैं। नदी निश्चिंतता के बिंदु कैसे सुनिश्चित हो, क्या हम कभी सोचेंगे ??
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परिचय -:
अरुण तिवारी
लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता
1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।
1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव।
इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।
1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम। साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।
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