– अरुण तिवारी –
एक वोट ने फ्रांस में लोकतांत्रिक सरकार का रास्ता प्रशस्त किया; एक वोट के कारण ही जर्मनी.. नाजी हिटलर के हवाले हो गया। यह एक वोट ही था, जिसने 13 दिन में ही अटल सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। एक वोट ने ही कभी अमेरिका की राजभाषा तय की दी थी। यदि एक वोट सरकार बदल सकती है, तो हमारी तकदीर क्यों नहीं ?
स्पष्ट है कि हमारे एक-एक वोट की कीमत है। अतः हम अपने मत का दान करते वक्त संजीदा हों। हम सोचें कि पांच साल में कोई आकर चुपके से हमारा मत चुरा ले जाता है; कभी जाति-धर्म-वर्ण-वर्ग, तो कभी किसी लोभ, भय या बेईमानी की खिङकी खोलकर और हम जान भी नहीं पाते। यह अक्सर होता है। इन खिङकियों को कब और कैसे सीलबंद करेंगे हम मतदाता ? इस राष्ट्रीय मतदाता दिवस पर मतदाता से जवाब मांगता, प्रथम प्रश्न यही है।
यह सच है कि बीते एक दशक में चुनाव को कम खर्चीला बनाने में निर्वाचन आयोग ने निश्चित ही शानदार भूमिका निभाई है; किंतु लोभमुक्त और भयमुक्त मतदान कराने के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। अतः निर्वाचन आयोग के चुनाव आयुक्तों को चाहिए कि वे सेवानिवृति के पश्चात् अपने लिए किसी पार्टी के जरिए पद सुनिश्चित करने की बजाय, निष्पक्ष मतदान सुनिश्चित कराने के लिए संकल्पित हों। सूचना के अधिकार का सम्मान कर उम्मीदवार व मतदान से जुङी ज्यादा से ज्यादा सूचनाआंे में शुचिता लाये। मैं समझता हूं कि कम से कम जीते हुए उम्मीदवारों के शपथपत्रों को जांचकर सत्यापित करने का कदम उठाकर निर्वाचन आयोग, शुचिता की दिशा में एक नई शुरुआत कर सकता है। जानकारी गलत अथवा आधी-अधूरी पाई जाने पर पद गंवाने तथा दण्ड के प्रावधानों को और सख्त करने से यह शुचिता सुनिश्चित करने मंे और मदद मिलेगी।
मतदाता मित्रों! शुचिता सुनिश्चित करने की इस बहस में क्या हमें खुद अपने आप से यह प्रश्न पूछना माकूल नहीं होगा कि यदि भारतीय राजनीति गंदी है, तो इसके दोषी क्या सिर्फ राजनेता हैं ? क्या इन्हे चुनने वाले हम मतदाताओं का कोई दोष नहीं ? क्या हमारी मतदाता जागरुकता का सारा मतलब, एक वोट डालने तक ही सीमित है ? उसके आगे पांच साल कुछ नहीं ??
हम में से कितने मतदाता हैं, जो पांच साल के दौरान जाकर अपने चुने हुए जनप्रतिनिधि से उसे मिले बजट का हिसाब पूछते हैं ? कितने हैं, जो सार्वजनिक हित के वादों को पूरा करने को लेकर जनप्रतिनिधि को समय-समय पर टोकते हैं ? सार्वजनिक हित के काम में उसे सहयेाग के लिए खुद आगे आते हैं ? हम भूल जाते हैं कि जहां सवालपूछी होती है, जवाबदेही भी वहीं आती है। यह सवालपूछी की प्रक्रिया और तेज होनी चाहिए। इसलिए हम यह तो याद रखें कि मतदान हमारा अधिकार है, किंतु कर्तव्य को न भूल जायें। जाति, धर्म, वर्ग, पार्टी, लोभ अथवा व्यक्तिगत संबंधों की बजाय उम्मीदवार की नीयत, काबिलियत, चिंता, चिंतन, चरित्र तथा उसके द्वारा पेश पांच साल की कार्ययोजना के आधार पर मतदान करना हमारा कर्तव्य है।
25 जनवरी की यह तारीख, प्रतिवर्ष हमें यह भी याद दिलाने आती है कि सिर्फ मतदान कर देना मात्र ही लोकतंत्र के निर्माण में हमारी एकमेव भूमिका नहीं है। महज् मतदान कर देने मात्र से हम अपने सपनों का भारत नहीं बना सकते। एक मतदाता के रूप में लोकतंत्र के निर्माण मंे सहभागिता के लिए जागने की अवधि सिर्फ वोट का एक दिन नहीं, पूरी पांच साल है; एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक। जैसे चुनाव संपन्न होता है, मतदाता का असल काम शुरु हो जाता है। चुने गये उम्मीदवार को लगातार संवाद के लिए जनमत के अनुरूप दायित्व-निर्वाह को विवश करना। राष्ट्र स्तर पर नीतिगत निर्णयों के लिए संासद को और हितकारी विधान निर्माण के लिए विधायक को प्रेरित करना व शक्ति देना। एक निगम पार्षद को विवश करना कि वह इलाके का विकास नागरिकों की योजना व जरूरत के मुताबिक करे। ग्रामपंचायत के निर्णयों में ग्रामसभा का साझा सपना झलकना ही चाहिए।
ये हम मतदाता ही हैं, जो कि उम्मीदवार को इस सच्चाई से वाकिफ करा सकते हैं कि चुनाव न हार-जीत का मौका होता है और न ही यह कोई युद्ध है। चुनाव मौका होता है, पिछले पांच साल हमारे जनप्रतिनिधि द्वारा किए गये कार्य व व्यवहार के आकलन का। चुनाव मौका होता है, अगले पांच साल के लिए अपने विकास व विधान की दिशा तय करने का। यह तभी हो सकता है, जबकि मतदाता मतदान के बाद सो न जाये।
हम बीते पांच साल में लोकप्रतिनिधि के कार्य का आकलन भी तभी कर सकते हैं, जब हमारे लिए बनी योजनाओं की हम खुद जानकारी रखें। उनमंे लोकप्रतिनिधि, अधिकारी और खुद की भूमिका को हम जाने। उनका सफल क्रियान्वयन सुनिश्चित करें और करायें। उनके उपयोग-दुरुपयोग व प्रभावों की खुद कङी निगरानी रखें। सरकारी योजनाओं के जरिए हमारे ऊपर खर्च होने वाली हर पाई का हिसाब मांगे। लोक अंकेक्षण यानी पब्लिक आॅडिट करें। ’’मनरेगा में काम क्या होगा ? कहां होगा ? यह जिम्मेदारी किसकी है ? – ग्रामसभा की।’’ रेडियो-टीवी पर दिन मंे कई-कई बार एक विज्ञापन यही बात बार-बार याद दिलाता है। बावजूद इसके यदि ग्रामवासी हर निर्णय की चाबी ग्रामप्रधान को सौंपकर सो जायें, तो वह हर पांच साल मंे एक गाङी बनायेगा ही। तेरी गठरी मंे लागा चोर, मुसाफिर जाग जरा! क्या करें ? कैसे जागें ??
अच्छा है कि हमने जागना शुरु कर दिया है। थोङा और जागें! वोट से और आगे बढें़। राजनेता चुनना बंद करें। लोकनेता चुनना शुरु करें। हम मतदाता खुद अपनी लोकसभा का घोषणापत्र बनायें। सभी उम्मीदवार व पार्टियों को बुलाकर उनके समक्ष पेश करें। उनसे संकल्प लें और जीतकर आये जनप्रतिनिधि को उसके संकल्प पर खरे उतरने को न सिर्फ विवश करें, बल्कि सहयोग भी करें।
लूट के रास्तों की बाङबंदी तभी होगी, प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्य व अधिकार.. दोनो का एकसमान निर्वाह करें; वरना्् लगाई बाङ खेत खायेगी ही। सिटी चार्टर सिर्फ पढें नहीं, उसकी पालना के लिए प्रशासन को विवश भी करें। लेकिन यह तभी संभव है कि जब हम मतदाता सकरात्मक, सजग, समझदार व संगठित हों। देशव्यापी स्तर पर निष्पक्ष मतदाता परिषदों का गठन कर यह किया जा सकता है। लोकतंत्र में राजतंत्र की मानसिकता को बाहर का रास्ता दिखाने का यही तरीका है। लोक उम्मीदवारी का मार्ग भी इसी से प्रशस्त होगा। आइये! प्रशस्त करें।
मेरा मानना है कि मतदाता जागरूकता का असल मतलब सिर्फ मतदान नहीं, लोकतंत्र के निर्माण में हर स्तर पर भागीदारी से है;ः व्यक्तिगत जिम्मेदारियों के निर्वाह से लेकर पदगत व संस्थागत दायित्वों की पूर्ति तक। मेरे पढने, लिखने, कुछ बनने, करने, अधिक से अधिक कमाने.. किसी भी कार्य के पीछे यदि उद्देश्य राष्ट्र निर्माण है, तो मैं सचमुच लोकतंत्र के निर्माण में सच्चा भागीदार हूं। क्या मैं सच्चा भागीदार हूं ? हमंे स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए।
हमें समझना चाहिए कि आज दुनिया का यदि कोई सबसे आसान काम है, तो वह है व्यवस्था और सत्ता को गाली देना। दूसरों को भ्रष्टाचारी कहना, निश्चित ही सबसे आसान काम है और खुद को सदाचारी बनाना, निश्चित ही सबसे कठिन काम। खुद को सदाचारी बनाने के लिए जिस संकल्प की जरूरत है, उसकी बात आने पर हम से ज्यादातर विकल्प तलाशते हैं। आज हम इतने सुविधाभोगी हो गये हैं कि अपनी सुविधा के लिए आज हम खुद शॅार्टकट रास्ते तलाशते हैं। ’आउट आॅफ वे’ हासिल करना हम रुतबे की बात मानते हैं। कहते हैं कि इतना तो चलता है। जब तक यह चित्र नहीं बदलेगा, मतदाता जागरूकता आधी-अधूरी ही रहेगी।
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अरुण तिवारी
लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता
1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।
1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव।
इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।
1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम। साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।
संपर्क -:
ग्राम- पूरे सीताराम तिवारी, पो. महमदपुर, अमेठी, जिला- सी एस एम नगर, उत्तर प्रदेश , डाक पताः 146, सुंदर ब्लॉक, शकरपुर, दिल्ली- 92
Email:- amethiarun@gmail.com . फोन संपर्क: 09868793799/7376199844
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