– संजीव कुमार बर्मन –
विज्ञापन का इतिहास भी काफी पुराना है। मौजूदा रूप तक पहुंचने के लिए इसने लंबा सफर तय किया है। भारत में भी विज्ञापन की शुरुआत सदियों पहले हुई है। यह बात और है कि समय के साथ इसके तौर-तरीके बदलते गए। बीसवीं सदी की शुरुआत से ही विज्ञापनों में औरतों का प्रयोग होने लगा था। उस वक्त विज्ञापन बनाने वालों ने यह तर्क दिया कि महिलाएं घर की खरीददारी में अहम भूमिका निभाती हैं। इस लिहाज से उनका विज्ञापनों में प्रयोग किया जाना फायदे का सौदा है। विज्ञापन के क्षेत्र में पहले पुरुष ही होते थे, किंतु बाद में इस काम से महिलाएं भी जुड़ने लगीं।
बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से रेडियो का प्रसारण आरम्भ हुआ। उस समय कार्यक्रमों का प्रसारण बगैर विज्ञापन के किया जाता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि पहला रेडियो स्टेशन स्वयं रेडियो की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए स्थापित किया गया था। जब रेडियो स्टेशनों की संख्या बढ़ी तो बाद में चलकर इसमें विज्ञापनों की शुरुआत प्रायोजित कार्यक्रमों के जरिए हुई। पचास के दशक में टेलीविजन पर भी छोटे-छोटे टाइम स्लाटों पर विज्ञापन दिखाया जाने लगा।
विज्ञापन के क्षेत्र में साठ के दशक में व्यापक बदलाव आया। रचनात्मकता पर जोर बढ़ने लगा। ऐसे विज्ञापन बनाए गए जो लोगों को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर सकें। लोगों को सोचने पर विवश करने वाले विज्ञापन उस दौर में बनाए गए।
कुछ समय बाद राजनैतिक विज्ञापनों के लिए भी टेलीविजन का प्रयोग किया जाने लगा। भारत में इसकी शुरूआत दूरदर्शन पर पार्टी को समय आवंटित करने से हुई। यह विज्ञापन के बढ़ते असर का ही परिणाम है कि विज्ञापन विमर्श अर्थशास्त्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। विज्ञापन एजेंसियों के बड़े कारोबार को जानना-समझना अपने आप में विशेषज्ञता का एक क्षेत्र बन चुका है।
टीवी विज्ञापन या टीवी कमर्शियल, जिसे अक्सर बस कमर्शियल, विज्ञापन, ऐड या ऐड फिल्म कहा जाता है-सन्देश पहुंचाने वाले किसी संगठन द्वारा किए गए भुगतान के तहत उसके लिए निर्मित टीवी कार्यक्रम का एक विविध रूप है। विज्ञापन से प्राप्त होने वाला राजस्व अधिकांश निजी स्वामित्व वाले टीवी नेटवर्कों के लिए वित्तपोषण के एक बहुत बड़े हिस्से का निर्माण करता है। आजकल के अधिकांश टीवी विज्ञापनों में संक्षिप्त विज्ञापन अंश शामिल होते हैं जो कुछ सेकंड से लेकर कई मिनट तक चल सकते हैं (इसके साथ ही साथ कार्यक्रम के लंबे इन्फोमर्शियल). टीवी के इस्तेमाल के आरम्भ से ही इस तरह के विज्ञापनों का इस्तेमाल तरह-तरह के उत्पादों, सेवाओं और विचारों को बढ़ावा देने के लिए किया जाता रहा है। विज्ञापन देखने वाली जनता पर वाणिज्यिक विज्ञापनों का काफी सफल और व्यापक असर पड़ा है।
यस बैंक और एक अग्रणी उद्योग द्वारा एक संयुक्त अध्ययन के अनुसार की उम्मीद है। संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय युवा माध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की क्रय शक्ति, शहरों के बीच ब्रांड जागरूकता में वृद्धि के साथ, भारतीय उपभोक्ताओं के द्वारा खर्च चार बार यूएस $ 4.2 खरब के लिए 2017 तक बढ़ने का अनुमान है। लक्जरी फैशन, ऑटोमोबाइल और ठीक भोजन सहित श्रेणियों में अभूतपूर्व वृद्धि होने का अनुमान है। ऐसे उच्च विकास क्षमता में उपभोक्ता खर्च अलग विपणन और रणनीति पहल में भारी ब्याज को आकर्षित करती है।
इन दिनों विभिन्न टेलीविजन चैनलों पर ऐसे-ऐसे विज्ञापन दिखाए जा रहे हैं, जिनमें शालीनता की सारी सीमाएं लांघी जा रही हैं। इन विज्ञापनों में नारी देह को इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, मानो विज्ञापन बनवाने या बनाने वालों की दृष्टि में नारी केवल भोग्या है। अधिकांश उत्पादों का प्रचार-प्रसार नारी की अद्र्धनग्न देह के माध्यम से किया जा रहा है। चाहे अधोवस्त्र बेचना हो या साबुन, इत्र अथवा “परफ्यूम”, सीमेन्ट- इन सबके विज्ञापन में नारी देह का बड़ी बेशर्मी के साथ इस्तेमाल हो रहा है। इन विज्ञापनों से हमारी प्राचीन सभ्यता-संस्कृति की डोर तो कमजोर हो रही है, साथ ही घर में सपरिवार टी.वी. पर कोई कार्यक्रम नहीं देख सकते। चाहे आप कोई भी चैनल देखें हर पांच-दस मिनट में कोई ऐसा विज्ञापन आता है कि आदमी चैनल बदलने को मजबूर हो जाता है। कई बार तो लगातार दो-तीन चैनलों को बदलना पड़ता है, वहां भी वही नारी देह की फूहड़ता मिलती है।
“अश्लील विज्ञापन हमारे मन-मस्तिष्क पर कुप्रभाव डालते हैं। विशेष रूप से युवा वर्ग पर। किशोरावस्था में ही बालकों में लैंगिक ज्ञान प्राप्त करने की होड़ देखी जा रही है, यह ठीक नहीं है। वहीं दूसरी तरफ पुरुषों में एक से अधिक सहचर रखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। युवा अपने साथी/ पत्नी को अमुक मॉडल की भांति देखना पसन्द करते हैं। विज्ञापन में एक पुरुष को कई महिलाओं से घिरा हुआ देखकर युवा आकर्षित होते हैं तथा स्वयं को भी ऐसी अवस्था में देखने की कल्पना करते हैं। परिणामस्वरूप युवामन काम अथवा भोग की ओर आकर्षित होता है। निराश दिमाग फिर बलात्कार जैसे घिनौने अपराध करने की ओर अग्रसर होता है।”
यूं तो हमारी न्यायिक प्रणाली में महिलाओं के अश्लील प्रदर्शन पर रोक लगाने के लिए नियम व कानून हैं। सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता श्रीमती ज्योतिका कालरा कहती हैं, “महिलाओं के लिए अशिष्ट प्रतिनिधित्व (निषेध) कानून, 1986 है, जो नारी देह के गलत इस्तेमाल की मनाही करता है। इसी प्रकार हमारे देश में धारा 292, 293 तथा 294 के अन्तर्गत अश्लीलता फैलाना भी अपराध माना गया है।”
ऐसा नहीं है कि हर विज्ञापन अश्लीलता या अविश्वसनीय होता है, कुछ विज्ञापन दिल छू लेते है उन का सन्देश पूरे जनमानस पर अनकूल असर डालता है, पर ऐसे विज्ञापन बहुत कम मात्र में देखने को मिलते है।
आज जरूरत है हम को एक सख्त और कारगर कानून की जो सिर्फ किताबो से निकल के धरातल पर नज़र आएI अश्लीलता से भरा या अविश्वसनीय विज्ञापन को अपराध घोषित किया जायेI हम सब को भी जागरूक होना पड़ेगा जो विज्ञापन अश्लीलता से भरा या अविश्वसनीय हो तुरंत उस का विरोध जातेए या सरकार को अवगत करवाये।
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अश्लील और अविश्वसनीय विज्ञापन दिखाते हो
नारी की अधृनग्न देह के माध्यम से बहुत पैसा बनाते हो
अपने ज़मीर, सभ्यता-संस्कृति मर्यादा सब भूल जाते हो
युवा वर्ग के मन-मस्तिष्क पर कुप्रभाव डलवाते हो
विज्ञापन कम्पनियों और विज्ञापन करवाने वाली कम्पनियों सोचो ज़रा
अपनी मानसिकता बदलो, आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचो ज़रावार्ना कानून तुम सब को सबक सीखा देगा
कड़ी सजा दिलवाएगा या जेल पहुंचादेगा
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संजीव कुमार बर्मन
हिन्दी कवि, गीतकार
प्रकाशित कृतियां – :
प्रथम काव्य संग्रह ‘सफर में फूल चुने मैंने’ अनुराधा प्रकाशन, दिल्ली से २०१४ में प्रकाशित हो चुका है , सांझा काव्य संग्रह ‘काव्य सुगंध’ अनुराधा प्रकाशन, दिल्ली से २०१५ में प्रकाशित हो चुका है
पत्र पत्रिकाएं – :
राम लाल आनंद कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय की पत्रिकाएं , समाचार पत्र दैनिक प्रभात , उत्कर्ष मेल – हिन्दी पत्र पाक्षिक, अनुराधा प्रकाशन, दिल्ली में प्रकाशित , श्री खाटू श्याम शरणम हिन्दी पत्रिका मासिक, अनुराधा प्रकाशन, दिल्ली में प्रकाशित l
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