{आशा पाण्डे (ओझा)**}
किसी भी भाषा समाज व संस्कृति का ज्ञान उसके साहित्य से होता है। साहित्य व साहित्यकार भाषा, संस्कृति व समाज को आगे बढाते हैं। राष्ट्रभाषा के गौरव को समृद्ध करते है, पहचान दिलाते है हालांकि राष्ट्रभाषा को राष्ट्रभाषा घोषित किये जाने के पीछे उस भाषा का साहित्य नही बल्कि यह देखा जाता है कि उस भाषा को कितने विषाल स्तर पर जन मानस द्वारा बोला, लिखा व समझा जा रहा है परन्तु उस भाषा को विकसित व लोकप्रिय बनाने में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विस्तृत अर्थ में अगर हिन्दी का अर्थ देखे तो इस भाषा की पांचो उपभाषाएं अर्थात सहायक भाषाओं को भी सम्मिलित माना जाता है व इन सह भाषाओं के अन्तर्गत आने वाली 17 बोलियों को भी। इस प्रकार देखा जाये तो हिन्दी के विकास में इन सहायक भाषाओं का व बोलियों का भी भरपूर योगदान है। ठीक इसी प्रकार साहित्यकारो का भी हिन्दी भाषा को विकसित व समृद्ध बनाने में विषेष योगदान है। साहित्यकारो ने राष्ट्रभाषा में विपुल साहित्य रचकर आम लोगो की व गैर हिन्दी भाषी लोगो की रूचि को इसमें बढाया व इसे रोचक व रसयुक्त बना दिया। हिन्दी में रचे गये उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता संग्रह, छंद, दोहा, सोरठा, छप्पय, आलेख, शोध पत्र, निबन्ध यहां तक विदेषी भाषाओं के समग्र साहित्य के अनुवाद ने भी राष्ट्रभाषा को जीवन्त बनाया व इसकी जमीन व आसमान को विस्तार दिया। अमीर खुसरो, रासो काव्य, कबीर सूर तुलसी से आधुनिक कविता के प्रारम्भ तक आते आते हिन्दी भाषा एक व्यापक रूप धारण कर लेती है। हालांकि हिन्दी का यह रूप अनेका अनेक उतार चढाव के बावजूद तैयार होता है परन्तु आजादी की लडाई से लेकर आज तक साहित्यकारों, व पत्र पत्रिकाओं ने हिन्दी के विकास में निरन्तर अपना योगदान दिया है।
देश से इतर विदेशों में हिन्दी साहित्य के विकास में लगे इन साहित्यकारो की संख्या में उत्तरोतर वृद्धि हो रही हैं। जहां एक ओर भारत में रह रही नई युवा पीढी अंग्रेजो के मोह में अंधी होकर अपनी मातृ भाषा को ही गंवार कहती व गलाजम की दृष्टि से देखती है अंग्रेज बन जाने की होड में यह पीढी न अपने संस्कारो का महत्व जान पाती है ना अपने भाषा की महानता जो कि विष्व में सबसे अधिक लोगो द्वारा बोली जाने वाली चंद भाषाओं में से है। दूसरी तरफ दूर देषो में बसे प्रवासी अपनी मातृ भाषा के प्रति आसक्त व अनुरक्त रहते है, वहां के दूतावास के अधिकारी प्राध्यापको व साहित्कारो के अतिरिक्त आम प्रवासी भी हिन्दी भाषा की हर गोष्ठी, पाठ, कवि सम्मेलन, सामुहिक मिलन समारोह में अपनी शत प्रतिषत भागीदारी निभाते हैं वहां के साहित्यकार वहां केवल साहित्य सृजन करके ही अपनी भाषा के प्रति अपने काव्यों की इतिश्री नही कर लेते बल्कि वे अनेका अनेक पत्र पत्रिकाओं का संपादन भी कर रहे है, उन्हौने हिन्दी भाषा के उत्थान व विकास के लिये कई संस्थायें व संघ भी बनाये है, आये दिन संगोष्ठी व सम्मेलन कर रहे है अन्र्तजाल के इस युग में अनेका अनेक ई पत्रिकाओं का भी संचालन कर रहै है एफ एम रेडियो स्टेषन की स्थापनायें कर रहे है उद्घोषक अपनी सेवाये निशुल्क तक देते है अपनी गाडी का ईधन जला कर अभी हाल ही में आस्ट्रेलिया में रह रही मंजु सिंह ढाका ने दूरभाष पर हुए वार्तालाप में बताया कि वो हफ्ते में तीन चार बार एफ एम स्टेषन पर अपनी सेवायें मुफ्त देती हैं। जो प्रवासी राजस्थानी वरूण पुरोहित द्वारा चलाया जा रहा है व उसके लिये 30 किमी आना व तीस जाना यानी 60 किमी गाडी चलाकर जाने का वह पेट्रोल भी स्वयं की जेब का वहन करती हैं। हिन्दी के प्रति अपने मोह व उत्तरदायित्व को निभाने वाले ऐसे भी प्रवासी भारतीय बहुत है। विदेषो में रहने वाले साहित्यकार जो वहां लम्बे अर्से से बसे हुए है व हिन्दी के प्रति इमानदारी व षिद्धत से अपना उत्तरदायित्व निभा रहे है उससे उनका महत्व और अधिक बढ जाता हैं वनिस्पत भारत में रह रहे साहित्यकारो के क्योकिं जो भाषा उनके बोल चाल व्यवहार कार्य की दिन चर्या नही रह जाती उसके प्रति स्नेह के चलते वे लोग उस भाषा के लिये अलग से समय निकाल कर रचनाकर्म कर रहे है यह केवल बडी बात ही नही है अपितु एक उदाहरण बनता है स्वदेष में रह कर अपनी भाषा को उपेक्षित दृष्टि से देखने वाले लोगो के प्रति। क्योंकि जब एक साहित्यकार रचना करता है तो उसकी रचनाओं में देष काल की समस्त परिस्थितियों का विकास मिलता है। जो भारतीय भाषा में अन्य देषो के भोगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों का हास या विकास रचा जाता है तो इन देषो के प्रबुद्ध लोगो का ध्यान इन रचनाओं की और बरबस खिंचा चला आता है जिसमें उस देष की समृद्धि या विनाष रचा गया है उनकी रूचि फिर इस भाषा की और पनपती हैं। जिस किसी भी भाषा का साहित्य समृद्ध है उस भाषा को सीखने जानने वालो की संख्या में बरबस वृद्धि होती है, अंग्रेजी, रसियन, फ्रेंच या जापानी साहित्य का जब हिन्दी में अनुवाद होता है तब भी उन भाषा के विद्धानों की निगाहे इस भाषा की तरफ उठती है। प्रवासियो के लिये उस देष की भाषा के साहित्य का हिन्दी में अनुवाद करना सहज व सरल कार्य है क्योंकि हिन्दी भाषी होते हुए हिन्दी पर वो पकड होती है बरसो बरस विदेष में रहते हुए उन विदेषी भाषाओं पर भी अपनी गहरी पकड बना लेते हैं।और उस देष के साहित्य व साहित्य रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद करते है इस प्रकार हिन्दी का अन्तराष्ट्रीय विकास होता है।
बीसवी सदी के पश्चात् भारत छोड कर विदेशों में बसने वाले भारतीयों की संख्या में तेजी से वृद्वि हुई जहां कुछ लोग पहले से लेखन कार्यो में लगे हुए थे तो कुछ लोग वहा जाने के पश्चात जन्मभूमि से व अपनो से दूर होने का अहसास जगने से भी इस सृजनात्मक कार्य में समय व्यतीत करने भर के उद्देष्य भर से जुडे जो आगे चलकर रगो में जडे जमाता गया। धीरे धीरे उनकी लेखनी परिष्कृत व परिमांर्जित होती गई। कई स्वतः सुखाय में लिखते हुए मजबूत लेखन के चलते पत्र पत्रिकाओं में छापने लगें तो कई आगे बढकर निजी पुस्तके भी छपवा चुके यह लोग हिन्दी को लोकप्रिय बनाने में जाने अनजाने महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है, इसके चलते उनकी नई पीढी भी जो विदेषो मे पेदा हुई वो भी अपनी मातृ भाषा को अधिक करीब से जान पाते है व अपनी भाषा की जडो से जुडे रहते है। अपनी अग्रज पीढीयों से मिल रहे संस्कारो का खुद की रगो में समावेष करते है वे हिन्दी से नफरत नही करते बल्कि उसमें अपनत्व ढूढ़ते रहते है मिठास पाते है।
उषा प्रियंवदा व सोम वीरा जी जैसे प्रवासीयो का हिन्दी साहित्य को अतुलनीय योगदान मिला है। प्रवासीय भारतीयो द्वारा हिन्दी में विपुल साहित्य उपलब्ध हैं और निरन्तर तैयार हो रहा है। विश्व के एक सौ से भी अधिक विश्वविद्यालयो में हिन्दी अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था है। प्रवासी भारतीय बच्चे भी विषय चयन में हिन्दी लेने से कतराते नही बल्कि गर्व व सम्मान महसूसते हुए इसमें दाखिला लेते है।
इधर प्रवासियों द्वारा प्रकाशित व संचालित की जा रही दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्ध वार्षिक, वार्षिक साहित्य पत्र पत्रिकाओं में भी उत्तरोत्तर वृद्धि हुई हैं।
हिन्दी में साहित्य आलेखो के साथ-साथ तकनीकी व वैज्ञानिक लेखो का भी प्रवासियो द्वारा रख व छपा जाना हिन्दी भाषा को कुछ ओर सोपान ऊपर चढाना हैं।
बीसवी सदी के अन्त तक लगभग 150 प्रवासी भारतीय विभिन्न विधाओं में साहित्य रचना कर रहे थे जो कि 21वीं सदी के प्रारम्भ होने तक इनमें से 50 से अधिक साहित्यकार भारत में अपनी पुस्तके भी प्रकाशित करवा चुके थे। जब से वे पत्र पत्रिकाओं का ब्लाग्स का चलन हुआ तब से ऐसे साहित्यकारो को खुला मंच मिल गया व विश्वव्यापी पाठको तक पंहुचने का सीधा, सुगम सस्ता रास्ता भी मिल गया।
ब्रिटेन, लन्दन, अमेरीका, यु.एस.ए., कनेडा, सहित खाडी देशों में से भी कही प्रवासी साहित्यकार तेजी से उभर कर सामने आये जो साहित्य की हर विघा में उत्कृष्ट रचनायें दे रहे है। हिन्दी भारत में ही नही बल्कि पुरे विश्व में एक विशाल जनमानस की भाषा हैं। प्रवासी भारतीयों का हिन्दी साहित्य इसलिये भी चोकाता है कि जहां उन पर हिन्दी भाषा लेखन व बोल चाल को लेकर कोई दबाव नही , पाबन्दी नही फिर भी इस भाषा को सहेजने, संवारने में दिया जा रहा उनका यह योगदान अनुकरणीय हैं।यह लोग तन मन धन से निज भाषा के प्रति समर्पित है। यह भी उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार से भारत में हिन्दी पत्रकारिता का विभिन्न चरणो में विकास हुआ ठीक उसी प्रकार विदेषो में भी प्रवासी भारतीयो द्वारा उसके विकास की दिषा में महत्तवपूर्ण कार्य हुआ है अधिकांशतः प्रवासी अपने संस्कार व भाषा से भावनात्मक रूप से जुडे हुए हैं । इन्हौने समय समय पर हिन्दी पत्राकारिता के उन्नयन के लिये अनेक पत्र पत्रिकाओ का प्रकाषन प्रारम्भ किया और उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि हुई।
न्युजिलेंड से भारत दर्शन, कनाडा से सरस्वती पत्र, हेल्म, यू.के. से हिन्दी नेस्ट, क्षितिज, सयुक्त अरब अमीरात से अभिव्यक्ति, अनुभुति, अमेरीका से अन्यथा, हिन्दी परिचय पत्रिका, गर्भ नाल पत्रिका, पलायन यु.एस.ए. से त्रैमासिक पत्रिका कर्मभूमि हिन्दी जगत हिन्दी बाल जगत, एवं विज्ञान प्रकाश, विश्व हिन्दी न्यास समिति द्वारा प्रकाषित पत्रिकाऐं है ई विश्वा, अन्तराष्ट्रीय हिन्दी समिति सेलम की त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका-प्रवासी टुडे, अक्षरम नामक अन्तराष्ट्रीय साहित्यक सांस्कृतिक संस्था की पत्रिका पुरवाई आदी कई पत्र पत्रिकाएं वर्षो से प्रकाषित हो रही है। इन पत्र पत्रिकाओं में कविता, नाटक, कहानी, समाचार, भेट वार्ता, गजल, संस्मरण, मुक्तक, निबन्ध, व्यंग रिर्पोताज आदी सभी विधाओ का संकलन होता हैं।
भारत में चल रहे सभी टी.वी. चैनलो का प्रसारण भी भारतीय प्रवासियो की मांग पर विदेषो में भी किया जाता है जिससे हिन्दी भाषा का एक नया स्वरूप विकसित हो रहा है। हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार ने विदेषो पर अपना प्रभाव छोडा है, रामायण धारावहिक का प्रभाव जापान देष पर ऐसा हुआ की जापान देष ने रामायण धारावाहिक को अपने यहां दिखाने के लिये पुरी स्क्रिप्ट जापानी कोष के साथ प्रकाषित करवाई। इस तरह प्रवासीयो की मांग पर हिन्दी का वर्चस्व बढा।
पिछले एक दषक में युनाईटेड किंडम में हिन्दी साहित्य के सृजन का एक तरह से विस्फोट हुआ। साहित्य की सभी विधाओ में प्रवासी साहित्य रचना इगलेण्ड में हुई हैं। इसी काल में यहां लंदन में विष्व हिन्दी सम्मेलन युरोपीय हिन्दी सम्मेलनो का भी आयोजन हुआ। एक लम्बे अरसे से यू.के. में हिन्दी की बहुत सारी संस्थाए रचनात्मक कार्यो में लगी हुई हैं। यू.के. हिन्दी समिति, कथा (यू.के.), बर्मीघम में गीतांजली, बहुभाषीय समुदाय एवं कृति (यू.के.) ओर मेन चेस्टर में हिन्दी भाषा समिति, यार्क में भारतीय भाषा संगम एवं नाटिंघम गीतांजली ये संस्थाऐ देशभर में हिन्दी रचनाधर्मिता एवं विकास संबंधित कार्य करती है।
- हिन्दी की परीक्षाएँ आयोजित करती है।
- पूरवाई नाम की पत्रिका प्रकाशित करती हैं।
- अन्तराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय सम्मानो का आयोजन करती है।
- अन्तराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय कवि सम्मेलन देश के भिन्न-भिन्न शहरो में करवाये जाते है।
- कहानी कार्यशाला, कथा गोष्ठियां एवं काव्य गोष्ठियां भी निरन्तर चलती रहती हैं।
यहां के कही साहित्यकारो को भारत भर में अनेका अनेक पुरूस्कारो से सम्मानित भी किया जा चुका हैं। ब्रिटेन के उच्चायोग की भूमिका भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सराहनीय रही हैं। ब्रिटेन प्रमुख प्रवासी साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा, गोतम सचदेव, ज्रकिया जुबेरी, तितिक्षा शाह, अचला शर्मा, तोशी अमृता, दिव्या माथुर, प्रतिभा डावर, प्राण शर्मा, भारतेन्दु विमल, महावीर शर्मा, डा महेन्द्र वर्मा, उषा राजे सक्सेना, उषा वर्मा, कादम्बरी मेहरा, कीर्ति चैधरी, डा कृष्ण कुमार, कैलाश बुधवर, गोविन्द शर्मा, डा पदमेश गुप्त, मोहन राणा, रमेश पटेल, सहित कई अन्य नाम है जो हिन्दी भाषा में साहित्य रचनाकारो में अग्रणी है।
उसी तरह अमेरीका के प्रवासी रचानाकरो द्वारा भी हिन्दी साहित्य को एक नया स्वरूप प्रदान किया जा रहा है। उषा प्रियवंदा, सोमा वीरा, सुनिता जैन के नाम प्रवासी साहित्य के जगत में ही नही बल्कि अखिल हिन्दी साहित्य में भी एक विशिष्ट पहचान रखते हैं। इन्होने अपनी उत्कृष्ट लेखनी से अमेरीकी प्रवासी हिन्दी साहित्य की अवधारण शूरू की। इन्दूकान्त शुक्त, उमेष अग्निहोत्री, अनिल प्रभा कुमार, कमला दत्त, वेद प्रकाश बटुक, मधु माहेष्वरी, मिश्रीलाल जैन, सुधा ओम ढींगरा, अषोक कुमार सिन्हा, आर्यभुषण, डा वेद प्रकाश सिंह (अरूण), सुषमा बेदी, डा भू देव शर्मा, रेणु राज वंषी गुप्ता, विषाका ठाकुर, स्वदेष राणा, उषादेवी कोलटुकर सहित कम से कम 100 से अधिक रचनाकारो ने पाठक एवं लेखक दोनो समुदायो का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया।
वही कनाडा के प्रवासी हिन्दी लेखक भी कही कम नही है। प्रोफेसर अश्वनि गांधी, सुमन कुमार घई, सुरेष कुमार गोयल, डा शेलजा सक्सेना, इनका भी हिन्दी साहित्य को अविस्मरणीय योगदान है। खाडी देशों के प्रवासी साहित्यकार अशोक कुमार श्रीवास्तव, उमेश शर्मा, विधाभूषण घर, कृष्ण बिहारी, दीपक जोषी, रामकृष्ण द्विवेदी आदी साहित्कार हिन्दी साहित्य को अपना योगदान दे रहे है। इस देषो में इत्तर भी प्रवासी साहित्यकार हिन्दी के प्रचार-प्रसार व हिन्दी साहित्य सृजन में लगे हुए हैं। कही दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, वार्षिक पत्र पत्रिकाओं को निकालने के साथ ही वेब- पत्रिकाओ का भी संचालन कर रहे है। हिन्दी चेतना (पेपर) (सुश्री सुधा ओम ढींगरा जी), रचानाकोष (अनिल जनविजय), गर्मनाल (पेपऱवेब) (श्री दीपक मशाल जी का सहयोग) छः साल से अनुभुति वेब (सुश्री पूर्णीमा बर्मन) दस साल से, ई-कविता समुह (वेब) (श्री अनुप भार्गव जी) दस साल से विश्व हिन्दी संस्थान कनाडा, श्री शरण घई, सुश्री कुसुम ठाकुर के ब्लोग्स, अनिता कपुर, प्रेमलता शर्मा, अनिता शर्मा जैसे कई और भी साहित्यकार विदेषो में बेठे हुए हिन्दी साहित्य की सेवा में प्रण-प्राण से जुटे हुए है और ये सभी साधु वाद के पात्र है जो जमीन से दूर रहकर भी जमीन और मातृ भाषा के प्रति अपने कर्तव्यो का निर्वहन कर रहे हैं।