राहुल का वार, संघ से तकरार, और वैश्विक दबावों में मोदी सरकार  

– ओंकारेश्वर पांडेय – 
एक तरफ राहुल गांधी का वार, दूसरी तरफ संघ से तकरार। इधर ट्रंप का टैरिफ वार, तो उधर चीन फायदा उठाने पर सवार। उम्र हो गई 75 पार और समस्याओं का बढ़ता अंबार। यह पंक्ति कोई कविता नहीं, बल्कि 2025 के भारत की राजनीतिक और कूटनीतिक सच्चाई बन चुकी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 75वें जन्मदिन के ठीक अगले दिन, राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर “केंद्रीकृत वोट चोरी ऑपरेशन” का आरोप लगाकर लोकतंत्र की नींव को चुनौती दी। लेकिन यह हमला सिर्फ चुनाव आयोग तक सीमित नहीं था—यह उस सत्ता संरचना पर था जो अब हर मोर्चे पर दबाव में है।
अगला हमला राष्ट्रपति ट्रंप ने किया।‌
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शुक्रवार को एक बड़ा ऐलान करते हुए एच-1बी वीजा (H-1B Visa) के लिए नई शर्तें लागू कर दी हैं. अब इस वीजा को हासिल करने के लिए कंपनियों को हर साल 1 लाख डॉलर (करीब 83 लाख रुपये) की फीस चुकानी होगी. इस फैसले से लाखों विदेशी पेशेवरों पर असर पड़ सकता है, खासकर भारतीय आईटी और टेक्नोलॉजी सेक्टर पर, जो अमेरिका के एच-1बी वीजा पर सबसे ज्यादा निर्भर है.
राहुल गांधी का वार: दस्तावेज़ों से लोकतंत्र की रक्षा
18 सितम्बर 2025 को राहुल गांधी ने मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार पर आरोप लगाया कि उन्होंने एक योजनाबद्ध ऑपरेशन को संरक्षण दिया, जिससे कांग्रेस के मजबूत बूथों पर वोट डिलीट किए गए। उन्होंने कर्नाटक CID की जांच का हवाला देते हुए बताया कि आयोग को 18 महीनों में 18 बार तकनीकी जानकारी मांगी गई—IP एड्रेस, OTP ट्रेल्स, डिवाइस पोर्ट्स—लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।
राहुल ने कहा कि “अगर ये डेटा दिया जाता, तो ऑपरेशन चलाने वाले तक सीधा पहुंचा जा सकता था।” उन्होंने गोदाबाई, सूर्याकांत और नागराज जैसे मामलों को उदाहरण के तौर पर रखा, और इसे “मानव रूप से असंभव” बताया।
बेंगलुरु से बिहार तक: राहुल गांधी की रणनीति का विस्तार
इस हमले की शुरुआत जुलाई 2025 में बेंगलुरु में हुई “एटम बम प्रेस कॉन्फ्रेंस” से हुई थी, जब उन्होंने महादेवपुरा क्षेत्र में एक लाख से अधिक वोटों की कथित डिलीशन का खुलासा किया। इसके बाद बिहार में 17 दिन की “वोट अधिकार यात्रा” में उन्होंने दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्गों के वोटों को योजनाबद्ध तरीके से हटाने का आरोप लगाया।
बिहार में Special Intensive Revision (SIR) को आनन फानन कराया ही यह कहकर किया गया था कि राज्य में बड़े पैमाने पर नेपाली, म्यांमारी और बांग्लादेशी घुसपैठिये भर गये हैं, उनका नाम हटाना जरुरी है।
लेकिन इसके तहत हुए मतदाता पुनरीक्षण में मतदाताओं की संख्या 7.9 करोड़ से घटकर 7.24 करोड़ मतदाता रह गयी—यानि 66 लाख वोटों की कटौती। लेकिन Election Commission of India के डिलीटेड नामों में एक भी बांग्लादेशी घुसपैठिया नहीं था।
विपक्ष ने वाजिब सवाल उठाया: “अगर वोटर को आधार के बिना डिलीट किया जा सकता है, तो घुसपैठियों को क्यों नहीं हटाया जा सकता?”
असम से लेकर दिल्ली तक भाजपा सरकार सत्ता में है। बांग्लादेशी मुद्दा भाजपा का कोर मुद्दा रहा है। ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌ इसलिए बांग्लादेशियों को भगाने के लिए सरकार ने क्या किया यह जाना जरुरी है। तो आइये देखते हैं।
विदेशी घुसपैठ: आंकड़ों की चतुराई और सच्चाई
Organiser की रिपोर्ट में कहा गया कि असम में कुल 1,65,531 लोगों को “अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिया” घोषित किया गया और 30,115 को निष्कासित किया गया। लेकिन गोर से पढिए – यह आंकड़ा 1966 से 2024 तक का संयुक्त डेटा है, जिसमें कांग्रेस सरकारों का कार्यकाल भी शामिल है। BJP सरकार के 10 वर्षों में कितने निष्कासित हुए, इसका कोई स्पष्ट विवरण नहीं दिया गया है।
आंकड़ों के मुताबिक 2024–25 में ही 2,300 से अधिक लोगों को “घुसपैठिया” घोषित किया गया, लेकिन सिर्फ 312 को ही न्यायिक प्रक्रिया के बाद निष्कासित किया गया। यह निष्कासन दर मात्र 13.5% रही।
ध्यान रहे 2,300 से अधिक लोगों को “घुसपैठिया” घोषित किया गया, लेकिन सिर्फ 312 को ही निष्कासित किया गया।
अब असम के सुपर एक्टिव मख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने मई 2025 में क्या कहा, सुनिए : “We have adopted a push-back policy for undocumented immigrants.”
ये पुश बैक पॉलिसी है, ‌‌डिटेक्ट एंड डिपोर्ट पॉलिसी नहीं। जाहिर है कि असम की बीजेपी सरकार घुसपैठियों को लेकर केवल वही कर रही है जो काम दशकों से बीएसएफ सामान्य ड्यूटी के रूप में करते हैं। ‌
लेकिन हिमंत बिस्वा सरमा सरकार के पुश बक प्लान को भी Amnesty International ने इसे “due process का violation” करार देकर झटका दे दिया है।
अब बिहार की बात करते हैं। बिहार में NDA की सरकार लगभग 20 वर्षों से है, लेकिन घुसपैठियों की पहचान और निष्कासन पर कोई ठोस आंकड़ा सार्वजनिक नहीं किया गया।
BSF के आंकड़े: सीमा पर सच्चाई
BSF के अनुसार, 2023 में 2,406, 2024 में 2,425, और 2025 में मई तक 557 बांग्लादेशी नागरिकों को भारत में घुसपैठ की कोशिश करते हुए पकड़ा गया और वापस भेजा गया। लेकिन राज्यवार आंकड़े बताते हैं कि:
– पश्चिम बंगाल में 2,688 मामले सामने आए। ‌
यानी जिस ममता बनर्जी की सरकार पर बांग्लादेशी घुसपैठियों को बढ़ावा देने के आरोप लगाये जाते हैं, उनकी सरकार ने सबसे ज्यादा बाग्लादेशी घुसपैठिये निकाले गए। ‌
मिज़ोरम में भी 1,679 और त्रिपुरा में 771 बाग्लादेशी घुसपैठिये निकाले गए। ‌लेकिन असम में सिर्फ 51 लोगों को वापस भेजा गया वह भी तीन वर्षों में।
कुलमिलाकर देखा जाय तो BJP-शासित असम में घुसपैठ की पहचान और निष्कासन सबसे कम रहा।
इस बीच Border Guard Bangladesh (BGB) ने कई बार भारत द्वारा “पुश-बैक” की कोशिशों का विरोध किया है। उदाहरण के लिए – मई 2025 में 13 लोग Zero Line पर फंसे रहे, जिन्हें न भारत ने वापस लिया, न बांग्लादेश ने स्वीकार किया।
विदेश नीति: गुटनिरपेक्षता से भ्रम की ओर
मनमोहन सरकार की विदेश नीति संतुलन पर आधारित थी। लेकिन मोदी सरकार ने QUAD, BRICS और रूस-यूक्रेन युद्ध में सक्रिय भूमिका लेकर भारत की पारंपरिक स्थिति को बदल दिया।
– QUAD में शामिल होकर चीन को नाराज़ किया
– BRICS में रहते हुए रूस से तेल खरीदकर पश्चिमी देशों से टकराव बढ़ाया
– अमेरिका से रिश्ते बिगड़े, जब डोनाल्ड ट्रंप ने कहा:
 “India and Pakistan were on the brink of war. I stopped it.”
– ट्रंप सरकार ने अवैध प्रवासी भारतीयों को हथकडिय़ों और बेड़ियों में भारत भेजा।
– पहलगाम आतंकी हमले के बाद मोदी सरकार द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ छेड़े गये आपरेशन सिंदूर को अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने व्यापार रोकने की धमकी देकर रुकवा दिया। और यहाँ तक कि भारत को शर्मसार करते हुए यह बयान उन्होंने 50 से अधिक बार दोहराया।
इसके बाद अमेरिका ने भारत के टेक्सटाइल और फार्मा उत्पादों पर 25% टैरिफ लगाया। फिर रुस से तैल खरीदने के कारण 25 फीसदी का दंडात्मक टैक्स लगाया।
मजबूरन मोदी उस चीन के पास गये, जो दो महीने पहले पाकिस्तान के साथ युद्ध में हथियार, विमान और मिसाइलों के अलावा सीधे टैक्टिकल सपोर्ट भी दे रहा था। भारतीय सेना ने कहा कि हम दो मोर्चे पर लड़ रहे थे।
अमेरिका के दबाव में आये मोदी फिर बिना सोचे समझे चीन के पास सहारे के लिए गए पर चीन ने उनका फायदा उठाया। चीन ने भारत को तीन नए बॉर्डर ट्रेड पॉइंट्स खोलने पर सहमत करा लिया। जबकि भारत का चीन से व्यापार घाटा $99.2 बिलियन तक पहुँच गया है। यह एक तरह से ट्रंप और जिनपिंग के बीच सैंडविच बनने जैसा है। ‌
आर्थिक दबाव: बढ़ता कर्ज और गिरती FDI
इधर देश पर विदेशी कर्ज का दबाव अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है।  2014 में भारत का विदेशी कर्ज लगभग ₹55 लाख करोड़ था। 2025 में यह बढ़कर ₹220 लाख करोड़ से अधिक हो चुका है। विदेशी कर्ज का GDP अनुपात 19.1% तक पहुँच गया है।
कर्ज कम लेना पड़ता, अगर हमारा विदेशी निवेश अपनी उसी रफ्तार से बढ़ता जो डॉ मनमोहन सिंह के सरकार में था। दुर्भाग्य से FDI के मोर्चे पर भारी गिरावट आई है:
– 2014: $45 बिलियन
– 2020: $64.36 बिलियन
– 2023: $28.08 बिलियन
– 2025: $17 बिलियन से नीचे
यह गिरावट भारत की नीति स्थिरता पर निवेशकों के भरोसे को दर्शाती है। नकली डंका बजाने से असली मुद्रा नहीं आती। FDI के मोर्चे पर आई गिरावट ही हमारे देश में नौकरियां पैदा करने में सबसे बड़ी बाधा है।
संघ की समझ और सत्ता की चुप्पी
RSS अब भी हालात को नहीं समझ सका है। मुरली मनोहर जोशी की 70 स्लाइड्स की प्रस्तुति में भारत की आर्थिक गिरावट पर चिंता तो जताई गई, ‌पर बहुत से मुद्दों से वे अनभिज्ञ लगते हैं। मोदी ने RSS प्रमुख मोहन भागवत को 75वें जन्मदिन पर अख़बार में लेख लिखकर बधाई दी, लेकिन भागवत ने कोई सार्वजनिक प्रतिक्रिया नहीं दी। यह चुप्पी अब सिर्फ व्यक्तिगत नहीं, वैचारिक भी है। मोदी खेमा इस बात से ज्यादा दुःखी है कि मुरली मनोहर जोशी के प्रेजेंटेशन में वामपंथी नोबल पुरस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन का हवाला क्यों दिया गया।
गिला विपक्ष से नहीं, मुझे तो संघ ने मारा
2025 का भारत अब सिर्फ चुनावी लड़ाई नहीं लड़ रहा—यह लोकतंत्र, अर्थव्यवस्था और कूटनीति की त्रिकोणीय लड़ाई है। एक तरफ राहुल गांधी हर बार एक नई गाँठ बाँधते हैं, और दूसरी तरफ सरकार हर बार एक नई गलती करती है।
मोदी को अपनी आर्थिक, राजनीतिक, रणनीतिक कूटनीतिक चूकों का कोई अहसास नहीं है। गोदी मीडिया उनकी हर हार को जीत, हर नुकसान को फायदा, और हर तमाचे को मास्टर स्ट्रोक बताकर अपना उल्लू सीधा कर रहा है। ‌‌‌‌अंधभक्तों ने उनको भी अ़धा बना दिया है, और उधर ही ले जा रहे हैं, जहाँ गहरी खाई है। मोदी उस खाई में गिरे, तो भी ये गोदी मीडिया मास्टर स्ट्रोक का ब्रेकिंग चलाएगा, ये तय है।
मोदी सरकार को अब कोई गिला विपक्ष से रखने की वजह नहीं है। विपक्ष तो सवाल पूछ रहा है, दस्तावेज़ ला रहा है, जनभावना को स्वर दे रहा है। गिला उन सलाहकारों से है जिसने नीति को भ्रम बना दिया, अर्थव्यवस्था को कर्ज में डुबो दिया, और विदेश नीति को अस्थिरता के गहरे भंवर में फंसा दिया।
गिला उस संघ से है जिसने चुप्पी को नीति बना लिया। और सरकार गम में गा रही है:
“कुछ तो ट्रंप की दोस्ती ने मारा,
कुछ चीन के साथ बेबसी ने मारा,
गिला राहुल गाँधी से नहीं है,
मुझको तो मेरे अहं ने मारा।”


संक्षिप्त लेखक परिचय

लेखक ओंकारेश्वर पांडेय पत्रकारिता, कंटेंट रणनीति व मीडिया प्रबंधन में 35+ वर्षों के अनुभवी वरिष्ठ संपादक एवं रणनीतिकार हैं। उन्होंने विभिन्न हिंदी अंग्रेजी भाषाओं के मीडिया समूहों में संपादक के तौर पर कम से कम 13 बार काम किया है। वे सहारा ग्रुप के सीनियर ग्रुप एडिटर, ‘द संडे इंडियन’ के मैनेजिंग एडिटर, एएनआई के एडिटर और सहारा टीवी के उद्घाटन एंकर जैसे वरिष्ठ पदों पर कार्य कर चुके हैं। 11 पुस्तकों के रचयिता ओंकारेश्वर आज ऑब्ज़र्वर ग्लोबल मीडिया ग्रुप, नई दिल्ली के CEO एवं एडिटर-इन-चीफ हैं। वे मानद प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस, सीआईडीसी और एक्जीक्यूटिव फेलो, वोक्सेन यूनिवर्सिटी तथा वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम के सदस्य भी हैं।  ईमेल –  editoronkar@gmail.com

WhatsApp – 9311240119


अस्वीकरण: इस फीचर में लेखक द्वारा व्यक्त किए गए विचार पूरी तरह से उनके अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे आईएनवीसी के विचारों को प्रतिबिंबित करें


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