– कल्पना पांडे –
इतने सालों बाद हमे शर्म से ये स्वीकार कर लेना चाहिए कि धार्मिक आडंबरों, पाखंड और अंधविश्वास फैलाने वाले और दकियानूसी सोच के सभी धर्मों के धर्मगुरुओं के बढ़ते प्रभाव और वोटों के लिए उन्हे मिलते राजनीतिक संरक्षण के इस दौर में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की नेहरूवादी समझ और भारतीय संदर्भ में इसके वास्तविक उपयोग और कार्यान्वयन के बीच अब गहरी खाई तैयार हो चुकी है। इसीलिए नेहरू आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे। आज देश में जब तमाम जगहों पर अंधविश्वास फैलाने वाले धर्मगुरुओं नेताओं की बाढ़ आई हुई है ऐसे में तकरीबन सत्तर साल पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू का ये कहना कि, ‘राजनीति मुझे अर्थशास्त्र की ओर ले गई और उसने मुझे अनिवार्य रूप से विज्ञान और अपनी सभी समस्याओं और जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की ओर प्रेरित किया. सिर्फ विज्ञान ही भूख और गरीबी की समस्याओं का समाधान कर सकता है. विज्ञान ही वह इकलौता जरिया है जो भूख और गरीबी को मिटा सकता है.’ बेहद दूरदर्शिता से भरा और दृष्टिगामी हो जाता है।
जवाहरलाल नेहरू की वैज्ञानिक सोच की अवधारणा एक तर्कसंगत दृष्टिकोण है, जिसके बारे में उनका मानना था कि यह किसी की सोच और कार्यों का अभिन्न अंग होना चाहिए। विज्ञान और धर्म के बीच उनके मन में कोई अंतर्विरोध नहीं था। उनका मानना था विज्ञान धर्म जैसा नहीं है, जो अंतर्ज्ञान और भावना पर निर्भर करता है। नेहरू का मानना था कि विज्ञान लोगों को पारंपरिक मान्यताओं को एक नए नज़रिए से देखने में मदद कर सकता है, और धर्म असहिष्णुता, अंधविश्वास और तर्कहीनता को जन्म दे सकता है। नेहरू के अनुसार वैज्ञानिक सोच जीवन जीने का एक तरीका है, सोचने की एक प्रक्रिया है, और काम करने का एक तरीका है। इसमें नए सबूतों के लिए खुला रहना, निष्कर्ष बदलना और देखे गए तथ्यों पर भरोसा करना शामिल है। नेहरू का मानना था कि वैज्ञानिक सोच के प्रसार से धर्म का दायरा कम हो जाएगा। नेहरू ने वैज्ञानिक सोच के महत्व पर जोर दिया और माना कि इसे व्यक्तिगत, संस्थागत, सामाजिक और राजनीतिक स्तरों पर बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले ही नेहरू ने सन् 1938 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की एक बैठक में कहा था: ‘विज्ञान जीवन की वास्तविक प्रकृति है. केवल विज्ञान की ही सहायता से भूख, गरीबी, कुतर्क और निरक्षरता, अंधविश्वास एवं खतरनाक रीति-रिवाजों और दकियानूसी परम्पराओं, बर्बाद हो रहे हमारे विशाल संसाधनों, भूखों और सम्पन्न विरासत वाले लोगों की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है. आज की स्थिति से अधिक सम्पन्न भविष्य उन लोगों का होगा, जो विज्ञान के साथ अपने संबंध को मजबूत करेंगे.’
वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नेहरु ने सन् 1946 में अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था. वैज्ञानिक दृष्टिकोण किसी स्थिति के मूल कारणों के वस्तुगत विश्लेषण करने पर ज़ोर देती है. वैज्ञानिक कार्यपद्धति के प्रमुख या अनिवार्य गुणधर्म जिज्ञासा, अवलोकन, प्रयोग, गुणात्मक व मात्रात्मक विवेचन, गणितीय प्रतिरूपण और पूर्वानुमान हैं. नेहरू के मुताबिक ऐसा नहीं है, ये वैज्ञानिक कार्यपद्धति हमारे जीवन के सभी कार्यों पर लागू हो सकती है क्योंकि इसकी उत्पत्ति हम सबकी जिज्ञासा से होती है. इसलिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह वैज्ञानिक हो अथवा न हो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला हो सकता है. दरअसल, वैज्ञानिक दृष्टिकोण दैनिक जीवन की प्रत्येक घटना के बारे में हमारी सामान्य समझ विकसित करती है. नेहरू जी के अनुसार इस प्रवृत्ति को जीवन में अपनाकर अंधविश्वासों एवं पूर्वाग्रहों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है.
नेहरू अपनी पुस्तक 1946 की पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया के पृष्ठ 512 पर लिखते हैं “आज विज्ञान के अनुप्रयोग सभी देशों और लोगों के लिए अपरिहार्य और अटल हैं। लेकिन इसके अनुप्रयोग से कहीं ज़्यादा कुछ और भी ज़रूरी है। यह है वैज्ञानिक दृष्टिकोण, विज्ञान का साहसिक और फिर भी आलोचनात्मक स्वभाव, सत्य और नए ज्ञान की खोज, बिना परीक्षण और परीक्षण के किसी भी चीज़ को स्वीकार करने से इनकार करना, नए सबूतों के सामने पिछले निष्कर्षों को बदलने की क्षमता, पहले से तय सिद्धांत पर नहीं बल्कि देखे गए तथ्य पर भरोसा करना, मन का कठोर अनुशासन – यह सब सिर्फ़ विज्ञान के अनुप्रयोग के लिए ही नहीं बल्कि जीवन और उसकी कई समस्याओं के समाधान के लिए भी ज़रूरी है…” वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नेहरू विज्ञान को लागू करने से भी ज्यादा महत्व देते हैं। जाहीर है इस तरह के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बिना न समाज का विकास संभव है नया विज्ञान का। नेहरू ने भारत की एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में को कल्पना की और जिसके लिए प्रयत्न किया वो आधुनिक भारत उनके हिसाब से ऐसा होना था जहाँ लोग, पूर्व-धारणाओं और धार्मिक हठधर्मिता से मुक्त होकर, अपने आस-पास की दुनिया को समझने, अपने जीवन को बेहतर बनाने और सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग करेंगे। देश और उसके लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने में विज्ञान और उसके अनुप्रयोगों के महत्व पर ज़ोर देते हुए, नेहरू ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी को सोच और तर्क के एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण, ‘जीवन का एक तरीका’ और ‘स्वतंत्र व्यक्ति के स्वभाव’ के रूप में परिभाषित किया।
इसलिए, नेहरू ने न केवल राष्ट्र के विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी को आगे बढ़ाने के भौतिक और व्यावहारिक लाभों को पहचाना, बल्कि उन्होंने जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण के रूप में विज्ञान (वैज्ञानिक पद्धति, दृष्टिकोण और स्वभाव सहित) की भी दृढ़ता से पैरवी की और उसके समर्थन तर्क दिए। भौतिक उपलब्धियों की तरह की विज्ञान की संस्कृति में नेहरू की गहरी रुचि थी। इसलिए वे बार-बार “वैज्ञानिक स्वभाव” और “विज्ञान की भावना” शब्दों का इस्तेमाल करते थे। विज्ञान की उनकी समझ एक दार्शनिकता लिए हुए थी। इसने उन्हें अपने सामाजिक आदर्शों और राजनीतिक विश्वासों को तर्कसंगतता पर आधारित, उनके धर्मनिरपेक्ष विश्वदृष्टिकोण और वैज्ञानिक समाजवाद की अवधारणाओं को विकसित करने और दुनिया के आगे उनके विचारों के रूप में रखने और कार्यपद्धति का हिस्सा बनाने में सक्षम बनाया। 1951 में विज्ञान कांग्रेस में उन्होंने कहा, “मेरी रुचि मुख्य रूप से भारतीय लोगों और यहां तक कि भारत सरकार को वैज्ञानिक कार्य और इसकी आवश्यकता के प्रति जागरूक बनाने की कोशिश में है।” वे साफ कहते हैं कि अकेले विज्ञान ने यह सुनिश्चित किया कि समाज उस तरह की बर्बरता की ओर न लौटे, जिसकी धार्मिक कट्टरता और प्रतिक्रियावादी रूढ़िवादिता बार-बार धमकी देती रही है। इसीलिए जितने साफ तौर पर नेहरू हिंदू और मुस्लिम संप्रदायवादियों की निंदा करते हुए उन्हें बेहद पिछड़ा बता सके और इन तत्वों को सरकार से दूर रख सके वैसा कोई केंद्र सरकार नहीं कर सकी।
भारत की स्वतंत्रता के बाद नए संविधान को लागू करने की चुनौतियों के साथ हमारे देश का नेतृत्व आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरू ने संभाला। देश के इस पहले प्रधानमंत्री को इस बात का भलीभांति बोध था कि वैज्ञानिकों सहित हमारे लोगों को तर्कहीनता, धार्मिक रूढ़िवादिता और अंधविश्वासों ने जकड़ा हुआ है. नेहरू का यह मानना था कि भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का एक ही रास्ता है- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को विकास से जोड़ा जाए. प्रधानमंत्री के रूप में, नेहरू ने अपने वैज्ञानिक विचारों के अनुसार वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों का निर्माण किया। अगस्त 1947 में उन्होंने अपने निर्देशन में वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए एक केंद्रीय सरकारी पोर्टफोलियो बनाया। 1951 में प्राकृतिक संसाधन और वैज्ञानिक अनुसंधान मंत्रालय बना जिसका वैज्ञानिक अनुसंधान विभाग में आगे विस्तार हुआ। नेहरू ने वैज्ञानिक मामलों पर संसद में बहस का नेतृत्व करना, भारतीय विज्ञान कांग्रेस की वार्षिक बैठकों को संबोधित करना और वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के शासी निकाय की अध्यक्षता करना जारी रखा। भारत के उत्तर-औपनिवेशिक विज्ञान के संरक्षक और मार्गदर्शक की तरह उन्होंने अपने वैज्ञानिकों को महत्व दिया। इनमें वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के महानिदेशक एस.एस. भटनागर, भारत की योजना व्यवस्था के सांख्यिकीविद् पी.सी. महालनोबिस और भारत के परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष होमी के. भाभा शामिल थे। नेहरू ने परमाणु ऊर्जा विभाग पर अपना निजी नियंत्रण बनाए रखा। परमाणु ऊर्जा में उनकी गहरी रुचि ने यह सुनिश्चित किया कि यह एक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत तथा भारत की वैज्ञानिक आधुनिकता के प्रतीक के उभरे। भाभा के साथ उनके संबंध विशेष रूप से घनिष्ठ थे, जिससे परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के लिए विशेषाधिकार प्राप्त वित्त पोषण संभव हो सका। इसीलिए नेहरू का समय भारतीय विज्ञान के उत्कर्ष का युग था। उस समय छद्मविज्ञान की अवधारणाओं को किसी भी तरह का बढ़ावा सरकार द्वारा नहीं दिया गया।
नेहरु ने ही हमारे शब्द-ज्ञान में ‘साइंटिफिक टेम्पर’ (वैज्ञानिक दृष्टिकोण) शब्द जोड़ा. वे डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखते हैं : ‘आज के समय में सभी देशों और लोगों के लिए विज्ञान को प्रयोग में लाना अनिवार्य और अपरिहार्य है. लेकिन एक चीज विज्ञान के प्रयोग में लाने से भी ज्यादा जरूरी है और वह है वैज्ञानिक विधि जो कि साहसिक है लेकिन बेहद जरूरी भी है और जिससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण पनपता है यानी सत्य की खोज और नया ज्ञान, बिना जांचे-परखे किसी भी चीज को न मानने की हिम्मत, नए प्रमाणों के आधार पर पुराने नतीजों में बदलाव करने की क्षमता, पहले से सोच लिए गए सिद्धांत की बजाय, प्रेक्षित तथ्यों पर भरोसा करना, मस्तिष्क को एक अनुशासित दिशा में मोड़ना- यह सब नितांत आवश्यक है. केवल इसलिए नहीं कि इससे विज्ञान का इस्तेमाल होने लगेगा, लेकिन स्वयं जीवन के लिए और इसकी बेशुमार उलझनों को सुलझाने के लिए भी…..वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानव को वह मार्ग दिखाता है, जिस पर उसे अपनी जीवन-यात्रा करनी चाहिए. यह दृष्टिकोण एक ऐसे व्यक्ति के लिए है, जो बंधन-मुक्त है, स्वतंत्र है.’
नेहरु ने भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए अनेक प्रयत्न किए. इन्हीं प्रयत्नों में से एक है उनके द्वारा सन् 1958 में देश की संसद (लोकसभा) में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति को प्रस्तुत करते समय वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विशेष महत्त्व देना. उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सोचने का तरीका, कार्य करने का तरीका तथा सत्य को खोजने का तरीका बताया था. सारी दुनिया के लिए यह पहला उदाहरण था, जब किसी देश की संसद ने विज्ञान नीति का प्रस्ताव पारित किया हो. उनका कहना था कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब महज परखनली को ताकना, इस चीज और उस चीज को मिलाना और छोटी या बड़ी चीजें पैदा करना नहीं है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब है दिमाग को और ज़िंदगी के पूरे ढर्रे को विज्ञान के तरीकों से और पद्धति से काम करने के लिए प्रशिक्षित करना. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध तर्कशीलता से है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार वही बात ग्रहण के योग्य है जो प्रयोग और परिणाम से सिद्ध की जा सके, जिसमें कार्य-कारण संबंध स्थापित किये जा सकें. चर्चा, तर्क और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण अंग है. निष्पक्षता, मानवता, लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता आदि के निर्माण में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण कारगर है.
1976 में 42वें संवैधानिक संशोधन के हिस्से के रूप में अनुच्छेद 51ए(एच) के तहत भारतीय संविधान में ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और खोज और सुधार की भावना विकसित करना’ प्रत्येक नागरिक के दस मौलिक कर्तव्यों में से एक घोषित किया गया. विज्ञान और प्रौद्योगिकी को मानवतावाद की भावना के साथ जोड़ा जाना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि अंततः हर तरह की तरक्की का लक्ष्य मानव और जीवन की गुणवत्ता और उसके संबंध का विकास है. हमारे बच्चों और समाज में इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास ही नेहरूजी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
इस लेख की लेखिका कल्पना पांडे है
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