सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: असम के लाखों लोगों को मिली राहत, धारा 6ए की संवैधानिकता बरकरार

आई एन वी सी न्यूज़
नई दिल्ली – भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6ए को संवैधानिक करार देते हुए असम के लाखों निवासियों को राहत दी है। 17 अक्टूबर को सुनाए गए इस फैसले से असम के उन लोगों की चिंताओं का समाधान हुआ है, जो दशकों से अपनी नागरिकता को लेकर अनिश्चितता में जी रहे थे। यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह असम समझौते की वैधता को भी बरकरार रखता है, जो 1985 में बांग्लादेश से अवैध शरणार्थियों की समस्या के समाधान के लिए हुआ था।

नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6ए क्या है?

धारा 6ए 1985 के असम समझौते के परिणामस्वरूप नागरिकता अधिनियम में जोड़ी गई थी। इसके अनुसार, जो लोग 25 मार्च 1971 से पहले असम में आए थे, उन्हें और उनके परिवारों को भारतीय नागरिक माना जाएगा। यह धारा उन लाखों लोगों के लिए बेहद महत्वपूर्ण थी, जो बांग्लादेश से असम में पलायन कर चुके थे। इस समझौते ने असम में शांति और स्थिरता लाने के लिए एक राजनीतिक समाधान प्रदान किया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अब संवैधानिक ठहराया है।

असम समझौता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

असम समझौता 15 अगस्त 1985 को केंद्र सरकार, असम सरकार और आंदोलनकारी संगठनों के बीच हुआ एक महत्वपूर्ण समझौता था। इस समझौते के तहत, असम में 25 मार्च 1971 से पहले आए लोगों को नागरिकता प्रदान की गई। इस समझौते ने असम में अवैध प्रवासियों के मुद्दे को हल करने का प्रयास किया, और इसके आधार पर नागरिकता अधिनियम में धारा 6ए को शामिल किया गया।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला: न्यायिक संघर्ष की सफलता

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने 4-1 के बहुमत से यह फैसला सुनाया कि धारा 6ए असंवैधानिक नहीं है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि असम समझौता और धारा 6ए असम में अवैध शरणार्थियों की समस्या का समाधान है और इसे संविधान के अनुरूप माना जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि धारा 6ए की समय सीमा उचित है, क्योंकि पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से असम में पलायन अन्य राज्यों की तुलना में अधिक था।

इस फैसले में चार जजों ने बहुमत में सहमति जताई, जबकि एक न्यायाधीश ने असहमति जताई। यह जमीअत उलमा-ए-हिंद और जमीअत उलमा असम द्वारा 2009 में दायर रिट याचिका संख्या 274/2009 पर सुनाया गया फैसला है, जिसमें उन्होंने धारा 6ए की संवैधानिकता को चुनौती दी थी। जमीअत उलमा-ए-हिंद के मौलाना महमूद असद मदनी और असम इकाई के अध्यक्ष मौलाना बदरुद्दीन अजमल ने फैसले का स्वागत करते हुए इसे असम के पीड़ितों के लिए एक बड़ी जीत बताया।

जमीअत उलमा-ए-हिंद का संघर्ष

जमीअत उलमा-ए-हिंद और उसकी राज्य इकाई, जमीअत उलमा असम ने पिछले 15 वर्षों से सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर कानूनी लड़ाई लड़ी है। मौलाना महमूद असद मदनी की अध्यक्षता में जमीअत ने असम के लाखों गरीब और पीड़ित लोगों की नागरिकता के अधिकार की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष किया है। मौलाना मदनी ने कहा कि यह फैसला जमीअत के संघर्ष की जीत है और यह उन लाखों लोगों के लिए राहत लेकर आया है जो अपनी नागरिकता खोने के डर से पीड़ित थे।

असम में जश्न का माहौल

इस ऐतिहासिक फैसले के बाद, असम में जश्न का माहौल है। नागरिकता की उम्मीद में दशकों से संघर्ष कर रहे लाखों लोग इस फैसले को लेकर बेहद खुश हैं। मौलाना मदनी ने कहा कि यह फैसला असम के लिए एक मील का पत्थर है और इससे नागरिकता की उम्मीद खो चुके लोगों को एक नया जीवन मिलेगा। उन्होंने कहा कि जमीअत उलमा-ए-हिंद आगे भी असम के पीड़ितों के लिए संघर्ष जारी रखेगी और नागरिकता के मुद्दे पर लड़ाई लड़ेगी।

असम एकॉर्ड और धारा 6ए पर विवाद

असम के नागरिकता विवाद को लेकर असम संमिलिता महासंघ नामक संगठन ने 2009 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने 25 मार्च 1971 की तारीख को चुनौती दी थी। उनका दावा था कि असम में केवल 1 जनवरी 1966 से पहले आए लोगों को भारतीय नागरिक माना जाना चाहिए। अगर यह याचिका स्वीकार हो जाती, तो लाखों लोग, जो 1966 और 1971 के बीच असम में आए थे, विदेशी घोषित कर दिए जाते।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया और असम एकॉर्ड और धारा 6ए को संविधान के अनुरूप ठहराया। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 6ए का लागू होना असम की विशिष्ट परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हुआ है और यह पूरे भारत में लागू नहीं किया गया।

न्यायिक दृष्टिकोण: असम के विविध नस्लीय समूह

इस मामले पर मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि असम में विभिन्न नस्लीय समूहों की उपस्थिति संविधान के अनुच्छेद 29(1) का उल्लंघन नहीं है। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता को यह साबित करना होगा कि एक नस्लीय समूह दूसरे समूह की उपस्थिति के कारण अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा करने में असमर्थ है। यह बयान असम में विविध सांस्कृतिक समूहों की उपस्थिति के महत्व को दर्शाता है और इस विविधता को संविधान द्वारा सुरक्षित किया गया है।

धारा 6ए और नागरिकता का मुद्दा

नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6ए भारतीय मूल के उन शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करती है, जो 1 जनवरी 1966 के बाद लेकिन 25 मार्च 1971 से पहले असम में आए थे। इस धारा का उद्देश्य उन लोगों को सुरक्षा प्रदान करना था, जो बांग्लादेश के युद्ध के दौरान असम में आ बसे थे। इस अधिनियम को 1985 में असम समझौते के बाद लागू किया गया था, और अब सुप्रीम कोर्ट ने इसे संवैधानिक ठहराया है।

नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 और धारा 6ए

यह भी महत्वपूर्ण है कि 2019 में केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) पारित किया, जिसके तहत दिसंबर 2014 तक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता प्रदान की गई। हालांकि, इस कानून में मुस्लिम शरणार्थियों के लिए कोई प्रावधान नहीं था, जिससे असम के लाखों मुस्लिम शरणार्थियों की स्थिति और भी जटिल हो गई थी। जमीअत उलमा-ए-हिंद ने इन मुद्दों को भी अदालत में उठाया है और आगे भी इस मामले में लड़ाई जारी रखने का संकल्प लिया है।

सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला असम के लाखों निवासियों के लिए एक नया सवेरा लेकर आया है। इस फैसले ने नागरिकता के मुद्दे पर दशकों से चली आ रही अनिश्चितता को समाप्त किया है और असम के नागरिकों के अधिकारों को संरक्षित किया है। जमीअत उलमा-ए-हिंद और असम के अन्य संगठनों का यह संघर्ष अब एक महत्वपूर्ण मुकाम पर पहुंचा है, और यह असम के भविष्य के लिए एक मजबूत नींव प्रदान करता है।

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