– सोनाली बोस –
भारतीय संस्कृति में आधुनिक समाज और लोक सभ्यता एक दुसरे में कुछ इस तरह रची बसी है कि दोनों को एक दूजे से जुदा करना आंसू से नमक अलग करने सा असंभव कार्य है| आज भी शहरी आडंबर में लिप्त मन गाँव की मिट्टी में मिलकर ही असीम शांति पाता है| और अगर ये आपाधापी, दौड़ भाग दिल्ली जैसे महानगर की देन हों तो दिल की हालत का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं| मगर दिल और दिमाग़ की मानसिक ख़ुराक का बंदोबस्त समय समय पर राजधानी में स्थित राष्ट्रीय और सामाजिक संस्थान करते रहते हैं| इन सभी संस्थानों में सरे फ़ेहरिस्त है दिल्ली के बीचोंबीच मौजूद ‘’इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र’’| दिल्ली वासियों के दिल को सुकून और शांति देने के लिए २८ नवंबर से ३ दिसंबर के मध्य ‘’दीनदयाल शोध संस्थान’’ और ‘’इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र’’ संयुक्त रूप में ले कर आये हैं ‘’लोकगाथा’’|
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है ‘’लोकगाथा’’ यानी कि लोगों की कहानी और हम सभी की कहानी जुडी है हमारी मिट्टी और हमारे गावों से| ‘’इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र’’ का आँगन लोकगीतों और लोकनृत्यों की मधुर थापों और स्वर लहरियों से गुलज़ार है| देश के कोनों कोनों से लोक कलाकारों का समूह अपने प्रदेश और अंचलों की चुनिंदा कलाकारी का नमूना लेकर इन दिनों ‘’इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र’’ के प्रांगण में उपस्थित है| तमिलनाडू से शिव शक्ति, देव नर्तम, कलिअट्टम; छत्तीसगढ़ से रामनामी, नाचा, और पंथी; उत्तराखंड से मौजूद हैं हिल जात्रा, और छोलिया नृत्य; राजस्थान से कलाकार लाए हैं चरी नृत्य, मेवाती गीत, शिव कथा, भवई; केरल से पुलिकल्ली, कुमाटी, चेंदामेलम, मुदीयत्तु; पश्चिम बंगाल से पुरुलिया छाऊ; पंजाब का किस्सा; असम से ओजापाली; उत्तर प्रदेश से टेसू गीत, आल्हा; लद्दाख से केसर गाथा; महाराष्ट्र से आए हैं पवाड़े; हरियाणा से रागणी; मध्य प्रदेश के कलाकार लाए हैं बधाई नृत्य; गुजरात से राठौर वार्ता व महाभारत; झारखंड से संथाली; मणिपुर से पुंग चोलम, ढोल चोलम, लेइमा जगोई, दश अवतार|
लेकिन ‘’इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र’’ में सिर्फ लोक नृत्य और लोक संगीत ही नहीं वरन शारीरिक सौष्ठव और कसरत को महत्त्व देती हुई युद्ध कलाएं भी अपनी उपस्तिथी से दर्शकों में एक अलग ही रोमांच और स्फूर्ति पैदा कर रही हैं| उत्तर प्रदेश से ‘’दीवारी’’ है तो हिमाचल प्रदेश से एक बेहद अनूठा और पौराणिक युद्ध कौशल दर्शकों को लुभा रहा है जिसका नाम है ‘’थोडा’’| मणिपुर से ‘’थांग टा’’ और ओडिशा से मौजूद है ‘’पाइका’’|
दिल्ली की गुनगुनी सर्दी की दोपहरी में जब इन सभी लोक कलाओं को देखने के लिए दर्शकों की भीड़ नजर आती है तो एक विहंगम दृश्य नज़र आता है| आम नागरिक के मन में इन कलाओं के प्रति स्वाभाविक आकर्षण देख भारतीय सभ्यता और संस्कृति की गौरव जड़ों पर अनायास ही गर्व हो आता है|
जब INGCA के हरे भरे मैदान में कलाकारों के पैर थिरकते हैं तो वसुधा अपने यौवन पर इतरा उठती है| इन्हीं कलाकारों की कला से अचंभित होते हुए जब इनसे बात करने का मौक़ा हाथ लगा तो उसे गंवाना मुमकिन न हुआ| पश्चिम बंगाल के संथाल परगना से आई हुई लोक कलाकारों की टीम से बातचीत के दौरान मालूम हुआ कि किस तरह वे लोग अपने गाने और नृत्य के जरिये अपने आदीवासी इलाके के ‘कर्म पूजा’ और काली पूजा को दर्शाते हैं| उनके लिए ये सिर्फ नाच गाना ही नहीं बल्कि अपने आराध्य देव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है|
झारखंड से आई हुई कलाकारों की टीम ‘’छाऊ’’ नाच के ज़रिये भारतीय पौराणिक गाथाओं और कहानियों को प्रदर्शित करती है| अपने शरीर पर भारी भारी मुखौटों के वज़न से दोहरे होते शरीर में लोच और भंगिमाओं की कोई कमी नहीं और हाव भाव में थकान का लेश मात्र भी दर्शन नहीं| इन कलाकारों की अपनी कला के प्रति आस्था और साधना इनके समक्ष दर्शकों को नतमस्तक कर देती है|
आगे बढ़ते हुए नज़र आते हैं बड़े ही आकर्षक रंगों और वेशभूषा में सजे धजे कुछ ‘’देवी देवता’’,जी हाँ, ये हैं तमिलनाडू से आये लोक कलाकार जो पेश कर रहे हैं ‘’देव नर्तम ‘’ यानी की देवताओं का नृत्य| यकीन मानिए इन देवों के नाच को देखकर सच में लगता है कि हम स्वर्ग में आ गए हैं और इन कलाकारों के सुंदर चहरे और भाव भंगिमाओं को देख मन हर्ष से नाचने लगता है| इन्हीं कलाकारों में से एक हैं ‘आनंद’ और उनसे बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि कैसे वे सभी पुरुष कलाकार अपनी इस नृत्य शैली को दर्शकों के सामने लाने के लिए खुद ही मेकअप करते हैं और उनमें से कुछ पुरुष देवी का रूप धरते हैं| जब हमने उनसे जानना चाहा कि उनके ग्रुप में क्या महिलाऐं नहीं हैं तो उन्होंने बताया कि महिलाएं तो हैं लेकिन वे सिर्फ लोकल शो में ही शिरकत करती हैं और बाहर के टूर्स में वो नहीं आती हैं| जब कारण जानना चाहा तो वही जवाब मिला कि परिवार इजाज़त नहीं देते और सुरक्षा का मामला भी सामने आता है| ये जानने के बाद सिर्फ यही महसूस हुआ कि अभी भी हमारे देश को अपनी बेटियों के लिए एक सुरक्षित माहौल बनाने में भारी मशक्कत करनी होगी|
ज़िन्दगी के तनाव और झगड़े इन प्यारे प्यारे कलाकारों की दीवानगी और परिश्रम को देख भूल जाने का मन करता है| जब पीले लाल रंग के कपड़ों में सजी असम की प्यारी प्यारी लडकियाँ अपनी सुन्दर शक्लों और कला के द्वारा अपनी लोक कला ‘ओजापली’ का प्रदर्शन करती हैं तो वो समां देखने लायक होता है| हाथ में तलवार और नज़र कटार, भई वाह!
वहीं आगे चलते हुए नजर आते हैं मध्य प्रदेश के कलाकार ‘बधाई नाच’ दिखाते हुए| इन कलाकारों में एक स्वाभाविक लज्जा और भोलापन है जो शायद आज तक सिर्फ़ इसीलिये मौजूद है क्योंकि ये शहरी आबो हवा और छल कपट से अभी तक दूर हैं|
मैदान के कोने में चुपचाप बैठा एक शर्मीला जोड़ा नज़र आता है| इतना भोलापन और सादगी देख उनके प्रति सहज आकर्षण होना लाज़मी है| नाम पूछा तो उन्होंने बताया वो हिमाचल प्रदेश के चंबा से आये हैं और उनका नाम राजेन्द्र सिंह है और वो अपनी पत्नी के साथ मिलकर खंजरी और रेवाना बजा कर शिव भक्ति के गीत गाते हैं| इतना मधुर गायन और ऐसी भक्ति देख कर दिल बाग़ बाग़ हो गया| इन ग्रामीण इलाको की मिट्टी में ही कोई बात है जो आज तक इन कलाकारों के रगों में शहरी कांक्रीट नहीं दौड़ पाया|
छत्तीसगढ़ में एक बेहद प्रचलित और लोकप्रिय नृत्य शैली है ‘नाचा’ और इस शैली को लेकर आये हैं दुर्ग ज़िले के एक गाँव से आये श्री साहू| छत्तीसगढ़ की बेहद लोकप्रिय लोक कथा है ‘लोरिक चन्दा’ और उसी कहानी पर आधारित है उनका ‘नाचा’| उनके इस दल में सभी कलाकार पुरुष हैं लेकिन स्त्री वेश में सजे उनके पुरुष कलाकार किसी भी स्त्री को अपनी लचक और अदा से कम्पटीशन देने का माद्दा रखते हैं|
पंजाब के चंडीगढ़ से आये हैं कलाकार लेकर ‘’किस्सा’’ जिसमें गीतों के माध्यम से ‘मिर्ज़ा साहिबा’, ‘हीर रांझा’ के प्रेम के किस्से सुनाए जाते हैं | नानक की भूमी, पंजाब की पवित्र ज़मीन सबद के कीर्तनों की पाक धुनों पर जगती है और वो सिर्फ़ किसान और पहलवान ही पैदा नहीं करती वो प्यार और इश्क से लबरेज़ कला के ऐसे सच्चे साधकों को भी जन्मती है|
‘लोक गाथा’ सिर्फ नाच गाने तक ही सिमित नहीं है, इस कला प्रदशर्नी में शारीरिक सौष्ठव और तंदुरुस्ती की महत्ता को दर्शाती लोक शैलियाँ भी बेहद पसंद की जा रही हैं| ऐसी ही एक शैली है उड़ीसा की ‘पाइका’| इस शैली में गुलामी से आज़ादी पाने का जूनून दर्शाया गया है| लाठियों और तलवारों के ज़रिये बड़े ही आक्रामक तेवर सहित सभी पुरुष कलाकार इस शैली को प्रस्तुत करते हैं|
उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड से आये हैं कलाकार लेकर ‘देवारी’ जो कि एक पारंपरिक पूजा और पर्व को मनाने का तरिका है| इन कलाकारों से बातचीत के दौरान मालुम हुआ कि इनके पूर्वज श्री कृष्ण के ‘सखा’ थे और जब कृष्ण भगवान् ने अपनी उंगली पर गोवर्धन उठाया था तब इनके पूर्वज ‘सखाओं’ ने भगवान् वासुदेव के साथ नृत्य किया था| तभी से प्रत्येक गोवर्धन पूजा के दिन ये लोग मौनव्रत रखते हैं और भगवान श्री कृष्ण के मोर प्रतीक मोर पंखों की पूजा करते हैं| सच, कितना अनोखा और अनुपम है न हमारा ये देश!!
इस बार की ‘लोकगाथा’ में जिस पारंपरिक कला और खेल ने सबसे ज़्यादा आकर्षित किया वो है हिमाचल प्रदेश का ‘’थोडा’’| इस खेल में दो समूह परस्पर तीर धनुष लेकर युद्ध का खेल खेलते हैं और बाकायदा एक दूसरे को तीर से निशाना लगाते हैं| मान्यता है कि ये लोग ‘महाभारत’ में हुए कौरव पांडवों के युद्ध को दर्शाते हैं| ‘थोडा’ खेलने आए राम अवतार जी और राजेश जी ने बताया कि उनके पुरखे लोग पांडवो और कौरवों के साथ महाभारत में लड़े थे| जो लोग पांडवों के साथ थे वो ‘पाशी’ कहलाए और जो कौरवों के साथ रहे उन्हें नाम दिया गया ‘शाटी’| इन्हीं ‘पाशी’ और ‘शाटी ‘ के वंशज आज भी इस ‘धर्मयुद्ध’ को खेलते हैं और इसके सभी नियमों को मानते हुए इसे खेला जाता है यानी कि सूर्यास्त के पश्चात इसे नहीं खेला जाता है| तीरों के निशान इस खेल के दौरान और बाद में भी इन कलाकारों के पैरों पर नज़र आते हैं|
INGCA के इस आयोजन ‘लोकगाथा’ में बयान करने को अभी भी कई कलाकार और शैलियाँ बाक़ी हैं लेकिन जो मज़ा इस आयोजन को खुद जाकर महसूस करने में है वो लिखने में और पढ़ने में कहाँ? ये बोलना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस तरह के आयोजनों और कदमों की बदौलत ही आज भी हमारी लोक कला और संस्कृति बची हुई है| कहते हैं न कि शाख से टूटी पत्ती का कोई भविष्य नहीं होता उसी तरह अपनी परंपराओं और सभ्यता से छूट कर किसी समाज का कायम रहना भी मुश्किल है|
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Sonali Bose
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संस्कृति समाज की आधारशिला होती हैं, आधुनिकता का आकार प्रकार संस्कृति के प्रेरक तत्व पर ही निर्भर है इसलिए हमारी पुरातन संस्कृति का संरक्षण बेहद आवश्यक है।
बहुत ही सुन्दर वर्णन किया आपने । साधुवाद :