Raj kapoor’s statement on Shailendra’s death
उस शख्स की महान धरोहर आंखों के सामने है। क्या लोगों ने कभी रूककर सोंचा कि सोवियत रूस व दुनिया में राजकपूर को मिली शोहरत में शैलेन्द्र का योगदान क्या था? उन गीतों जिसकी दुनियावालों ने गुनगुनाया ‘आवारा हूं’ लेकर ‘मेरा जूता है जापानी’ या ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के गीत ‘मेरे नाम राजू घराना अनाम’ अथवा ‘होठों पे सच्चाई रहती है’ सरीखे गीतों को किसने लिखा? माध्यम को लेकर शैलेन्द्र की समझ में बदलाव एक स्वागतमय मोड था। सिनेमा में भी आम आदमी की तडप शायद उन्हें नजर आई थी। कविताएं लिखने वाला शख्स ने फिल्मों को भी एक सशक्त माध्यम के रूप में स्वीकार कर लिया। खूबसुरत अंदाज में… एक सितारा आसमान पर बुलंद हुआ। आम आदमी को एक सिनेमाई अभिवयक्ति देने का सराहनीय काम किया था। मिसाल के लिए ‘जिस देश में गंगा बहती है’ का गीत ‘कुछ लोग ज्यादा जानते हैं,इंसान को कम पहचानते हैं’ को याद करें। शाटस व दृश्यों के मुताबिक से गीतों के बोल सटीक थे। राजकपूर की इमेज में शैलेन्द्र का निर्णायक हिस्सा था। आम आदमी का राजकपूर कविताई के अक्स से बना था। आर के स्टुडियो के लोगों की समझ में फिल्म निर्माण में कदम रखने की बडी भूल ने गीतकार की जान ली। हुआ यही था…तीसरी कसम के साथ जो हुआ उसने शैलेन्द्र की असमय मौत तक पहुंचा दिया था। फिल्म व्यवसाय की बारिकियों को ठीक से समझ बिना वो निर्माण में डूब गए। रूपया डूब गया… फिल्म फिर भी अधूरी थी । मुकेश-शंकर जयकिशन के सहयोग से किसी तरह पूरी होकर रिलीज हुई। यह हमारी टीम की एकता को एक महान श्रधांजली थी। मुश्किलों के बावजूद शैलेन्द्र ने फिल्म को पूरा किया। आज भी जुबान पर दर्ज गीत तीसरी कसम को खास बनाते हैं। मुझे याद आ रहा कि एक रात फिल्म की आर के स्टुडियो में प्राईवेट स्क्रीनिंग थी। उपस्थित लोगों से फिल्म के ऊपर मत देने को कहा गया। ज्यादातर लोगों ने महसूस किया कि फिल्म को बाक्स-आफिस की थोडी फिक्र करनी चाहिए। सभी मतों को पढ कर भी गीतकार ने अपने काम में बदलाव से मना कर दिया। मेरी डायरी में शैलेन्द्र ने लिखा ‘मेरे पास वो दो पंक्तियां अब भी शेष बची —फिल्म अपने हिसाब से बनाऊंगा’। फिल्म से जुडे व्यावसायिक रिश्ते ने शैलेन्द्र को बडी पीडा दी थी। शरीर व आत्मा गहरे रूप से दुखित हुए थे। फिर भी दिल को छु जाने वाले गीतों को लिखा। फिर मेरे अगली फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के लिए भी गीत लिखे। उसकी गहरी भावपूर्ण थीम पंक्तियों को रचा। यह पंक्तियां बहुत दिनों से मेरे मन में थी…लेकिन शैलेन्द्र मिल नहीं रहे थे। एक रात मकान पर वो खुद आ पहुंचे। थीम पंक्तियों को लिपिबध करके नीचे अपना दस्तखत कर दिया। संकेत मिला कि ‘जीना यहां मरना यहां,इसके सिवा जाना कहां’ की अमर पंक्तियां लिखी जा चुकी थीं ।
खुदा के सामने झोली फैलाए खडा अपने अजीज के जाने का मातम कर रहा हूं। वापसी की दुआएं कर रहा हूं… ना सुनने वाले को आवाज दे रहा हूं। मेरा अजीज मुझे अधूरा छोड गया है। मेरा दिल तडप रहा…उसे ढूंढ रहा…… राज कपूर !!
परिचय – :
सैयद एस.तौहीद
जामिया मिल्लिया से स्नातकोत्तर सैयद एस.तौहीद सिनेमा व संस्कृति विशेषकर हिंदी फिल्मों पर लेखन करते हैं.इंटरनेट मिडिया पर अनेक वैचारिक लेखों का प्रकाशन.
कुछ अपने ही बारे में
पटना से ताल्लुक रखने वाले सैयद एस.तौहीद ने जामिया मिल्लिया से उच्च शिक्षा प्राप्त की. हिंदी सिनेमा के अध्येता.विगत पांच बरसों से सिनेमा व अन्य विषयों पर लेखन .सिनेमा के ऊपर पब्लिक फोरम की एक लोकप्रिय साईट से लेखन की शुरुआत.इन दिनों हिंदी सिनेमा एवं संस्कृति ऊपर लेखन.फ़िल्म के रिव्युज में भी दिलचस्पी. लोकप्रिय वेबसाईट जानकीपुल में आलेखों का प्रकाशन.
लेखन क्यों कर रहा हूँ इसकी खास वजह तो बता नहीं सकता,लेकिन कहना चाहूंगा कि सिनेमा व साहित्य दिल के बहुत करीब रहा..शायद इसलिए उसके बारे में लिखकर उस मुहब्बत को साकार कर रहा.यकीं के साथ कि एक रोज मेरा काम भी मुझसे प्यार करेगा.खुदा का इंसाफ बड़ा प्यारा हुआ करता है !
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