पिछले दिनों स्वच्छता अभियान की जो तस्वीरें टीवी तथा अन्य प्रचार माध्यमों के द्वारा जारी की गईं उनमें प्राय: प्रधानमंत्री अथवा अन्य मंत्रियों को पार्कों में सूखे पत्ते साफ करते दिखाया गया था। गंदगी का कारण पेड़ों से नित्य टपकने वाले सूखे पत्ते नहीं होते। वह गंदगी जिससे बीमारी फैलने की प्रबल संभावनाएं बनी रहती हैं उसके लिए न सिर्फ हमारे समाज का वह बड़ा वर्ग जि़म्मेदार है जोकि अपने-आपको अस्वच्छता के वातावरण में रखने का आदी हो चुका है बल्कि सरकार भी गंदगी व बीमारी फेलने-फैलाने की कम दोषी नहीं है। उदाहरण के तौर पर देश की काफी बड़ी जनसंख्या खुले में शौच हेतु जाने की आदी है। क्या सडक़ का किनारा तो क्या रेलवे लाईन के किनारे,नदी,तालाब व गड्ढे के आसपास तथा झाडिय़ों के बीच छुपकर और शहरों में तो नालियों व नालों के किनारे बैठकर शौच से निपटना तो गोया आम बात हो गई है। दिल्ली जैसे महानगर में तो सुबह-सुबह इतनी बड़ी संख्या में आम लोग रेलवे लाईन के किनारे तथा पटरियों पर बैठे होते हैं कि ट्रेन चालक को सिग्रल मिलने के बावजूद अपनी रेलगाड़ी अत्यंत सावधानी से चलानी पड़ती है। प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान का असर इन गंदगी फैलाने वालों पर आिखर क्या पड़ सकता है? प्रधानमंत्री ऐसे लोगों के लिए आिखर सफाई संबंधी क्या संदेश दे सकते हैं? ऐसे लोग जो लगभग पूरे देश में खुले में शौच जाने के आदी हो चुके हैं उनकी इस जीवनशैली को आिखर कैसे बदला जा सकता है? यह कहना तो बहुत आसान है कि भारतवर्ष विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में जा रहा है अथवा हम दुनिया में ‘बड़े भाई’ की भूमिका निभाएंगे। परंतु सच्चाई तो यही है कि हमारे देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके घरों में शौचालय तक नहीं हैं। जबकि ऐसे लोगों की भी बहुत बड़ी संख्या है जिनके पास शैचालय तो क्या अपने सर छुपाने के लिए मकान तक नहीं हैं। ऐसे लोगों को हम स्वच्छता अभियान में आिखर कैसे शामिल कर सकते है? क्या सिर्फ पार्कों के सूखे पत्ते साफ करते हुए अपनी फोटो अखबारों में प्रकाशित करवा कर?
खुले मैदान में शौच हेतु जाने वालों में सभी लोग ऐसे नहीं जिनके पास शौचालय नहीं है। बल्कि जहां शौचालय न होने की मजबूरी के चलते बड़ी संख्या में लोग खुले मैदानों में बैठते हैं वहीं गांव में एक वर्ग ऐसा भी है जो संपन्न होने के बावजूद खुले मैदान में अथवा खेतों में शौच जाना ही बेहतर समझता है। ऐसे लोग अपने घरों में शौचालय तो ज़रूर बनवाते हें परंतु उनके शौचालय केवल महिलाओं के प्रयोग के लिए ही होते हैं। जबकि पुरुष वर्ग खेतों में ही जाता है। इस वर्ग के लोगों का मत है कि गंदगी को घरों में नहीं रखना चाहिए बल्कि इसे बाहर जाकर त्यागना चाहिए। ऐसे विचार रखने वालों पर स्वच्छता अभियान के सरकारी प्रचार-प्रसार का आिखर क्या फर्क पड़ेगा? प्रधानमंत्री ने लोकसभा चुनाव पूर्व अपने भाषण में ठीक कहा था कि देवालय से अधिक ज़रूरी शौचालय हैं। यही बात उनसे पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश द्वारा कही जा चुकी थी। यदि वास्तव में प्रधानमंत्री सफाई अभियान को ज़मीनी स्तर पर कारगर देखना चाहते हैं तथा इस अभियान को केवल थोथी लोकप्रियता हासिल करने का माध्यम मात्र नहीं बनाना चाहते हैं तो पूरे देश के प्रत्येक व्यक्ति के लिए शौचालय की व्यवस्था सरकार को हर हाल में करनी ही होगी। जहां तक सुलभ शौचालय का प्रश्र है तो यह व्यवस्था उन लोगों के लिए तो किसी हद तक आरामदायक हो सकती है जो पैसे देकर शौच से निपटने की क्षमता रखते हैं। परंतु हमारे देश में प्रत्येक व्यक्ति इस योग्य भी नहीं है जो 2 या 5 रुपये देकर शौचालय जा सकेगा। लिहाज़ा सरकारी स्तर पर सभी के लिए इसका स्थायी,समुचित एवं कारगर प्रबंध किया जाना बेहद ज़रूरी है। और इन सब सुविधाओं के उपलब्ध हो जाने के बावजूद भी यदि घर की गंदगी को बाहर त्यागने जैसे विचार रखने वाले लोग बाहर ही जाते रहे तो उन्हें शिक्षित व संस्कारित करने हेतु बाकायदा ग्रामीण स्तर पर एक मुहिम चलाए जाने की ज़रूरत है। अखबार के विज्ञापन पढक़र व टीवी पर पार्कों से पत्ते साफ करते हुए प्रधानमंत्री व अन्य केंद्रीय मंत्रियों के चित्रों को देखकर यह वर्ग खुले मैदान में या खेतों में शौच जाने से कतई बाज़ नहीं आने वाला।
गंदगी का दूसरा मुख्य स्त्रोत हमारे देश में अधिकांश शहरों व कस्बों में नालों व नालियों में रुका हुआ गंदा पानी भी है। इस गंदगी को परवान चढ़ाने में तथा नालियों व नालों को जाम करने में हमारे समाज का बहुत अहम िकरदार है। दरअसल नाली तो गंदे पानी की निकासी अथवा बरसाती पानी के आगे बढऩे के लिए ही बनाई जाती है। परंतु हमारे समाज का एक बड़ा तबका जो अपने अधिकारों की बातें करता तो अक्सर सुनाई देता है परंतु अपने कर्तव्यों से हमेशा ही मुंह मोड़े रखता है ऐसा वर्ग प्रतिदिन इन्हीं नालों व नालियों में पॉलीथिन,घरों का कूड़ा-करकट,पुराने जूते-चप्पल,फटे-पुराने कपड़े-लत्ते और इस प्रकार की अनेक वस्तुएं जोकि पानी में गलती नहीं हैं उन्हें नालों व नालियों में बेहिचक फेंक देता है। रही-सही कसर भैंसों व गायों की वह डेरियां पूरी कर देती हैं जो शहरी इलाकों में चलती हैं। ऐसे डेयरी मालिक अपने जानवरों का गोबर पाईप द्वारा पानी चलाकर नालियों में बहा देते हैं। परिणामस्वरूप यह गोबर नाली में जम जाता है और नाली जाम हो जाती है। नाले-नालियों का जाम होने का सीधा अर्थ है गंदे पानी का रुकना व ठहरना। और ऐसे पानी के ठहरने का मतलब है मच्छरों,मक्खियों तथा कीड़े-मकौड़े की परवरिश का प्रबंध करना। और यही स्थिति नाना प्रकार की बीमारियों तथा दुर्गंध फैलने का मुख्य कारण भी है। आिखर कैसे निपटेगी मोदी सरकार इन समस्याओं से? क्या पार्कों में सूखे पत्ते झाडक़र उपरोक्त समस्याओं से भी निजात मिल पाएगी? जी नहीं। यहां भी हमें अपने समाज को ही समझाने,सिखाने,पढ़ाने तथा उन्हीें के द्वारा फैलाई जा रही गंदगी व इसके परिणामस्वरूप फैलने वाली बीमारियों के विषय में प्रेमपूर्वक अवगत कराने की ज़रूरत है। गोया यहां भी हमें अपने भारतीय समाज को ही संस्कारित करना होगा।
बिहार के मुख्यमंत्री होते हुए लालू प्रसाद यादव ने भी सफाई हेतु लोगों को जागरूक करने की आवश्यकता महसूस की थी। निश्चित रूप से इस दिशा में उनके द्वारा छेड़ा गया नहलाओ-धुलाओ अभियान अत्यंत कारगर व परिणामदायक अभियान था। वह केवल प्रतीकात्मक नहीं था। बल्कि इस अभियान की शैली आम लोगों को संस्कारित भी करती थी। निश्चित रूप से जिन-जिन जगहों पर यह अभियान चलाया गया होगा वहां के लोग संभवत: आज भी कम से कम अपने शरीर को तो साफ-सुथरा ज़रूर रखते होंगे। इस अभियान के अंतर्गत् सरकारी अधिकारी ऐसे गांवों में जाते थे जहां के लोग गंदगी के वातावरण में रहते थे। इस प्रकार के घरों के बच्चों तथा युवाओं को अधिकारीगण स्वयं नहलाते-धुलाते थे, उन्हें सफाई का महत्व बताते थे तथा उनको एक तौलिया,साबुन तथा सिर पर लगाने वाला तेल आदि सामग्री उपहार स्वरूप भेंट करते थे। लालू यादव ने अपने इस अभियान को किसी गांधी जयंती तथा नेहरू-इंदिरा जयंती के अवसर पर दिखावा स्वरूप करने जैसा कोई काम नहीं किया था बल्कि इसे सरकारी तौर पर एक अभियान के रूप में शामिल किया था। बिहार,उत्तरप्रदेश,मध्यप्रदेश तथा उड़ीसा व बंगाल जैसे राज्यों में अभी भी एक बड़ा वर्ग ऐसा है तो गर्मियों में भी प्रतिदिन स्नान करने से कतराता है। पान खाकर सडक़ों पर जगह-जगह थूकना,कहीं भी खड़े होकर पेशाब करने लग जाना,चलते-फिरते कुछ खाकर अपने हाथों के कागज़ व रैपर आदि को सडक़ पर फेंक देना,केले खाकर उनके छिलके कहीं भी फेंकना, मूंगफली खाकर ट्रेन,बसों,पार्क व सडक़ों पर उनके छिलके फेंकते रहना,बीड़ी-सिगरेट जहां चाहना वहीं पीना और उसके टुकड़े जगह-जगह फेंकना,पान मसाला,गुटका आदि खाकर उसके रैपर हर जगह फेंकना,अपने पालतू कुत्तों को दूसरों के दरवाज़ो पर लेजाकर बीच सडक़ पर शौच कराना जैसी अनेक बातें हमारे समाज के एक बड़े वर्ग के लोगों की रग-रग में बस चुकी हैं। और यह आदतें प्रधानमंत्री को पार्क में सूखे पत्ते साफ करते हुए देखकर हरगिज़ नहीं जाने वाली। बल्कि यदि हमें वास्तव में पूरे भारत को स्वच्छ भारत बनाना है तो दिखावे की स्वच्छता अभियान मुहिम चलाने की नहीं बल्कि अपने समाज को स्वच्छता हेतु संस्कारित करने की ज़रूरत है।
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columnist and AuthorAuthor Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc. He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities
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