(संजय कुमार आजाद**,,)
आज हम अपने आपको उस मुकाम पर ले आयें है जहां से अतंरिक्ष और महासमुद्र की दूरियंा चन्द फासलों पर सिमटा दिया है । कर लो दूनियां मुट्ठी में के बोल को बोलते और प्रकृति पर इठलाते इतराते है हम अपने नये आबिष्कारों से । प्रकृृति को हमने अपने विकास के लिये जिस मुहाने पर ला खड़ा किया उसका अंष मात्र प्रकृति ने अपना स्वरूप उतराखंड में दिखाया । प्रकृति के दोहन से आज पूरा पर्वतीय क्षेत्र विनाष के मुहाने पर खड़ा है। देर सबेर मानव को प्रकृति के कोप का षिकार होना हीं पड़ेगा इसमें लेषमात्र भी संषय नही होना चाहिये । विकाष के नाम पर प्रकृति के साथ किया गया अप्राकृतिक दोहन से आज नही तो कल मानव को रूवरू होना हीे पड़ेगा चाहे क्यों ना ये मानव अपना आषियाना अंतरिक्ष में निमार्ण कर ले । आज हमारे चारो ओर विचित्र स्थिति व्याप्त है ।नदी, समुद्र, पहाड़,पर्वत वन …… ये सभी सिकुड़ती जा रही है वहीं षहरों से ताल-तलैया झील कुएं गौचारण भूमि प्रायः लुप्त हो चुके हैं।षहरों में प्रगति का सूचक? गगनचुम्बी इमारतें हमारी विकास की तथाकथित गीत गा रही है वही गांव की पगडंडीयां कंकरीटों में बदल कर हमारी जीवनषैली में एक बदलाव लाकर प्रकृति से हमें दूर करना प्रारंभ कर दिया। फलस्वरूप आजषहर हींनही गांव भी जल समस्या से जुझनाषुरू कर दिया । जिस देष को प्रकृति ने विó में सर्वाधिक प्राकृतिक संसाधनों से युक्त किया । विó में कभी ना दूसित होने बाले जल से भरी गंगा जैसी जीवनदायी नदी दी उस देष के लोग आज प्रगति के उस मुकाम तक पहुचे कि बोतलबन्द पानी जो 15 रूप्ये लीटर है खरीद कर पीने को अपना प्रगति मानते नहीं थकते। आखिर किस प्रगति के नषे में हम झुम रहें हैं ।भारतीय संस्कृति में उपभोग की सीमाएं हैं इसीलिये गंगा की महता को ध्यान में रख कर इस जीवनदायी नदी को परम पवित्र एवं माता का स्थान भारतीय जीवनषैली में हमारे दूरदृस्टा ऋसि मुनियों ने दी थी।पीपल,वटवृ़क्ष और करम जैसे वृृक्षों की पूजा के लिये समाज को उसकी महता के कारण करने पर जोर दिया था । हमारे सामाजिक मान्यताओं को कानून की अंधी जंजीर में बांधकर तथाकथित मार्क्स-मुल्ला-मैकाले और मायनो के मानस पुत्रों ने हांकने का प्रयास उसका खामियाजा आज समाज भुगत रहा है। जिस भारतीय चिन्तन में नारी को पूज्य माना गया था जहां कर्म के अनुसार लोग जीवनयापन करते और बल, बुद्धि, विद्धा का उपयोग समाज के प्रगति के लिये करते वो आज सिमट कर सिर्फ मैं और मेरा कुनबा तक सिमट गया। भारतीय चिन्तन की सार्वभौमिक मान्यतायों को इस्लामी आक्रान्ताओं और ईसाईयों ने जिस तरह से क्षत विक्षत किया वह अपुरणीय है। आज भी मार्क्स-मुल्ला-मैकाले और मायनो के मानस पुत्रों ने जिस तरह भारतीय चिन्तन और चिन्तको को अपने पालतु और बिकाउ मीडिया के माध्यम से तथा जयचन्दी भारतीयों के द्वारा बदनाम करने का साजिस चला रखा है वह अत्यंत निन्दनीय व चिन्तनीय है। भारतीय चिन्तक भारत में प्रताड़ना की जो दंष झेलते है उसका संचालन वेटिकन और अरवी देषेंा में बैठे जिहादियों के हाथों बिके जयचन्द के मानस पुत्र इस पवित्र भूमि पर रहकर हीं पुरा कर रहें हैं। ये जयचन्दी भारतीय रियाल, डालर, यूरो, के लिये अपनी माता, मातृृभूमि, और अपनी बहु-बेटियों की सौदा करने से नही हिचकते है।देष का दुर्भाग्य है ऐसे धृृणित मानसिकता के लोग इस देष के नीति निर्माता बनकर भारतमाता का सौदा करतें है और देष उसे अपना पथप्रदर्षक मानता आ रहा है । अपने गलत नीतियों एवं दब्बू स्वभाव के कारण देष ही नही विदेषों मे भी पीटाते रहते हैं । हमारे नेता, कलाकार, बुद्धिजीवी पत्रकार व्यवसायी विदेषी धरती पर जिल्लत झेलते हुये भी वहां जाने को अपना गौरब मानते क्योंकि इनमें आज भी गुलामी का रक्त बह रहा है जिसमें प्रतिकार की क्षमता का अभाव है। वह गोरी चमड़ी जब भारत की धरती पर कदम रखते हैं तो यही वर्ग उस धृणित मानसिकता और मानववाद का घुर बिरोधी के लिये रेड कारपेट बिछाकर उस सैतान के कदम चुमने को भी तत्पर रहतें हैं। यदि सुभासचंद्र बोस और भगत व आजाद जैसे हमारे देषभक्त येसे होते षिवाजी या महाराणा प्रताप भी ऐसे होते तब इस देष का क्या होता? अब समय आ गया है कि ऐसे रंगभेदी विदेषियों को उसी की भाषा में जबाव देकर उसकी औकात बतानी ही चाहिये। अगर इस देष का षासकबर्ग नपुसंक हो जाय तो क्या पूरा भारतीय समाज उस नपुसंक सरकार की स्वाभिमाान षून्य नीतियों के आगे भारत की स्वाभिमान को कुचलता देखता रहेगा? भारत के स्वाभिमान के खातिर इन आतातायियों को उसी की तर्ज पर जहां मौका मिले हमें माकुल जबाव देने से नहीं हिचकना चाहिए।ये लात के भूत बातों से नही मानते इनके डालर रियाल या युरो और पौड की गरमी एक दिन में समाप्त हो जाय जिस दिन हम भारतीय जाति पंथ से उपर उठकर भारत पहले है को मानकर जबाव दें।
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*संजय कुमार आजाद
पता : शीतल अपार्टमेंट,
निवारणपुर रांची 834002
मो- 09431162589
** लेखक- संजय कुमार आजाद, प्रदेश प्रमुख विश्व संवाद केन्द्र झारखंड एवं बिरसा हुंकार हिन्दी पाक्षिक के संपादक हैं।
**लेखक स्वतंत्र पत्रकार है
*लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और आई.एन.वी.सी का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं।