*सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के क्रियान्वयन में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता

**गोपाल परसाद

मजदूरों के हकों एवं हितों के लिए उन्हें सशक्त किए बिना भारत की आज़ादी का कोई मतलब नहीं है. आज देश में नीति एवं नियम के बजाय साफ नीयत की जरूरत है और इसके लिए हमें जागरूक और संगठित होना पड़ेगा. सरकारों की नीतियों में दूरदर्शिता एवं क्रियान्वयन का अभाव रहता है . आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में सरकारों की भूमिकाएँ बदल चुकीं हैं . राज्य-व्यवस्था अपनी जिम्मेदारियों से कतराती नजर आ रही हैं. सरकारें निजी कंपनी की तरह हो गई  हैं और वह लाभ देनेवाली एक एजेंसी के तौर पर काम  कर रही है. वह सामान्य जन के लिए कल्याणकारी न रहकर कई मायनों में विनाशकारी भूमिका निभा रही है . वर्तमान दौर में सभी दलों की अर्थनीति एक जैसी हो गयी है. प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रियों के सुझावों की और प्रधानमंत्री कार्यालय ने बहुत सरे मामलों की अनदेखी की है. विश्वसनीय आंकड़ों के अनुसार पिछले बीस बर्षों में नगरों की जनसँख्या में डेढ़ गुना से ज्यादा वृद्धि हुई है . देश में बीस बर्ष पहले मात्र एक अरबपति था , आज लगभग पचास हैं. भारतीय संविधान और लोकतंत्र इन्हीं कारणों से कमजोर हुआ है.
दुनियां के पैमाने पर मजदूरों और कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से भारत बहुत नीचे है. कई अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों में यहाँ के व्यवस्था की बहुत ही निरासजनक तस्वीर प्रस्तुत की है . वैश्विक सामाजिक सुरक्षा पर जरी रिपोर्ट के अनुसार “भारत में 37 करोड़ लोगों को सामाजिक सुरक्षा नहीं मिल पा रही है . अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) द्वारा बेहतर विश्व के लिए सामाजिक सुरक्षा की रिपोर्ट में सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से दुनियां के 90 देशों में भारत का 74  वन स्थान बताया गया है. आर्थिक , सामाजिक सुरक्षा का यह आकलन श्रमिकों और कर्मचारियों की आमदनी , उनके कार्य , रोजगार , रोजगार सुरक्षा तथा श्रम बाजार के आधार पर किया गया है . भारत में 90  % श्रमिक वर्ग को आर्थिक सामाजिक सुरक्षा की कोई छतरी नसीब ही नहीं है, जिसके कारन इस वर्ग के लोग बीमारी लाभ , छुट्टी लाभ , बोनस, प्रौविडेंड फंड , पेंशन , बेरोजगारी भत्ता आदि से पूरी तरह वंचित हैं . वैश्विक मंदी के दौर में दुनियां के विकसित देशों में भारत की तुलना में नौकरियां तेजी से ख़त्म हुई है परन्तु वहां कर्मचारियों , कामगारों को सामाजिक सुरक्षा के लाभ तथा बेहतर और प्रभावशाली राष्ट्रीय स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधा आसानी से प्राप्त है , जिसके कारण विकसित देश के श्रमिकों एवं कर्मचारियों को कम समस्या का सामना करना पड़ता है. आजादी के बाद सरकार ने अब तक कई कानूनों और कल्याण कोष के माध्यम से श्रमिकों को राहत देने के बाबजूद भी इस वर्ग को कोई लाभ नहीं मिल पाया . असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के मद्देनजर 1995 में सरकार ने राष्ट्रीय परिवार योजना और राष्ट्रीय मातृत्व योजना की घोषणा की थी. 1996 -97 में ग्रामीण फसल बीमा योजना और निजी दुर्घटना बीमा सामाजिक सुरक्षा योजना की घोषणा हुई . बर्ष 2000 में अति निर्धन लोगों के लिए सामाजिक बीमा योजना और 2002 में समग्र सुरक्षा योजना की घोषणा हुई . सरकार ने नई औद्योगिक -व्यावसायिक जरूरतों एवं श्रमिकों को संरक्षण प्रदान करने संबंधी कानून बनाने के लिए दो श्रम आयोग बना चुकी है परन्तु दोनों श्रम आयोग की सिफारिशों से सामाजिक सुरक्षा के कार्य में कोई गति नहीं आ सकी है . असंगठित क्षेत्र के उद्योगों के श्रमिकों की आर्थिक सामाजिक सुरक्षा के लिए अर्जुन सेन गुप्ता की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट की सिफारिश पर असंगठित क्षेत्र के 6500 रूपए प्रतिमाह से कम आय वाले 30 करोड़ मजदूरों को लाभ देने के लिए सामाजिक सुरक्षा विधेयक पारित किया गया परन्तु किसी भी तरह से यह विधेयक अपने उद्येश्य  पर खड़ा नहीं उतर सका है . बर्ष 2009 के पहली मई को मजदूर दिवस के अवसर पर केंद्र सरकार ने देश के सभी नागरिकों के लिए नई पेंशन योजना (एन पी एस ) की घोषणा की है, जिससे देशवाशियों को सामाजिक सुरक्षा के लाभ मिल सके . हालाँकि यह पेंशन योजना 2004 के बाद  नौकरी में आए सरकारी कर्मचारियों के लिए पहले से ही लागू थी, लेकिन अब इसके दरवाजे देश के असंगठित क्षेत्रों के सभी उद्यमियों ,अधिकारियों, कर्मचारियों तथा श्रमिकों के लिए भी खोल दी गए हैं, के बाबजूद भी इस पेंशन योजना में कई पेचीदगियां हैं . इसमें सेवानिवृति के बाद उतनी ही धनराशि मिलेगी जितनी जमा कराई गयी थी . इस राशि पर चुने गए निवेश विकल्प के अंतर्गत प्राप्त हुआ रिटर्न अवश्य मिलेगा . देश के सरकारी , अर्धसरकारी या दूसरे केंद्रीय संगठनों के कर्मचारियों के लिए कल्याणकारी योजनाओं के तहत पेंशन फंड में निवेश का एक हिस्सा इन संगठनों की ओर से दिया जाता है .इस पेंशन योजना में भी निवेशक के अंशदान के साथ सरकार से कुछ अंशदान की अपेक्षा की जा रही है . यह भी विचारणीय है की पेंशन योजना में अनिवार्य रूप में 500  रूपए प्रतिमाह जमा करने की शर्त है, जिसके कारण करोड़ों गरीबों के योजना से वंचित रह जाने की आशंका है. वास्तव में यह बहुत बड़ी त्रुटि है ,क्योंकि इस योजना का निवेशक किसी भी स्थिति में जब योजना की धनराशि प्राप्त करेगा , उसे प्राप्त धनराशि पर टैक्स देना होगा , दूसरी तरफ पब्लिक प्रौविडैंड फंड जैसी बचत योजना में ऐसा कोई टैक्स नहीं लगता है . यही कठिनाईयाँ इस योजना में अडंगा  डाल रही है. इसी कारणवश 1  मई 2009  से पूरे देश में जोरशोर से लागू की गयी पेंशन योजना का लाभ उठाने के लिए 15  मई 2009  तक केवल 100  लोग ही आ पाए.

        कुल मिलाकर देखा जाए तो अब तक देश की कोई भी सरकार असंगठित क्षेत्रों के श्रमिकों और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा के लिए कोई कारगर योजना नहीं ला पाई है. सभी योजनाओं में कोई न कोई वर्ग किसी न किसी कारणवश पीछे छूट  गया है . जब भी कोई योजना सामने आती  है तो वह काफी उपयोगी लगती है , परन्तु उसके क्रियान्वयन में व्यावहारिक कठिनाईयाँ होती है , जिसके कारण वह योजना प्रारंभ से ही अनुपयोगी साबित हो जाती है . अतः यह आवश्यक है की सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं को सफल बनाने के लिए बहुआयामी नीति बनाकर उसे आधार जैसे प्रोजेक्ट के साथ जोड़ दिया जाए, ताकि मंदी के दौर में चिंताग्रस्त श्रमिक वर्ग कुछ रहत महसूस कर सके. यूपीए  सरकार  सामाजिक सुरक्षा से सम्बंधित तमाम पिछली योजनाओं एवं विधेयकों की समीक्षा कर नई स्थिति एवं परिस्थिति के मद्देनजर जनोपयोगी योजना बनाए ताकि समाज के अंतिम पायदान के व्यक्ति को भी सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सके . प्रधानमंत्री को योजनाओं की त्रुटियों को परखकर उन त्रुटियों को दूर करने एवं मॉनीटरिंग के वास्ते नए तंत्र बनाने की परम आवश्यकता है.

**GOPAL PRASAD ( RTI Activist)


*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC
 

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