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बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में आ$िखरकार जेल चले ही गए। लालू यादव को पांच सालों के कारावास की सज़ा सुनाई गई है तथा पच्चीस लाख रुपये का जुर्माना भरने का आदेश भी अदालत द्वारा दिया गया है। लालू यादव भारतीय राजनीति में एक अलग ही कस्म के राजनेता के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे हैं। सांप्रदायिक शक्तियों को मुखरित होकर ललकारना यहां तक कि भाजपा के सबसे कद्दावर नेता लाल कृष्ण अडवाणी की विवादित रथ यात्रा को बाधित कर उन्हें गिरफ्तार करने जैसा साहसी कदम उठाने में भी वे कभी नहीं हिचकिचाए। सांप्रदायिक ता$कतों के इसी मुखर विरोध ने उन्हें केवल बिहार में ही नहीं बल्कि पूरे देश में अल्पसंख्यकों के आदर्श नेता के रूप में स्थापित कर दिया था। उनके मु$काबले में भारत का एक भी मुस्लिम नेता आज के दौर में ऐसा नहीं है जिसकी मुस्लिम समुदाय में लालू यादव से अधिक मज़बूत पकड़ हो। सवाल यह है कि क्या धर्मनिरपेक्षता के प्रहरी दिखाई देने वाले किसी नेता पर यह शोभा देता है कि वह इस प्रकार के घोटालों में संलिप्त पाया जाए? लालू यादव के शासनकाल में भ्रष्टाचार के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की आपराधिक गतिविधियां राज्य में अपने चरम पर थीं। सरकारी विभागों में फैले भ्रष्टाचार से लेकर गुंडों,बदमाशों,अराजक तत्वों आदि सभी के हौसले बुलंद थे। यदि यह कहा जाए कि लालू राज जंगल राज जैसा था तो यह कहना $गलत नहीं होगा। पंरतु यह सब कुछ केवल लालू यादव के धर्मनिरपेक्षता के प्रहरी दिखाई देने के नाम पर ही हो रहा था। गोया धर्मनिरपेक्षता का कथित अलमबरदार देश को दीमक की तरह चाट रहा था।
लालू यादव को बिहार के चारा घोटाले में मिली सज़ा के साथ ही एक और पूर्व केंद्रीय मंत्री रशीद मसूद को भी भ्रष्टाचार के आरोपों में 4 साल की सज़ा सुनाई गई है। यह सज्जन भी देखने व सुनने में निहायत शरी$फ,योग्य,शिक्षित,बुद्धिजीवी तथा कुशल राजनीतिज्ञ प्रतीत होते हैं। इनका नाता भी कांग्रेस पार्टी तथा विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा गठित जनता दल जैसे धर्मनिरपेक्ष दलों से रहा है। आज धर्मनिरपेक्षता के यह झंडाबरदार भी जेल की हवा खा रहे हैं। रशीद मसूद को अपने सर पर गांधी टोपी पहने हुए आमतौर पर देखा जाता था। यूपीए का वर्तमान शासनकाल भी स्वतंत्र भारत के इतिहास में अब तक का सबसे भ्रष्ट शासनकाल माना जा रहा है। राष्ट्रमंडल खेल घोटाला,बहुचर्चित 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला खान आबंटन घोटाला तथा आदर्श सोसायटी जैसे कई घोटाले इस धर्मनिरपेक्षता की प्रहरी बनी बैठी यूपीए के शासन में होते देखे गए हैं। कांग्रेस पार्टी अथवा यूपीए में उसके समर्थक दल आमतौर पर सांप्रदायिक ता$कतों को रोकने के नाम पर सत्ता में आते हैं। क्या देश की जनता इन धर्मनिरपेक्षतावादियों के भ्रष्टाचार पूर्ण आचरण को केवल इसलिए नज़रअंदाज़ कर दे क्योंकि यह धर्मनिरपेक्षता के प्रहरी हैं? देश में बढ़ती सांप्रदायिक शक्तियों को रोक पाने में यह धर्मनिरपेक्षतावादी अपनी प्रमुख भूमिका निभाते हैं? क्या इनका भ्रष्टाचार में संलिप्त होना क्षमा करने या नज़रअंदाज़ करने योग्य अपराध है? क्या भ्रष्टाचार भारत जैसे $गरीब देश को दीमक की तरह नहीं निगल रहा?
सवाल यह है कि यदि देश की जनता भ्रष्टाचार से देश को बचाने के लिए धर्मनिरपेक्षतावादियों के बजाए दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी शक्तियों को सत्ता सौंपे तो क्या देश सुरक्षित व भ्रष्टाचार मुक्त रहेगा? क्या दक्षिणपंथी विचारधारा वाले दल भ्रष्टाचार मुक्त हैं? यदि इस विचारधारा के राजनीतिज्ञों व राजनैतिक दल पर दृष्टिपात करें तो स्थिति और भी भयावह दिखाई देती है। यहां तो इनके राजनैतिक एजेंडे के अनुसार दो धर्मों के मध्य $फासला बढ़ाने का योजनाबद्ध कार्यक्रम तो है ही, साथ-साथ भ्रष्टाचार के विषय पर भी इस दल के तमाम धनलोभी नेता भ्रष्टाचार में भी धर्मनिरपेक्षतावादी भ्रष्ट नेताओं से कई $कदम आगे हैं। उदाहरण के तौर पर यदि लालू यादव किसी राजनैतिक दल के मुखिया के रूप में जेल भेजे जाने वाले धर्मनिरपेक्षतावादी नेता हैं तो बंगारू लक्ष्मण के रूप में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष भ्रष्टाचार के आरोप में एक दशक पहले ही जेल जाकर अपना राजनैतिक कैरियर गंवा चुके हैं। लालू यादव यदि मुख्यमंत्री के रूप में पहले धर्मनिरपेक्ष भ्रष्ट मुख्यमंत्री हैं तो इससे पूर्व उत्तराखंड तथा कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्रियों पर भी भ्रष्टाचार के छींटे पड़ चुके हैें। गुजरात,मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में भी भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर हुए हैं जिसमें राज्य के मंत्रियों व विधायकों तथा सांसदों को सम्मिलित देखा जा रहा है। गुजरात के एक भाजपा सांसद ने तो अपने भ्रष्ट कारनामों पर पर्दा डालने के लिए एक आरटीआई कार्यकर्ता अमित जेठवा की हत्या तक करवा दी।
यहां $गौरतलब है कि दक्षिणपंथी दल भाजपा अपने अस्तित्व में आने के समय से ही इस बात का दावा करती रही है कि उसका दल अन्य राजनैतिक दलों से अलग सोच रखने वाला दल है। इनका नारा है कि ‘पार्टी विद डि$फरेंस’ यानी हम औरों से अलग दल हैं। स्वयं को भाजपाई नेता अत्यंत अनुशासित,संस्कारित और तो और देश का सबसे महान शुभचिंतक,रखवाला व राष्ट्रभक्त न जाने क्या-क्या बताते रहते हैं। पंरतु इसी संस्कारित व तथाकथित राष्ट्रवादी पार्टी के कई नेता कभी भ्रष्टाचार में संलिप्त पाए जाते हैं तो कभी आपराधिक गतिविधियों में सक्रिय नज़र आते हैं, कभी बलात्कार, व्याभिचार यहां तक कि सदन में बैठकर ब्लू $िफल्में देखने जैसे अपने ‘संस्कार’ प्रदर्शित करते दिखाई देतेे हैं। कर्नाटक का सबसे बड़ा खनन मा$िफया रेड्डी बंधु इन्हीं भाजपाईयों से संबंधित है। पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के सांसद पुत्र अनुराग ठाकुर व उसके एक भाई के विरुद्ध सतर्कता एवं भ्रष्टाचार निरोधक विभाग ने प्राथमिक रिपोर्ट दर्ज कराई है। एक ज़मीन हड़पने से संबंधित यह विवाद बताया जा रहा है। संसद में प्रश्र पूछने के बदले में रुपये लेने के आरोप में कई भाजपा सांसद व तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों के सांसद भी बेन$काब हो चुके हैं। गोया स्वयं को अनुशासित,सा$फ-सुथरी व सांस्कृतिक राष्ट्रवादी पार्टी बताने वाला यह संगठन भी भ्रष्टाचार, घोटालों तथा मायामोह से मुक्त नहीं है।
ऐसे में सवाल यह है कि भारतीय नागरिक व मतदाता आ$िखर करे तो क्या करे? धर्मनिरपेक्षतावादियों व सांप्रदायिकतावादियों के मध्य किस का चुनाव करे? क्योंकि पूरी तरह से भ्रष्टाचार मुक्त नेता तो किसी भी दल में दिखाई नहीं देते। ऐसे में भारतीय मतदाताओं के पास देश को भ्रष्टाचार से बचाने का विकल्प आ$िखर है क्या? क्या मायावती तो क्या मुलायमसिंह यादव सभी आय से अधिक संपत्ति के मामले में जांच एजेंसियों के ‘रडार’ पर आ चुके हैं। ऐसे में ले-देकर एक ही विचारधारा देश में ऐसी है जो तुल्रात्मक दृष्टि से भ्रष्टाचार में कम डूबी नज़र आती है। और वह कम्युनिज़म। इस विचारधारा के राजनीतिज्ञ भ्रष्टाचार को लेकर बजाए परस्पर ‘पूल’ बनाकर सामूहिक लूटपाट मचाने के यह लोग अपनी ही पार्टी के नेताओं,मंत्रियों व पदाधिकारियों पर पूरी नज़र रखते हैं। अन्य राजनैतिक दलों की तरह कम्युनिस्ट विचारधारा रखने वाले राजनैतिक दलों के दरवाज़े नेताओं व कार्यकर्ताओं के सार्वजनिक प्रवेश के लिए यंू ही नहीं खुले रहते। श्रम व कर्मप्रधान यह राजनैतिक दल धर्मांधता,अंधविश्वास,धर्मोन्माद तथा संप्रदाय व जाति आधारित समीकरणों अथवा इस प्रकार की गणित बिछाने से दूर रहते हैं। पंरतु हमारा धर्म भीरू समाज इनके इसी आचरण को धर्मविरोधी आचरण समझता है। और इसीलिए भारतीय समाज इस विचारधारा को पूरी तरह पचा नहीं पाता। जबकि इन की सादगी,इनका रहन-सहन, सोच-विचार सब कुछ राष्ट्र हितैषी दिखाई पड़ते हैं।
लिहाज़ा यथाशीघ्र संभव हमारे देश के जागरूक मतदाताओं को देश्हित के मद्देनज़र इस बात का $फैसला तो लेना ही पड़ेगा कि भारतीय समाज आ$िखर देश की बागडोर कैसे लोगों के हाथों में सौंपे। धर्मनिरपेक्षता, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुस्लिम आदि के पक्षधर दिखाई देने का पाखंड रचकर देश को लूटने व बेचने वालों के हाथों में या फिर उन फक्कड़ राजनीतिज्ञों के हाथों में जो धर्म व जाति तथा अंधविश्वास से ऊपर उठकर राष्ट्र के विकास के लिए रचनात्मक सोच रखते हों। जब तक देश का मतदाता इस विषय पर सामूहिक रूप से एक स्वर में निर्णय नहीं लेता तब तक हमारा देश सांप्रदायिकता व भ्रष्टाचार के मध्य यूं ही झूलता रहेगा।
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कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.
Nirmal Rani (Writer )
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