संजय कुमार शांडिल्य की कविताएँ
1.घर एक तंबु है तो जॉर्डन एक नदी नहीं है
चाय उबलती केतली खबर है
हमारा खत्म होना नहीं ।
एक-एक कर खत्म हुए हम
न जाने किस घेरेबन्दी में ।
जॉर्डन बह रही है इजरायल में
फिलिस्तीन में
सिरिया में ।
और कहीं भी जहाँ लोग
तंबुओं को घर कह रहे हैं ।
अमेरिका में भी घर नहीं बचे
दादियों और नानियों के बीच
बच्चे सिर्फ स्कूलों में हैं ।
तेजी से बहती हुई जॉर्डन
पार कर रही है सदियाँ ।
मृत्यु विलाप नहीं है
और मातम से बची जगहें नहीं है
वस्तुओं को जीवित इच्छाओं में
फिर से बदलने वाली नींद
तंबुओं में नहीं आती हैं ।
मृत टीलों में बदल जाएंगी
दुनिया की सब आबाद जगहें
तुम मनुष्य नहीं बचोगे
कोई चले जाने से पहले
नहीं लिख पाएगा अंतिम खत ।
इतनी उदास कभी नहीं थी जॉर्डन
बकरियों और भेड़ों के लिए
हरियाली और जीवन के लिए पानी
हजारों साल हुए बहते
इसे नदी होते भी हजारों साल हुए
पृथ्वी पर ।
किनारों पर बस्तियां थी तो
लोग उसे नाम से पुकारते दिनभर
अँधेरा घिरता सिर्फ एक वक्त के लिए
बकरियां, मेमने और लोग
लौट रहे होते उसके किनारों से
लौटते लोगों में जब तक रहने का घर था
कहीं दूर जॉर्डन एक बहती हुई नदी थी ।
2.मैं इन उदास शामों में रहता हूँ
ये दुनिया एक विशाल पहाड़ है
हिमालय और आल्प्स से भी विशाल
आटाकामा और एंडिज से भी
विस्तृत और गंभीर
मेरा गाँव इसके किसी पेङ के पत्ते की
एक संझाती छाया है
मेरे चंद दोस्त जैसे जङें हैं
जिनमें मिट्टी सा पेसा है
मेरे दोपहर की ऊबें
दुखों की घाटियाँ हैं
जैसे मेरे गाँव का सिवान ।
यह साँझ अपने उजाले में खरीदा हुआ है
तुम टेक्सस में इसे कैसे समझोगे
एक विशाल नदी जैसे घर में
अकेली और तनहा
कैसाब्लांका में लिस्बन में
दुख क्या वैसी ही घाटियाँ हैं
जैसी मेरे गाँव में है ।
मैं जिस काई के रंग की शाम में रहता हूँ
इस पहाड़ सी दुनिया में
क्या अकेली ऐसी शाम गिरती है
दोपहर की आवाज़ और भीड़ से टूटकर ।
3.सदियों हुए प्यार किए
सदियों से प्यार को राख करती ज्वालामुखी फूटती है सुबह-शाम
ये रोटियां जो मेरी थाली में हैं ये सदियों पहले
की पकी रोटियां हैं
मेरा विश्वास करो इसे पोम्पेइ में बनाया था
किसी औरत ने जो अपने मर्द से प्यार करतीं थी
अभी रोटियाँ सिंकी ही थी चूल्हे पर
कि ज्वालामुखी उस थाली को पिघला गई
जिसमें वह रोटियाँ परोसती और
अपना प्यार ।
भूख की जली हुई देह का श्राप टहल आता है
हजारों किलोमीटर
प्यार जो जल गई ज्वालामुखी में
उसकी राख आज भी गिरती है इस चाँदनी रात में ।
चूल्हे से सुबह-शाम फूटती है ज्वालामुखियाँ
खत्म हो गया प्यार का आबाद शहर
चूल्हे के राख में लिपटी हुई तुम्हारी देह
मेरी भी और एक बरबाद हुई सभ्यता ।
मैं एक पत्थर हुआ गीत हूँ सदियों से
तुम्हारे पत्थर हुए होठों में फँसा हुआ ।
सदियों से एक सभ्यता की जली हुई लाश है
चाँद की रौशनी में यह शहर मॄत और भस्म ।
मैं तुम्हें और तुम मुझे
बिना प्रेम किए जीवित हैं हम सदियों से ।
4. हङप्पा की स्त्रियाँ
उसकी ऊँगली की पोर से सटकर
मुद्रिका ने कहा
फिके पङे हैं समय के मूल्य ।
उसने अपने जूङे में
पेसती नमी से महसूस किया
सूख रही थी नदी ।
उसने सबसे पहले सुना
बिझे हुए वन की लकङियों में
दीमकों की आवाजें
चूल्हे पर सीझ रहा था भात ।
मुद्रिका में, नदी में, वनों की लकङियों में
नष्ट हो रहा था हङप्पा
वह जानती थी नष्ट हो रहे थे हम
वह हमें आगाह करती हुई खत्म हुई ।
5. विकल्प
मुझे लिख रही है एक डरी हुई कविता
जो महाजन के क्रुर पंजियों सी गिर रही है ।
मैं एक मनुष्य हूँ कविता के हाथों
लिखे जाने से इन्कार करता हुआ मनुष्य
जैसे इस समय में कविता होने से
इन्कार करती हुई कविता
वेद होने से इन्कार करता हुआ वेद ।
जैसे मुझमें एक प्रधानमंत्री हो
प्रधानमंत्री होने से इन्कार करता हुआ ।
पत्तियों को खा रहा है सूरज
समय के इस उल्टे संश्लेषण में
और एक कविता आमादा है
कि वह एक मनुष्य लिखेगी
वैसा मनुष्य जैसा वह देखेगी ।
अध्यापक होने से इन्कार करता
हुआ अध्यापक
दलाल होने से इन्कार करता हुआ दलाल
वकील होने से इन्कार करता हुआ वकील
कवि होने से इन्कार करता हुआ कवि ।
कविता मनुष्य को लिखेगी
जूते के घिसे हुए तले सा लिखेगी
बचे रहने का संघर्ष करते पेङ सा नहीं लिखेगी ।
कविता लिखेगी मनुष्य को एक फटे हुए
कलेजे वाला मनुष्य
जिसमें चलनी सा झरता है
ईर्ष्या और प्यार और उसकी मनुष्यता भी ।
कविता लिखेगी कि मनुष्यों से बेहतर तो
कलेजे हैं मछलियों के ।
सुग्गे की जुबान वाले भी जो मनुष्य हैं
जिन्होंने मुझसे पहले लिखी कविताएँ
उन कविताओं में शब्द एक मॄत्यु है
कोई पढता नहीं, कोई सुनता नहीं
सुग्गे के मुँह से मॄत्यु गिर रही है तारीखों पर
कविताएँ इन्कार कर रही हैं कविता होने से ।
प्रस्तुति :
नित्यानन्द गायेन
Assitant Editor
International News and Views Corporation
संपर्क –
संजय कुमार शांडिल्य
सहायक अध्यापक
सैनिक स्कूल गोपालगंज
पत्रालय-हथुआ जिला-गोपालगंज , बिहार – 841436
Mob-9431453709
——————————
————————————
————————————
Dear Sanjay Sir,
Congratulations on publication of your book Áwaz Bhi Deh Hai’. I have read some of the poem written by you on website. Your poems are thought provoking and sensible. Keep it up. Sainik Schools fraternity is proud of you. Good luck for your future endeavours.
Sir, I am a cadet of ssgj. आप की कविताएँ बहुत ही मार्मिक हैं। हालांकि आधी तो समझ में भी नहीं आती हैं। but u are a champion of Champions.
Good write-up. I absolutely love this site. Thanks!
संजय कुमार शांडिल्य जी आपको आज पहलीबार पढ़ा हैं …पर लगता हैं अब आपकी हर कविता पढ़नी होगी !
आपकी पहली कविता सच में दुनिया की पहली सौ सबसे बढिया कविताओं में से एक हो सकती हैं इस में कोई दो राय नहीं हैं ! बधाई आपके साथ साथ उन सबको भी जिन्होंने आपकी कविताओं को आप पाठक तक पहुचाया !
शानदार कविताए पर पहली कविता ….दुनिया पहली सौ कविताओं में से एक हैं ! बधाई
My brother recommended I might like this blog. He was totally right. This post truly made my day. You can not imagine just how much time I had spent for this news portal! Thanks!
छुट्टी के दिन कुछ अच्छी और शानदार कविताए पढ़ने अगर मिल जाए तो पूरा दिन बढिया गुजरता हैं !!
संजय कुमार शांडिल्य जी आपका शुक्रिया मेरा दिन बढिया करने के लियें !
You need to be a part of a contest for one of the most useful news and views websites on the net. I most certainly will highly recommend this news portal!
I enjoy, result in I found exactly what I was taking a look for. You’ve ended my four day lengthy hunt! God Bless you man. Have a nice day. Bye
I got what you intend, appreciate it for posting .Woh I am lucky to locate this site by means of google.
This is really interesting,
Excellent post. I will be going through a few of these issues as well..
I visited lots of site but I conceive this 1 holds something extra in it in it
सभी कविताए एक से बढकर एक हैं पर … हङप्पा की स्त्रियाँ..बहुत कुछ ऐसा कह जाती हैं जिस पर दिमाग़ ब्लैक होल में चला जाता हैं !बधाई
विकल्प….का कोई विकल्प नहीं हैं …बहुत उम्दा कविता !
संजय कुमार शांडिल्य जी आपको ऐसी कविता लिखने पर पाठको तक पहुचाने के लियें नित्यानन्द जी और आई एन वी सी ग्रुप को बहुत बहुत बधाई
घर एक तंबु है…..इस कविता ने सभी आलोचकों को कुछ कह देने पर मजबूर कर देना हैं ! बाकी कविताए बहुत ही बढिया हैं ! शानदार !!