कई क्षेत्रों में बडी असफलता राज्य सरकार की उदासीनता बयां कर रही है। मुख्यमत्री यह भूल गये कि आंखें मूंदने से वास्तविकता को झुठलाया नहीं जा सकता, वही मजबूत इच्छाशक्ति की कमी ने सूबे को विकास की ओर एक कदम भी नही बढने दिया, सूबे में ऐसा वातावरण ही नही बन पाया है, जिसमें विकास और आम आदमी के कल्याण की चिंता की जा रही है, सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग के महानिदेशक व एमडीडीए देदून के वीसी का कहना है कि वह कार्पोरेट की तरह विभाग को चलायेगे। इसका साफ मतलब है कि कल्याणकारी राज्यो की भावना ही समाप्तं कर दी गयी है, जिससे आम जनता कांग्रेस से दूर होती जा रही है, और विजय बहुगुणा की साख तेजी से गिरती जा रही है और वह आम जनता का विश्वातस खो चुके हैं, इस बात को कांग्रेस के युवराज राहुल गॉधी ने महसूस कर परिवर्तन की तैयारी की, ज्ञात हो कि 1 करोड़ लोगों के इस प्रदेश में आधे से ज्यादा लोग अपने बूते परिवार के लिए दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाते। कल्याणकारी राज्य के नाते सरकार गरीबी की अपनी परिभाषा के अनुसार उन्हें सस्ता अनाज, इंदिरा आवास, मुफ्त शिक्षा, उपलब्ध कराती है, पर राज्य में ऐसा नही किया गया, राज्य में विकास की दर तेज नही है, सरकार कल्याणकारी योजनाएं भी लागू नही कर पायी है वही हर योजना में भ्रष्टाचार -घपले और लूट सारी नेकनीयती पर पानी फेरते हैं। गरीबी, भूख व बच्चों में कुपोषण के मामले में यह राज्य देश में अव्वल है। कई योजनाओं को लागू करने में राज्य पिछड़ा है। मुख्यमंत्री का जनता दरबार तथा ग्राम प्रधानों से फोन से बात करने की घोषणा क्यार आपको याद है, कहां खो गये विजय बहुगुणा के यह वायदे, जनता में यह चर्चा रहती है, विकास और यहां की सुविधाओं की सुनहरी तस्वीर दिखाने वाले मुख्य मंत्री इन सबमे असफल साबित हुए, महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा को लेकर दिए गए आंकड़े चिंताजनक है, अनियोजित विकास, दूरगामी योजना की कमी रही वही ज्यादा से ज्यादा लोगों के लिए बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना सरकार का काम होता है, बिजली, पानी और सड़क जैसी सुविधाएं देने के लि बेशक सरकार लंबे-चौड़े दावे कर रही है लेकिन राज्य के दूरदराज ग्रामीण क्षेत्रों में मूलभूत ढांचे का अभाव एक बड़ी समस्या है। महिला तथा बालिका कल्याण के लिए कोई भी कार्य धरातल पर नहीं हो पाया, सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों को विशेष तरजीह नही दे पायी बहुगुणा सरकार, सिडकुल में जमीन बेचने के कारोबार में सिमटी राज्यघ सरकार, वही शिक्षा के क्षेत्र में उत्तुराखण्डस की तस्वीर निस्संदेह दिनोंदिन चिंताजनक होती जा रही है। एक तरफ जहां देश भर में शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) लागू हुआ हो गया है वही सूबे के स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं ही नही हैं,www.himalayauk.org (UK Leading Newsportal)
सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के अनुसार मुख्य मंत्री का मीडिया मैनेजमेन्टह असफल तब मान लेना चाहिए था जब नैशनल मीडिया में मुख्युमंत्री विजय बहुगुणा की उबासी लेती हुए तस्वीेर तथा बडी बडी हैडिंग में कहा गया कि मुख्यडमंत्री ने मुजफफरनगर दंगे का असर राज्यट में न पडने पर अपनी थपथपाई पीठ, नैशनल मीडिया पर यह मुख्यबमंत्री के सूचना एवं लोक सम्पैक विभाग की नाकामी थी कि करोडो रूपये के विज्ञापन बांटने वाले अधिकारी सीएम की मखौल बनवा रहे हैं, वही अल्पनसंख्यरक हितों की बात करके अपनी पीठ तो जरूर थपथपाई परन्तुह राज्यल सरकार को यह नही पता कि राज्यत में 25 फीसद आबादी वाले अल्पसंख्यक गांव कौन-कौन से हैं और उनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी बुनियादी जरूरतों की क्या स्थिति है और उनकी सुरक्षा के क्याऔ क्या् उपाय किये गये, क्याप अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में बुनियादी सुविधाओं के बाबत किया गया, उत्तयराखण्डे की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था गंभीर चिंता का विषय, मातृ-शिशु कल्याण केंद्रों की बदहाली चिंताजनक, डेंगू का कहर बढ़ता ही जा रहा है और इस पर अंकुश लगा पाना दूर रोकथाम के लिए प्रभावी कोशिश तक नहीं कर पा रहा।
सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के अनुसार उत्तराखण्ड में आपदा के तीन माह बाद भी सरकार एक कदम भी आगे नहीं बढ सकी है, लीडिंग समाचार पत्रों का कहना है कि 100 दिन बाद भी 100 कदम नही बढ पाये मुख्यहमंत्री विजय बहुगुणा-जबकि देश विदेश में अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए 100 दिन में करीबन 75 करोड से ज्यागदा के विज्ञापन लुटा दिये गये- 16 जून को केदार घाटी सहित अन्य क्षेत्रों में आई आपदा के बाद चारों धाम व हेमकुंड साहिब की यात्रा ठप हो गई थी। तीन माह तक यात्रा बंद होने से सिर्फ परिवहन ही नहीं बल्कि यात्रा से जुड़ा सामान्य व्यापार भी प्रभावित हुआ। केदारनाथ, हेमकुंड यात्रा, गंगोत्री यात्रा सिर्फ शुरू करा पायी बाकी कुछ नही। उत्तराखंड परिवहन महासंघ ने राज्य सरकार से परिवहन व्यवसाय को आपदाग्रस्त घोषित करने के साथ सभी वाहन स्वामियों, चालक परिचालकों को मुआवजा देने की मांग की है, इन्हेंस कुछ भी मुआवजा नही मिला।
सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के अनुसार विभिन्न गैर सरकारी संगठनों ने दैवीय आपदा के दौरान राहत कार्यो समेत पुनर्वास व पुनर्निर्माण की मुहिम में व्यवस्थागत खामियों के प्रति चिंता जताई। आपदा के अनुभव बांटने व भविष्य की दिशा तय करने को आयोजित कार्यशाला में वक्ताओं ने राहत कार्यो व पुनर्निर्माण की मुहिम में एनजीओ सेक्टर के बड़े संसाधन का सदुपयोग किए जाने की वकालत की। साथ ही, इसके लिए व्यवस्थागत कमियां दूर करने के सुझाव भी सरकार को दिए। पुलिस अधीक्षक, आपदा नियंत्रण केंद्र आनंद नीलेश भरणै ने माना कि उत्तराखंड में आई इस बड़ी आपदा से निपटने के लिए पुलिस बल पूरी तरह तैयार नहीं था। द हिमालयन डेस्क के संस्थापक सिरिल रैफियल ने जनसमुदाय को कागजी योजनाओं से बरगलाने की सरकारी प्रवृति पर प्रहार किया। उन्होंने कहा कि आम जनमानस को अब यह कड़वा सच बताने का वक्त आ गया है कि उन्हें सरकारी मदद की राह ताकने की बजाय खुद अपने बूते ही हर परिस्थिति से निपटना होगा।
सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के अनुसार हाल में विधानसभा सत्र में आपदा पर गंभीर मंथन के बाद यह साफ हुआ कि दैवीय आपदा प्रदेश के लिए तकरीबन हर साल की समस्या बन गई है। इस वर्ष बीते जून माह में जल प्रलय के रूप में बरसी आसमानी आफत से भारी जन हानि तो हुई ही, प्रदेश की अर्थ व्यवस्था को भी बड़ी चोट पहुंची है। ऐसे में यह उम्मीद बेमायने नहीं है कि आपदा से जूझ रहे राज्य की चुनौती पर गंभीर चर्चा हो और उसके बाद मंथन से ऐसा कुछ ठोस निकलकर सामने आए, जिससे भविष्य में आपदा से निपटने में मदद मिले। पिछले कई वर्षो से बार-बार आ रही आपदा के बाद आपदा प्रबंधन तंत्र की पोल तो खुल रही है, लेकिन तंत्र सबक लेने की कोशिश करता नहीं दिख रहा। आपदा की तबाही से निपटने के लिए सरकार की किसी से छिपी नहीं है। राहत कार्यो में देरी होने के साथ ही विभिन्न स्तरों पर खामियां रहने से आपदा प्रभावित लोगों की मुसीबतें खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं। आपदा में छत गंवाने वाले लोगों के पुनर्वास और उन्हें आवास मुहैया कराने को लेकर तैयारी ढीली हैं। सर्दी का मौसम दस्तक देने को है। पुनर्निर्माण का कार्य युद्धस्तर पर करने की आवश्यकता है। साथ में आपदा के लिहाज से खतरे के मुहाने पर खड़े गांवों के पुनर्वास के मसले पर भी कार्ययोजना तैयार नहीं की जा सकी है। आपदा से तबाह प्रदेश की आर्थिकी को अपने पांव पर खड़ा किस तरह करना है, यह सवाल अब तक अनुत्तरित ही है।
सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के अनुसार उत्तराखण्ड में आई आपदा को तीन माह गुजरने के बावजूद हालात का पटरी पर न आना चिंताजनक है। केदारघाटी के हालात पर ही नजर डालें तो सरकार ने यहां पूजा तो शुरू करा दी लेकिन चूल्हा जलाने के साधन अब तक नहीं हैं। हेलीकाप्टर गैस सिलेंडर ले जाने को तैयार नहीं है और खतरनाक पैदल मार्ग से सिलेंडर ले जाना बहुत ही मुश्किल। आपदा के बाद से अभी भी 150 से अधिक गांव मुख्य मार्गो से नहीं जुड़ पाए हैं। जहां अस्थायी तौर पर सड़के ठीक की गई हैं उनमें वाहन चलाना खतरे से खाली नहीं। व्यवस्था कब तक पटरी पर आएगी, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। अभी तक जो भी राहत कार्य हुए हैं उनकी रफ्तार बहुत सुस्त है। सरकार की मजबूत इच्छाशक्ति का अभाव सामने आया जिससे जनता के मन में सरकार के प्रति विश्वास बहाल नही हो पाया है।
सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के अनुसार दैवीय आपदा से हुई तबाही के लगभग तीन महीने बाद केदारनाथ धाम में पूजा शुरू करवाने को ही राज्य सरकार अपनी बडी उपलब्धिम समझती रही है, इस धार्मिक यात्रा को सुगम, सुरक्षित व आपदारहित बनाने की बड़ी चुनौती से निपटना अभी बाकी है। उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्थित पौराणिक धाम में अनियोजित विकास से कुदरत ने जिस तरह अपना रौद्र रूप दिखाया, उससे सबक लेते हुए केदारनाथ धाम के पुनर्निर्माण की योजना भी वैज्ञानिक आधार पर बनाने की दिशा में कदम नही बढाये जा सके। आपदा के इस सैलाब में तबाह हुए केदारघाटी व निकटवर्ती गांवों के पुनर्वास व पुनर्निर्माण की राह में भी चुनौतियों के पहाड़ खड़े हैं। खासतौर पर आपदाग्रस्त गांवों में बिजली, पानी, छत, रोटी व चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएं फिर से तत्काल बहाल नही किये जा सके है। सरकारी तंत्र की लापरवाही से केदारनाथ में पूजा प्रारंभ कराने के पीछे सरकार की मंशा पर सवाल खड़े हो रहे हैं। आपदाग्रस्त पहाड़ में जिंदगी को जल्द पटरी पर लाने के लिए पहाड़ की लाइफ लाइन कहे जाने वाली सड़कों, पुलों व संपर्क मार्गो को तत्काल दुरुस्त करने की ओर कोई कदम ही नही उठाये गये।
सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के अनुसार उत्तराखंड में दैवीय आपदा में तबाह हो चुके या फिर खतरे के मुहाने पर आए गांवों व कस्बों का पुनर्वास ही सबसे बड़ी चुनौती है। 250 गांवों को सुरक्षित स्थानों पर विस्थापित करने की चुनौती है। कुदरत का कहर झेल चुके गांवों के लिए 3 माह में भी कोई ठोस कदम नही उठाये गये। पुनर्वास की इस दीर्घकालिक मुहिम के प्रथम चरण में 100 गांवों को प्राथमिकता के आधार पर चयनित किया जाना है। इस भीषण त्रासदी को झेलने के बाद भी यदि तंत्र ने कोई सबक नहीं लिया और अपनी कार्यप्रणाली व लापरवाह रवैये में बदलाव नहीं किया, जिससे भविष्य में भी घातक परिणाम आते रहेगे।
सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के अनुसार राज्य में भीषण दैवीय आपदा के ढाई महीने बाद सरकार ने आपदा में सर्वाधिक प्रभावित केदारनाथ धाम में विधिवत पूजा तो शुरू करवा दी लेकिन पैदल यात्रा पर रोक से साफ है कि यात्रा अभी सुरक्षित नही है, केदारनाथ तक पैदल यात्रा मार्ग बनाना भी आसान नहीं है। अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आपदा के दौरान ध्वस्त हुए मार्गो में से 320 मार्ग तो अभी तक खोले भी नहीं जा सके हैं। स्थानीय लोगों में तो रोष है तथा राज्य सरकार की साख पर भी भरोसा नही रह गया है। सरकार पूरे केदारघाटी क्षेत्र का पुनर्निर्माण आरंभ करने की पहल ही नही कर सकी है
आपदाओं से प्रभावित लोगों को सरकारी सहायता नहीं मिल पा रही है और यदि किसी तरह सहायता मिल भी जाए तो वह इतनी अपर्याप्त होती है कि पीड़ित लोगों को सहायता का अहसास ही नहीं होता। कभी-कभी तो ऐसा भी देखने को मिलता है कि आपदा से प्रभावित लोगों को सहायता प्राप्त करने में अर्सा बीत जाता है। चेक बाउंस होने के समाचार ने राज्यो सरकार की साख पर सवाल खडे हो गये
वही दूसरी ओर महंगाई से परेशान आम जनता के लिए यह खबर डराने वाली है कि मुद्रास्फीति दर छह माह के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई है और खाद्य उत्पादों की महंगाई 18 प्रतिशत के पार चली गई है। यदि यही स्थिति बनी रही तो आम जनता की मुसीबतें और अधिक बढ़ना तय है। मौजूदा स्थितियों में वह किसी भी तरह की राहत की उम्मीद बिल्कुल भी नहीं कर सकती, राज्य सरकारें ऐसा कुछ नहीं कर सकीं जिससे प्याज के दाम तक नियंत्रित होते। राज्य सरकार ने महंगाई को रोकने में शुरूआत तक नही की, महंगाई को नियंत्रित करने के लिए न तो तात्कालिक उपाय किए जा रहे हैं और न ही दीर्घकालिक।
कैग की रिपोर्ट में अफसरों की लापरवाही-
सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के अनुसार उत्तराखण्ड राज्य विधानसभा के सत्र में पेश कैग (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षी की रिपोर्ट ने विभिन्न महकमों की कार्यप्रणाली और अनियमितताओं का जो ब्योरा सामने आया है, वह वास्तव में आंखें खोल देने वाला है। बात चाहे केंद्र की महत्वाकांक्षी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना, यानी मनरेगा की हो या फिर केंद्र पोषित राष्ट्रीय कृषि विकास योजना की, हर जगह अफसरों की लापरवाह कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में नजर आती है। समाज कल्याण विभाग और राज्य अवस्थापना एवं औद्योगिक विकास निगम में भी कई बड़ी अनियमितताओं को कैग ने रेखांकित किया है। मनरेगा योजना का हश्र राज्य में यह है कि एक वित्तीय वर्ष में प्रत्येक पंजीकृत ग्रामीण परिवार के एक वयस्क को न्यूनतम सौ दिनों का गारंटी वेतन रोजगार देने के उद्देश्य से कोसों दूर भटक गई। वर्ष 2007 से 2012 की अवधि में राज्य में महज से दो से चार फीसद पंजीकृत परिवारों को 100 दिनों का रोजगार मिल सका। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार ने करोड़ों की धनराशि बीजों के लिए दी मगर किसानों तक ये बीज पहुंचाए गए सात महीने से लेकर डेढ़ साल बाद। यही नहीं, विभाग ने किसानों को उन फसलों के बीज बांट दिए जो योजना में शामिल ही नहीं थे। अफसरों ने किसानों से उन बीजों की कीमत भी वसूल डाली जो उन्हें निशुल्क मिले थे। इसके अलावा उत्तराखंड राज्य अवस्थापना एवं औद्योगिक विकास निगम ने नियमों को दरकिनार कर एक प्राइवेट कंपनी को बगैर लीज डीड के ही आठ हजार वर्गमीटर से ज्यादा लाखों की कीमत के भूखंड का कब्जा दे दिया। आवंटन के छह साल बाद भी न तो आवंटी से अवशेष प्रीमियम वसूला गया और न फैक्ट्री भवन का निर्माण किया गया। नियमों के मुताबिक भूखंड का आवंटन निरस्त न किए जाने से निगम को 3.14 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा। इनके अलावा भी कई अन्य विभागों के आडिट के दौरान सामने आई अनियमितताओं का कैग रिपोर्ट में विस्तृत उल्लेख किया गया है।
सरकार को फिर से गंगा की सुध आई है और उसने गंगा में प्रदूषण रोकने को छोटी योजनाएं बनाने का निश्चय किया है। कहा जा रहा कि इसमें गंगा के किनारे बसे स्थानों पर सीवरेज परियोजनाओं और सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट समेत अन्य योजनाएं क्रियान्वित की जाएंगी।उत्तराखंड में राज्य सरकार ने एक बार फिर गंगा नदी को प्रदूषणमुक्त बनाने की ठानी है और इस कड़ी में 22 स्थानों पर छोटी सीवरेज योजनाएं बनाने की बात कही है। गंगा प्राधिकरण में राष्ट्रीय नदी गंगा की सफाई को करोड़ों रुपए बहाए जा रहे हैं। राज्य सरकार की ओर से ‘स्पर्श गंगा’ अभियान भी अस्तित्व में है। बावजूद इसके गंगा की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। गंगा के किनारे बसे शहर व कसबे तो उसे दूषित कर ही रहे, गांव भी पीछे नहीं हैं। गंगा के उद्गम से लेकर हर की पैड़ी हरिद्वार तक पांच जनपदों के प्रशासन और सिंचाई विभाग की ओर से उपलब्ध जानकारियों पर नजर डालें तो गंगा के किनारे इन जिलों के 171 गांव बसे हैं, जिनमें 71 से ज्यादा गंगाजल को दूषित करने की वजह बन रहे हैं। उत्तरकाशी के सबसे अधिक 40 गांवों का प्रदूषित पानी गंगा में पहुंच रहा है। और तो और बड़े पैमाने पर पॉलीथिन कचरा भी इसी राष्ट्रीय नदी में जा रहा है। यह इससे भी साबित होता है कि अभी तक इस क्षेत्र में सिर्फ 25 गांव ही नाममात्र को पॉलीथिनमुक्त हो पाए हैं। सरकारों ने गंगा को स्वच्छ और निर्मल बनाने के अभियान को गंभीरता से लेने की जहमत नहीं उठाई ।
सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के अनुसार उत्तराखंड में पर्वतीय क्षेत्रों में सड़क तक पहुंचने के लिए आज भी लोगों को मीलों दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। यही नहीं, वहां पैदा होने वाले कृषि उत्पादों यथा माल्टा, सेब, दलहन-तिलहन, सब्जी आदि का उचित मोल भी नहीं मिल पाता। कई मर्तबा तो फल-सब्जियां सड़ तक जाती हैं। इसी को देखते हुए सूबे के पर्वतीय क्षेत्र में रोपवे बनाने पर जोर दिया गया। -किसानी , पर्यटन के लिहाज से भी यह कदम महत्वपूर्ण साबित होता। मगर, चिंताजनक यह कि राज्य बनने के 12 साल बाद भी इस दिशा में हम दो कदम आगे नहीं बढ़ पाए। न तो पर्यटन के लिहाज से रोपवे का निर्माण हुआ, न कृषि उत्पादों को बाजार तक पहुंचाने के मकसद से ही। और तो और देहरादून से मसूरी के लिए प्रस्तावित रोपवे तक फाइलों के मकड़जाल से बाहर नहीं निकल पाया है। जब राजधानी में ही यह हाल है तो दूरस्थ क्षेत्रों की स्थिति का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है।
केंद्र सरकार की ओर से एक योजना के अनुसार देश भर में अल्पसंख्यक बहुल गांवों में बुनियादी जरूरतों की उपलब्धता का सर्वेक्षण किया जाना है। पहले इस योजना के केंद्र में केवल अल्पसंख्यक बहुल जिले थे, अब गांव और कस्बे भी शामिल हो गए हैं। उत्त राखण्डक सरकार को यह नही पता है कि 25 फीसद आबादी वाले अल्पसंख्यक गांव कौन-कौन से हैं और उनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी बुनियादी जरूरतों की क्या स्थिति है।
उत्तराखण्ड में सेहत को लेकर सरकार की सजगता सिर्फ कागजों तक सीमित है। प्रदेश में डेंगू के बढ़ते मामले यह अहसास कराने के लिए काफी हैं। गढ़वाल मंडल से लेकर कुमाऊं तक दिनोंदिन नए-नए मामले सामने आ रहे हैं। ऐसा पहली बार भी नहीं हो रहा, प्रत्येक वर्ष बरसात के बाद ये रोग सिर उठाते हैं, जिसमें कई लोगों को जान से भी हाथ धोना पड़ता है। बावजूद इसके अभी तक इन रोगों से निपटने के पर्याप्त इंतजाम नहीं किए गए। अकेले हरिद्वार जिले में ही डेंगू के 80 से ज्यादा और स्क्रब टाइफस नामक बीमारी के 21 मामले सामने आ चुके हैं। गढ़वाल और कुमाऊं के अन्य शहरों के अस्पतालों की भी है। सवाल उठता है कि आखिर सरकार क्या कर रही है। मंत्री ने स्वयं स्वीकार किया कि इस मसले पर अधिकारियों ने उन्हें अंधेरे में रखा। हैरत यह है कि जब अफसर सरकार को अंधेरे में रख रहे हैं तो आम आदमी की हालत समझी जा सकती है। सब कुछ भगवान भरोसे है। उत्तराखंड बनने के 13 साल बाद भी उसे इलाज के लिए दिल्ली या लखनऊ पर निर्भर रहना पड़ता है। कल्यााणकारी राज्य3 में हर नागरिक स्वस्थ हो, यह सरकार का दायित्व है और इसके लिए समुचित व्यवस्थाएं जुटाना भी उसी की जिम्मेदारी है। स्वस्थ उत्तराखंड की परिकल्पना साकार विजय बहुगुणा के शासनकाल में नही की जा सकती।
उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में शहरी क्षेत्रों के बुनियादी ढांचे की याद ही मुख्ययमंत्री को क्यों नही आई? यह सोच कर आम जन दुखी व निराश है, ग्रामीण और शहरी, दोनों क्षेत्रों में नियोजित ढंग से बुनियादी क्षेत्र के निर्माण की ठोस योजना बनाने में असफल हुए विजय बहुगुणा। रोजगार एवं अन्य बुनियादी सुविधाओं की चाह में ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी संख्या में आबादी शहरों की ओर पलायन कर रही है। वही शहरों का नियोजित विकास प्राथमिकता सूची से बाहर है इसलिए स्थितियां और बिगड़ती चली जा रही हैं। स्थिति इसलिए और अधिक बिगड़ रही है, क्योंकि शहरों में बुनियादी ढांचे का निर्माण मूलत: राज्य सरकारों की जिम्मेदारी होती है और वे इस जिम्मेदारी का निर्वहन करने में मुश्किल से ही दिलचस्पी दिखाती हैं। बहुगुणा सरकार ने जहां एक ओर ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की भी ऐसी कोई योजना नहीं बनायी जिससे गांवों की आबादी का शहरों की ओर पलायन थमे वही दूसरी ओर शहरों का सही ढंग से विकास नहीं किया जा रहा है, राजधानी का नियोजित विकास और बुनियादी ढांचे का निर्माण की प्राथमिकता सूची से ही बाहर ही रखा गया है, जिससे विजय बहुगुणा सरकार शहरी गरीबों को आवास मुहैया कराने में असफल साबित हुई, कागजी खानापूर्ति जरूर ऊंट के मुंह में जीरा वाली स्थिति ही है। गरीबों की भलाई के नाम पर विभिन्न योजनाओं के तहत केंद्र अथवा राज्य सरकारों की ओर से जो आवास उपलब्ध कराए जाते हैं उस ओर तो देहरादून के विकास पाधिकरण ने सोचना तक गंवारा नही किया, राजधानी में गरीब बस्तिम, अन्य अनेक सुविधाओं बिजली, सड़क, पानी सरीखी बुनियादी सुंिवधाओं के अभाव से त्रस्त हैं तथा यातायात संबंधी समस्याओं से भी जूझ रहे हैं। उत्तंराखण्डव की राजधानी देहरादून में शहरी क्षेत्रों के बुनियादी ढांचे की याद ही मुख्यसमंत्री को क्यों आई? यह सोच कर आम जन दुखी व निराश है, ग्रामीण और शहरी, दोनों क्षेत्रों में नियोजित ढंग से बुनियादी क्षेत्र के निर्माण की ठोस योजना बनाने में असफल हुए विजय बहुगुणा।
दूरगामी योजना में भी आम जनता उम्मीद न के बराबर है। जो थोड़े-बहुत बदलाव हुए इससे आम लोगों से ज्यादा निजी बिल्डरों को फायदा पहुंचने के आसार हैं। हद तो यह है कि नियोजित विकास का भी पूरी तरह से ध्यान नहीं रखा गया है।
सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के अनुसार राजधानी देहरादून में बदहाल सडके हादसों को निमंत्रण दे रही है, देहरादून के निकटवर्ती उपनगर चकराता: जौनसार बावर क्षेत्र बदहाल, की लाइफ लाइन समेत अधिकांश बदहाल सड़कों पर की सडकें हादसों को न्योता दे रही है। राजधानी देहरादून की हालत यह है कि जून में आई आपदा में बंद छह मार्गो को तीन माह से ज्यादा समय बीतने के बाद भी नहीं खोला जा सका है। ग्रामीणों ने कुछ मार्गो को खुद श्रमदान कर पैदल चलने लायक बनाया। जौनसार बावर में इस बार की अतिवृष्टि से अधिकांश मार्ग तबाह हो गए। लोनिवि साहिया के अधीन लेल्टा पाटा मंडोली, गास्कीगाड सकरोल, धोइरा देऊ, कोरूवा क्वारना, चकराता लोनिवि अंतर्गत सिलीगाड कुनैन व मेघाटू कुल्हा राईगी मार्ग पिछले तीन माह से बंद हैं। इससे हजारों की आबादी परेशान है। हालत यहां तक खराब है कि क्षेत्र की लाइफ लाइन कही जाने वाली चकराता-कालसी, हरिपुर कोटी इच्छाड़ी, त्यूणी-चकराता, लाखामंडल-चकराता, मसूरी-चकराता, हरिपुर-मिनस, कालसी-बिराटखाई मार्ग पर सफर सुगम नहीं है। जौनसार बावर में वर्तमान में एक भी सड़क ऐसी नहीं है, जिस पर लोग सुरक्षित सफर कर सकें। मलबा पत्थर पड़े होने से हर समय दुर्घटना का डर बना रहता है, कई स्थानों पर सुरक्षा दीवार व पुश्ते धराशायी होने के कारण मार्ग बेहद संकरे हो चुके हैं।
कोटी क्षेत्र के ग्रामीणों का कहना है कि कोटी डिमऊ डांडा, टूगंरा-रिखाड, खारसी, अणू-चिल्हाड़ आदि मोटर मार्ग जगह-जगह से कटकर पगडंडी की तरह संकरे हो गए हैं। उन्होंने डीएम से बंद मार्गो को जल्द खुलवाने की मांग की है।
वही दूसरी ओर राज्यर सरकार ने सूक्ष्म, लघु व मझोले उद्योगों को उपेक्षित कर दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों में रोजगार की अपार संभावनाएं हैं। वही ऐसे उद्योगों के पास दक्ष कर्मियों का अभाव है। वही लघु उद्योगों के विकास की दिशा में एक कदम भी आगे नही बढ़ाया गया है।
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में संगीन अपराधों की फेहरिस्त बढती जा रही है। हत्या, लूट, डकैती की घटनाएं कानून व्यवस्था का मखौल उड़ा रही है और पुलिस वारदातों के बाद लकीर पीट कर असली तस्वीर छिपाने का प्रयास कर रही है। देहरादून और हरिद्वार में शहरवासी सहमे हुए हैं तो एकाकी बुजुर्गो की तो जैसे शामत ही आई हुई है। राजधानी में इस साल हत्या की अभी तक हुई चौबीस वारदातों में दस एकाकी बुजुर्गो की हैं। चोरी, लूट और डकैती की घटनाओं का ऊंचा होता ग्राफ साबित कर रहा है कि प्रदेश के अधिकांश जिलों में अपराधियों में पुलिस का खौफ ही नहीं है। आमतौर पर शांत माने जाने वाले पर्वतीय जिलों के दूर दराज अंचलों में भी अपराधों का नया ट्रेंड सामने आ रहा है।
केदारनाथ विकास प्राधिकरण की भूमिका को लेकर राज्यं सरकार की आलोचना शुरू हो गयी है, केडीए क्षेत्र में ध्वस्त सड़कों का पुनर्निर्माण, रोपवे के लिए स्थानों का चिह्नीकरण, आवासीय व्यवस्था का मास्टर प्लान तैयार करेगा। केदारघाटी के तकरीबन 125 गांवों में से करीब 107 आपदा से बुरी तरह से प्रभावित हैं। मुख्य सड़कों के अलावा संपर्क मार्ग भी पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हैं। स्कूल, अस्पताल आपदा की भेंट चढ़ चुके हैं। ढाई माह से ज्यादा का समय बीतने के बाद भी स्थिति नौ दिन चले अढाई कोस वाली है। यहां तक कि जिन इलाकों में संपर्क मार्ग ध्वस्त हो चुके हैं, वहां ट्राली से आवागमन की सुविधा देने के वायदे भी फिलहाल हवा में ही हैं। मसलन कालीमठ से लेकर चंद्रापुरी तक के क्षेत्र में ऐसी 11 ट्राली लगाई जानी थीं, लेकिन इतना वक्फा बीत जाने के बाद अभी तक पांच ट्राली पर ही काम चल रहा है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है हजारों प्रभावितों में भरोसा बहाल करना भी किसी चुनौती से कम नहीं। इसके लिए जरूरी है कि सिस्टम संवेदनशील बने, लेकिन बीते दो माह के अनुभव अलग कहानी बयां कर रहे हैं। ऋषिकेश में एक आपदा पीड़ित को दिया गया चेक बाउंस हो गया तो सिल्ली गांव के कई प्रभावितों को राहत राशि तक नहीं मिली है। प्रभावित क्षेत्रों में छह माह तक मुफ्त राशन की व्यवस्था करने का दावा भी धरातल पर नजर नहीं आता। श्रीनगर के पास एक होटल में आपदा राहत की सामग्री बंटने से लोगों में सरकार के प्रति अविश्वास ही बढ़ा है। यह सही है कि सरकार फाइल वर्क में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही, लेकिन असल परीक्षा योजनाओं को जमीन पर उतारने की है।
गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा कानून उत्तेराखण्डर में लागू हो गया है, उत्तगराखण्डआ में कोई भी अब भूखा नही है, सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग के महानिदेशक मीनाक्षी सुन्दपरम ने चैनलों देश विदेश के समाचार पत्रों में 2 करोड से ज्यादा के विज्ञापन इसके पचार प्रसार पर व्यय किये है, जिससे उत्ताराखण्डा के सुदूरवर्ती पहाडों क्षेत्रों के नागरिक देश के अंग्रेजी अखबारों में छपे विज्ञापन को पढ कर खाद्य सुरक्षा कानून का लाभ ले सके, क्या् आप सहमत है, राजधानी में गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा कानून लागू नही हो पाया और कई लोगों को निराश लौटना पड़ा, वह इसके पूरी तरह से लागू हो पाने पर सवालिया निशान लगाता है। चुनावी तैयारी और आपाधापी के दौरान जनहित से जुड़ा यह अहम मसला कहां दफन हो जाए, कहां नहीं जा सकता, यदि सरकार को इस योजना को सही मायने में लागू करना है तो उसे च्यादा सतर्क और सक्रिय रहना होगा। इसके साथ ही योजना के प्रभावी कार्यान्वयन की व्यवस्था भी करनी होगी।