रिश्ता: ‘आधुनिक अध्यात्म’ और व्यवसाय का ?

– निर्मल रानी –

baba ramdev,aricle on baba ramdev,भारतवर्ष को अध्यात्म के क्षेत्र में विश्व का सबसे बड़ा देश माना जाता है। हमारे देश में अनेक ऐसे तपस्वी व त्यागी,महान अध्यात्मवादी,पीर-फकीर, सूफी-संत गुज़रे हैं जिन्होंने नि:स्वार्थ रूप से समाज में मानवता के परोपकार हेतु तमाम ऐसे कार्य किए जिसकी बदौलत उनके अनुयाईयों की संख्या तथा उनके प्रति श्रद्धा इस हद तक बढ़ी कि ऐसे कई महापुरुषों के नाम पर तो उनके अनुयाईयों ने अपना अलग पंथ तक स्थापित कर लिया। विभिन्न संतों,पीरों व फकीरों से जुड़े साहित्य का अध्ययन कर यह भी पता चलता है कि उनके स्पर्श,उनकी वाणी तथा उनके आशीर्वाद में चमत्कारी शक्ति हुआ करती थी। एक सच्चे अध्यात्मवादी की पहचान ही यही है कि वह अपनी नेक कारगुज़ारियों व नेकनीयती के बल पर ईश्वर की राह में इस हद तक स्वयं को समर्पित कर दे कि ईश्वर या खुदा उसके समर्पण को स्वीकार कर ले तथा इसके बदले में उसकी हर नेक इच्छा व दुआओं को पूरी कर दे। ज़ाहिर है हमारे देश के अध्यात्म के इतिहास में ऐसे तमाम गुरु मिलते हैं जिन्होंने अपना सारा जीवन परोपकार तथा सद्मार्ग पर चलते हुए बिताया। ऐसे लोगों ने कभी धन-दौलत,ऐशपरस्ती,संपत्ति के संग्रह,मंहगी से मंहगी पोशक पहनने,अपना महल बनाने, आभूषण से स्वयं को सुसज्जित करने जैसी पाखंडपूर्ण बातों की तो कल्पना ही नहीं की। निश्चित रूप से मानवता की धरोहर समझे जाने वाले ऐसे महापुरुषों के समक्ष केवल हमारा देश ही नहीं बल्कि  पूरा विश्व उनके इतिहास को पढक़रआज भी नतमस्तक होता है चाहे वे किसी भी धर्म-जाति अथवा समुदाय से संबद्ध क्यों न रहे हों।

इसी अध्यात्मवादी परंपरा का कथित रूप से अुनसरण करते हुए आज भी हमारे देश में अनेक धर्मगुरु सक्रिय हैं। इनका भी यही दावा है कि वे लोगों को अध्यात्म की शिक्षा व ज्ञान दे रहे हैं। मज़े की बात तो यह है कि बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ इन कथित अध्यात्मवादियों की संख्या भी बहुत तेज़ी से बढ़ गई है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इन कथित गुरुओं में भी प्रतिस्पर्धा होते देखी जा रहा है। परंतु समय के साथ-साथ कल और आज के अध्यात्मवादी धर्मगुरुओं के रहन-सहन,उनकी शैली,यहां तक कि उनकी सोच व िफक्र में भी काफी परिवर्तन आ चुका है। कल के अध्यात्मवादी धर्मगुरु,संत या पीर-फकीर जो स्वयं तो फटे कपड़ों में तथा टूटी-फूटी झोंपड़ी में रहकर,हज़ारों मील की यात्रा पैदल पूरी कर यहां तक कि भूखे व प्यासे रहकर स्वयं को कष्ट व संकट में डालकर समाज को सद्मार्ग दिखाते थे तथा अपने त्याग व तपस्या से लोगों के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करते थे। परंतु ऐसे लोगों की वाणी तथा उनकी दुआओं में इतना असर होता था कि वह कभी खाली नहीं जाती थी। परंतु आज के धर्मगुरुओं के रहन-सहन,उनकी शान-ो-शौकत,उनके शाही लिबास, महंगी से महंगी गाडिय़ां,स्वर्ण जडि़त सिंहासन तथा वीवीआईपी संस्कृति के प्रति उनका मोह देखते ही बन  पड़ता है। हमारे देश के कई तथाकथित अध्यात्मवादी तो ऐसे भी हैं जो अनेक जघन्य अपराधों में आरोपी के रूप में बेनकाब हो चुके हैं। धन-दौलत के प्रति तो उनका आकर्षण जगज़ाहिर हो चुका है। कल जहां वास्तविक अध्यात्मवादी संत अपने अनुयाईयों को नि:शुल्क रूप से सच्चे दिल से आशीर्वाद दिया करते थे और उनका आशीर्वाद निश्चित रूप से प्रभावी भी होता था। परंतु दुर्भाग्यवश आज के तथाकथित अध्यात्मवादी जगत में कोई भी वस्तु यहां तक कि आशीर्वाद भी मुफ्त मिलते दिखाई नहीं देता।

और अपने इस व्यवसायिकतापूर्ण अध्यात्मवाद के पक्ष में इन कथित गुरुओं के पास तमाम तरह के तर्क भी होते हैं। वे बड़ी आसानी से अपने तर्कों या कुतर्कों के माध्यम से लोगों को यह समझाते देखे जाते हैं कि फटे कपड़ों में गुरु का होना कोई ज़रूरी नहीं है, गुरु यदि धन नहीं अर्जित करेगा तो खाएगा और पहनेगा क्या? और इसी प्रकार के तर्क देने वाले कथित अध्यातमवादियों द्वारा बड़े ही नियोजित तरीके से पहले अपने अनुयाईयों की संख्या में इज़ाफा किया जाता है। उसके पश्चात इन्हें अध्यात्म के नाम पर तरह-तरह की चीज़ें बेची जाती हैं। और श्रेणी के हिसाब से इनके अलग-अलग मूल्य निर्धारित किए जाते हैं। मिसाल के तौर पर कोई अध्यात्म का सौदागर बीज मंत्र बेचकर लोगों का उपचार व कल्याण कर रहा है तो कोई योग क्रिया का बाज़ार सजा कर लोगों को स्वास्थय बेच रहा है। किसी ने लोगों को शराब जैसी दूसरी बुरी आदतें छुड़वाने के नाम पर अपनी अध्यात्मिकता की ‘दुकान’ सजा ररख्ी है तो कोई जीने की कला सिखा कर अपने अनुयाईयों की संख्या बढ़ाता जा रहा है। मज़े की बात तो यह है कि ऐसे कई स्वयंभू अध्यात्मवादी धर्मगुरुओं को यह गलतफहमी भी है कि पूरा देश ही उनका अनुयायी है और वे अपने पीछे खड़े ‘करोड़ों’ लोगों की बदौलत देश और दुनिया के सबसे ताकतवर लोगों में एक हैं। समय-समय पर ऐसे धर्मगुरु किसी न किसी बहाने अपना शक्ति प्रदर्शन भी करते रहते हैं।

हालांकि इसमें भी कोई दो राय नहीं कि आज के दौर के ही कई ऐसे ही गुरुओं द्वारा देश में विभिन्न स्थानों पर अनेक स्कूल व अस्पताल आदि भी संचालित किए जा रहे हैं जहां कहीं लोगों को इसकी मुफ्त सुविधाएं हासिल हैं तो कहीं नाममात्र शुल्क देकर इन सुविधाओं का लाभ उठाया जा रहा है। कई जगहों पर गरीबों के लिए खाने व कपड़े आदि की भी मुफ्त व्यवस्था की जाती है। परंतु पिछले लगभग एक दशक से ऐसे कई अध्यात्मवादियों द्वारा अपने अनुयाईयों की बढ़ती संख्या को देखकर इन्हीं भक्तों को अपने उपभोक्ताओं के रूप में ‘कैश’ कराए जाने का खेल खेला जा रहा है। यानी किसी ने अपने भक्तों की संख्या योग क्रिया सिखाने के बहाने बढ़ाई, किसी ने शराब व बुरी आदतें छुड़वाने के बहाने तो किसी ने जीने की कला सिखाने की आड़ में अपने अनुयाईयों की तादाद में राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ोतरी की और जब इन गुरुओं को यह नज़र आने लगा कि अब उनके ‘अंध भक्तों’ की संख्या इतनी बढ़ चुकी है कि वे अब उनका इस्तेमाल उपभोक्ता के रूप में कर सकते हैं ऐसे में इन्हीं गुरुओं ने अध्यात्मवाद को बाज़ारवाद में बदलने का सुनियोजित खेल खेलना शुरु कर दिया। और आज ऐसे ही तमाम स्वयंभू अध्यात्मवादी गुरु आयुर्वेद औषधियों से लेकर दैनिक उपयोगी जीवन में काम आने वाली अनेक प्रकार की वस्तुएं जैसे आटा,दाल,चावल,तेल,घी,शहद, बेसन,नूडल्स, बिस्कुट,नमकीन,साबुन, तेल,,शैंपू,टुथपेस्ट इत्यादि सभी कुछ बेचने लगे हैं। और इन्हें बाज़ार में अपने खरीददारों की संख्या बढ़ाने की भी उतनी ज़रूरत नहीं क्योंकि यदि इनके अपने अनुयायी ही इनका बना उत्पाद खरीदें तो इनके व्यवसाय को परवान चढ़ाने के लिए केवल उन्हीं की संख्या काफी है।

हालांकि अध्यात्मवाद के व्यवसाय में परिवर्तित होने का एक पहलू यह भी है कि इसमें कानूनी रूप से कोई बाधा अथवा कोई हर्ज कतई नहीं है। परंतु इसमें भी कोई शक नहीं कि अध्यात्मवाद का नैतिकता के साथ बहुत गहरा रिश्ता है। आज के व्यवसायिकतावादी धर्मगुरु अपने व्यापार के पक्ष में भले ही कितने तर्क क्यों न दे डालें परंतु आम लोगों के दिलों में हमारे प्राचीन त्यागी,तपस्वी व बलिदानी सोच रखने वाले धर्मगुरुओं व महापुरुषों ने जो स्थान बनाया है वह स्थान आज के यह सुविधाभोगी तथा आधुनिकता की चकाचौंध में डूबे स्वयंभू धर्मगुरु कतई नहीं बना सकते। इन्होंने अपने व्यवसायवाद के पक्ष में चाहे जितने तर्क क्यों न गढ़ लिए हों परंतु वास्तव में अध्यात्मवाद का तकाज़ा यह कतई नहीं है कि अपने भक्तों या अनुयाईयों को बाज़ार की निगाहों से देखा जाए। कल के और आज के अध्यात्वादी धर्मगुरुओं के बीच इसी बात का अंतर है कि जहां कल के महापुरुष ईश्वर की सत्ता पर अटूट विश्वास रखते हुए अपने सद्कर्मों की राह पर चलते थे और लोगों को ज्ञान व सद्मार्ग का प्रकाश बांटते थे वहीं आज का धर्मगुरु यह कहने में नहीं हिचकिचाता कि यदि गुरु व्यवसाय नहीं करेगा या धन नहीं कमाएगा तो खाएगा क्या? इस प्रकार के तर्क अपने-आप में इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पर्याप्त रहते हैं कि आज की ऐसी सोच रखने वाले गुरु वास्तव में ईश्वरीय सत्ता पर कितना विश्वास रखते हैं?

हालांकि ऐसे व्यवसायी गुरुओं द्वारा अपने व्यवसाय को उचित बताने के लिए एक और भावनात्मक कार्ड यह भी खेला जा रहा है कि वे देश के लोगों को स्वदेशी उत्पाद उपलब्ध करा रहे हैं ताकि विदेशी कंपनियों के समक्ष वे चुनौती खड़ी कर सकें। परंतु ऐसे सभी तर्कोंं के बावजूद अध्यात्मवाद का व्यवसायिकता से कभी भी कोई रिश्ता स्थापित नहीं किया जा सकता। कम से कम अध्यात्मवाद तथा हमारे प्राचीन अध्यात्मवादी महापुरुषों द्वारा दिए गए संस्कार व नैतिकता का तो यही तकाज़ा है। यही वजह है कि भविष्य में जब कभी भी भारत के अध्यात्मवाद का इतिहास लिखा जाएगा या आज भी लिखा जा रहा है उसमें उन्हीं त्यागी,तपस्वी व बलिदानी सोच रखने वाले तथा बिना किसी निजी स्वार्थ के सद्मार्ग पर चलने की सीख देने वाले धर्मगुरुओं व महापुरुषों का नाम ही सबसे ऊपर लिखा जाएगा। न कि ऐसे स्वयंभू अध्यात्मवादियों का जिन्होंने अध्यात्मवाद तथा व्यवसायिकता के मध्य रिश्ता स्थापित करने जैसा बाज़ारू प्रयास किया है।

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???????????????????????????????परिचय – :

निर्मल रानी

लेखिका व्  सामाजिक चिन्तिका

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !

संपर्क : – Nirmal Rani  : 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City13 4002 Haryana ,  Email : nirmalrani@gmail.com –  phone : 09729229728

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