मायावती को मीडिया व मुस्लिम नहीं बल्कि भ्रष्टाचार व अहंकार ले डूबा**

निर्मल रानी**

                          देश के पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के परिणाम आ जाने के पश्चात इन परिणामों का विश्लेषण व समीक्षा जारी है। एक ओर जहां मीडिया व राजनैतिक विशषक आज जनता की आवाज़ बनने की कोशिश कर इन चुनावों के परिणामों पर अपने विचार व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं वहीं लगभग प्रत्येक राजनैतिक दल के नेताओं द्वारा अपनी अगली रणनीति को मद्देनज़र रखते हुए अलग-अलग आशय के वक्तव्य दिए जा रहे हैं। कई पार्टियां व उनके नेता ऐसे भी हैं जो हार के वास्तविक कारणों से जनता का ध्यान हटाने के लिए अपनी हार को अपने ही तरीक़े से परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं। यानी चुनावों में पराजय जैसी बड़ी ठोकर खाने के बावजूद हार की असली वजह पर पर्दा डालने का प्रयास किया जा रहा है।

हालांकि देश की जिन पांच विधानसभाओं में पिछले दिनों चुनाव संपन्न हुए उनमें पंजाब,उत्तराखंड,मणिपुर व गोवा जैसे राज्य भी शामिल थे। परंतु पूरे देश की निगाहें उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों पर टिकी हुई थीं। देश उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के रुख को इसलिए और भी गंभीरता से ले रहा था क्योंकि यह चुनाव देश में बढ़ती हुई महंगाई के दौरान संपन्न हुए तथा देश में गत् तीन वर्षों के भीतर कुछ राष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित करने वाले घोटाले व भ्रष्टाचार उजागर हुए। मनरेगा योजना में धांधली व एन आर एच एम घोटाले जैसे बड़े भ्रष्टाचार उत्तर प्रदेश में सुनने को मिले। देश ने इसी दौरान अन्ना हज़ारे की भ्रष्टाचार विरोधी ऐतिहासिक मुहिम में हिस्सा लिया। उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार के सिलसिले में ही कभी इंजीनियर तो कभी मुख्य चिकित्सा अधिकारी की हत्याओं के समाचार मिले। चुनावों के मद्देनज़र भाजपा ने फायरब्रांड नेता उमा भारती क मध्य प्रदेश से उत्तर प्रदेश में बुलाकर बहुसंख्य मतों के ध्रुवीकरण की कोशिश की तो राहुल गांधी ने जीतोड़ मेहनत कर कांग्रेस के पक्ष में कुछ चमत्कार हो जाने की उम्मीद रखी।निश्चित रूप से इन हालात में उत्तर प्रदेश के मतदाता किस करवट बैठेंगे इस पर पूरे देश की नज़रें लगी हुई थीं। और यह कथन तो अपनी जगह पर था ही कि उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम केंद्र की भविष्य की राजनीति निर्धारित करते हैं।

बहरहाल उत्तर प्रदेश के परिणाम आ चुके हैं। सत्तारूढ़ रही बहुजन समाज पार्टी जिसे कि 2007 के चुनाव में 206 सीटों के साथ पहली बार राज्य में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था वह इस बार के चुनावों में मात्र 80 सीटों पर सिमटकर रह गई। यानी उसे 126 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा जबकि ठीक इसके विपरीत समाजवादी पार्टी जिसे कि 2009 में 97 सीटें प्राप्त हुई थी उसे मतदाताओं ने 224 सीटों के प्रचंड बहुमत से विजय दिलाई है। यानी सपा को 2007 के मुकाबले में 127 सीटों का लाभ हुआ। हालांकि देश के सभी चुनावी पंडित इस भविष्यवाणी को लेकर तो एकमत थे कि प्रदेश में समाजवादी पार्टी ही सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी। परंतु कय़ास यह लगाए जा रहे थे कि सपा को सरकार बनाने के लिए कांग्रेस पार्टी के समर्थन की ज़रूरत पड़ सकती है। चुनाव परिणमों ने इन सभी अनुमानों को धराशयी करते हुए सपा को अप्रत्याशित रूप से पूर्ण बहुमत दिला दिया। ज़ाहिर है सपा नेता इस जीत को अपनी मेहनत,अपने कार्यकर्ताओं के अथाह पश्रिम विशेषकर सांसद अखिलेश यादव की संगठनात्मक कार्यशैली को श्रेय दे रहे हैं। परंतु पराजित मुख्यमंत्री मायावती का इन नतीजों के विशषण करने का अंदाज़ ही कुछ अलग है।

मायावती अपनी इस हार के लिए प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं तथा मीडिया को जि़म्मेदार ठहरा रही हैं। उनका कहना है कि उनकी सरकार के विरूद्ध मीडिया द्वारा किए गए दुष्प्रचार तथा मुस्लिम मतदाताओं द्वारा समाजवादी पार्टी के पक्ष में किए गए एकतरफा मतदान के चलते उनकी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। साथ ही साथ वे यह दलील भी पेश कर रही हैं कि उनका दलित वोट बैंक अपनी जगह से ज़रा भी नहीं हिला है। अपने इस तर्क के पक्ष में वह 80 सीटों पर पार्टी के विजय पाने को बता रही हैं। उनका कहना है कि दलित वोटों की वजह से ही उन्हें 80 सीटें मिल सकी हैं। क्या मायावती की यह टिप्पणी न्यायसंगत है? ऐसा कहकर वह क्या संदेश देना चाहती हैं तथा उनकी इस टिप्पणी के बाद सवाल यह भी उठता है कि आखिर बीएसपी की हार का वास्तविक कारण था क्या?निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं को इस बात को संदेह रहा होगा कि मायावती भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश कर सकती हैं। संभव है इस भय के चलते मुस्लिम मतदाताओं ने बसपा के बजाए विकल्प के रूप में सपा को चुना हो। परंतु यह भी सही है कि इस देश में अब तक संभवत: कोई ऐसा शीर्ष राजनेता नहीं हुआ जिसने कि जाति विशेष के स्वाभिमान का बहाना लेकर जनता के पैसों का दुरुपयोग करते हुए स्वयं अपने ही बुत बनवाकर बहुमूल्य स्थानों पर लगवाए हों। यह मायावती ही थीं जिन्होंने 2007 में पहली बार बहुमत में आई अपनी पार्टी की सरकार के नशे में चूर होकर प्रदेश में कई स्थानों पर बाबा साहब अंबेडकर, व बसपा संस्थापक कांशीराम के साथ-साथ अपनी व अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की तमाम बेशकीमती मूर्तियां लगवा डालीं। लखनऊ से लेकर नोएडा तक इस प्रकार की मूर्तियां दलित स्वाभिमान के नाम का बहाना लेकर मायावती द्वारा लगवाई गईं।

ज़ाहिर है प्रदेश के जागरूक मतदाता आम जनता के पैसों की इस बरबादी को पांच वर्षों तक देखते रहे तथा मायावती के इस फैसले का विरोध करने के लिए 2012 के विधानसभा चुनावों की केवल प्रतीक्षा करते रहे। मायावती की हार का दूसरा कारण 2007 की जीत के बाद उनके भीतर समा चुका बेपनाह अहंकार भी रहा। हालांकि इस देश में मायावती के अतिरिक्त सोनिया गांधी,सुषमा स्वराज,जयललिता,ममता बैनर्जी व शीला दीक्षित जैसी नेत्रियां भी हैं। परंतु मायावती को गत् पांच वर्षों से जिस अंदाज़ से जनसभाओं में आसन ग्रहण करते दिखाया जाता है वह अंदाज़ तो संभवत: महारानी एलिजा़बेथ व महारानी विक्टोरिया का भी नहीं देखा गया।

आश्चर्य तो इस बात का है कि मायावती के समर्थक नेतागण किस प्रकार से मायावती के इस सामंती व राजशाही के अंदाज़ को स्वीकार करते रहे। उनका विशाल सोफा, शानदार आसन तथा उसपर स्वयं अकेले बैठना उनके दाएं-बाएं किसी नेता का न होना तथा प्रत्येक व्यक्ति का मात्र उनके पीछे खड़े होना उनके घोर अहंकार को दर्शाता था। मंत्रियों व विधायकों के साथ भी उनका व्यवहार शिष्टाचार से काफी दूर था। अपने मंत्रियों व विधायकों से पैर छुलवाने में भी वे अत्यंत सुखद आनंद की अनुभूति महसूस करती थीं। परंतु अपने इन्हीं मंत्रियों, विधायकों व पदाधिकारियों को उनका यह निर्देश भी था कि वे मीडिया में कतई न जाएं, किसी प्रकार की बयानबाज़ी या अ$खबारबाज़ी हरगिज़ न करें। छोटी-छोटी बातों के लिए भी वे स्वयं ही मीडिया से रूबरू होना पसंद करती थीं। ज़ाहिर है मायावती के इस प्रकार के निर्देशों से घुटन महसूस करने वाले नेताओं ने चुनाव के समय अपनी उस घुटन की भड़ास भी निकाली है।

इसके अतिरिक्त पूरे देश ने देखा कि देश के इतिहास में पहली बार किस प्रकार मायावती ने करोड़ों रुपये कीमत की नोटों की माला अपनी पार्टी के मंत्रियों व नेताओं के हाथों से सार्वजनिक रूप से स्वीकार की। इस घटना की आलोचना होने के बाद मायावती ने इस पर खेद व्यक्त करने या अपना बचाव करने के बजाए कुछ ही दिनों बाद नोटों की एक और बड़ी माला पहन डाली। मीडिया के कुछ हलक़ों में तो इस घटना के बाद मायावती का नाम मालावती भी लिखा जाने लगा। निश्चित रूप से प्रदेश की जनता को मायावती के नोटों की माला पहनने का वह अंदाज़ भी कतई नहीं भाया। इसके अतिरिक्त दर्जनों मंत्रियों का भ्रष्टाचार के चलते चुनाव घोषणा से पूर्व हटाया जाना जबकि पांच वर्षों तक धन इकट्ठा  करने के लिए उन्हीं का जमकर दोहन करना, जेल से लेकर बाहर तक भ्रष्टाचार के मामले में कई लोगों की रहस्यमयी ढंग से हत्याएं हो जाना, मनरेगा को लेकर केंद्र सरकार द्वारा मायावती सरकार पर बार-बार लगाए जाने वाले घोटालों के आरोप भी मायावती की हार का मुख्य कारण बने।

परंतु अफसोस की बात तो यही है कि मायावती उपरोक्त वास्तविकताओं से आंख मूंद कर धर्म व जाति आधारित मतदान को अपनी हार का कारण बता रही हैं। उधर दूसरी मुसलमानों के बसपा को मतदान न किए जाने के वक्तव्य को दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी सिर्फ इसलिए सही ठहरा रहे हैं ताकि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की जीत का सेहरा उनके सिर बंध सके। बुखारी भी यही कह रहे हैं कि 28 जनवरी को उनकी अपील के बाद प्रदेश के मुस्लिम मतदाता सपा की ओर घूम गया अन्यथा वह कांग्रेस पार्टी में मतदान करने जा रहा था। दरअसल बुखारी की इस बात में भी उतना दम नहीं है जितना कि वह बता रहे हैं। निश्चित रूप से सपा को पर्याप्त मात्रा में मुस्लिम मत प्राप्त हुए हैं परंतु इन का विभाजन भी खूब हुआ है। मीडिया को कोसने का भी मायावती को कोई अधिकार नहीं है। मीडिया ने मायावती की जिस शैली को देखा वही देश को दिखाया। ऐसे में ज़रूरत अपने अंदाज़ व अपनी कार्यशैली को बदलने की है न कि मीडिया या मुस्लिम मतदाताओं को कोसने की।

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer)
1622/11 Mahavir Nagar
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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC

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