मानव मल ढोने की अमानवीय व्यवस्था अब भी जारी

maila lekh– अतुल मिश्रा – 

हम विकास के चाहे कितने ही दावे और वायदे कर लें, सकल घरेलू उत्पाद की दर को बढ़ाने की कितनी ही पुरजोर कोशिशें कर लें अथवा मंगल पर जीवन की नई संभावनाओं को तलाशने और तराशनें की बातें लेकिन जमीनी हकीकत तो इस चमकदार तस्वीर से भिन्न या यूँ कहें कि इसके एकदम उल्टा ही नजर आती है।

देश के सबसे विशाल प्रदेश उत्तर प्रदेश की वास्तविकता कुछ ऐसी ही है। आज भी प्रदेश में कई ऐसे  जिले हैं जहाँ मानव द्वारा मानव मल ढोने, साफ करने और शुष्क टायलेट्स की अत्यन्त घृणित कुव्यवस्था फल – फूल रही है जिसे कर्इ्र वर्षों पूर्व ही प्रतिबंधित घोषित किया जा चुका है। एक आर0टी0आई0 के अन्तर्गत प्राप्त सूचना के अनुसार उत्तर प्रदेश में 5,530 मानव मल ढोने वाले और 1 लाख से अधिक शुष्क टायलेट्स हैं। प्रदेश के लगभग जिलों में यह अमानवीय व्यवस्था मौजूदं हैं। मेरठ इस मामले में अव्वल है जहाँ सर्वाधिक 799 मानव मल ढोने वाले लोग हैं। मुजफ्फरनगर में 574, फर्रूखाबाद में 55 लोग इस कुव्यवस्था द्वारा जीवन निर्वहन को बाध्य हैं। इसके अतिरिक्त रामपुर में 100, एटा में 78, गाजियाबाद में 281, अलीगढ़ में 144, मैनपुरी में 74, कन्नौज में 48, कानपुर में 34 और फिरोजाबाद में 24 लोग इस अमानवीय व्यवस्था के सहारे जीवन यापन कर रहे हैं। सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मानव मल ढोने और साफ करने वालों की संख्या 57 है।

पंचायती राज विभाग, उ0प्र0 द्वारा प्राप्त सूचना के आधार पर प्रदेश में एक लाख से अधिक शुष्क टायलेट्स हैं। बदायूँ, मुरादाबाद और औद्योगिक क्षेत्र गाजियाबाद जिले सर्वाधिक प्रभावित हैं। इसी प्रकार अलीगढ़, बरेली, बिजनौर, बुलन्दशहर, फर्रूखाबाद, फिरोजाबाद, गौतमबुद्धनगर, जेपीनगर, मेरठ, पीलीभीत, रामपुर, सहारनपुर, शाहजहाँपुर, मेरठ आदि अन्य प्रभावित जिलें हैं। आज भी यहाँ हजारों की संख्या में शुष्क टायलेट्स का धडल्ले से उपयोग किया जा रहा है।

उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त देश के अन्य हिस्सों में यह अमानवयी व्यवस्था अस्तित्व में हैं। विडम्बना यह है कि अधिकांश राज्यों के पास इस मामले में पर्याप्त आंकड़े तक उपलब्ध नहीं है कि  वर्तमान में कितने लेाग इस कुप्रथा को ढो रहे हैं। राज्य सरकारें सीधे – सीधे यह कहकर पल्ला झाड़ लेती हैं कि उनके राज्यों में यह कुप्रथा समाप्त हो गई हैं और कोई भी व्यक्ति उनके यहाँ सिर पर मैला नहीं ढोता है। जबकि वास्तविकता इससे कहीं अधिक परे हैं और यह कुप्रथा समूचे देश के विभिन्न हिस्सों में विद्यमान है।

इस संदर्भ में 2003 में एक जनहित यचिका के अन्तर्गत यह मांग की गई कि इसे रोकने के लिए ’इंप्लायमेन्ट ऑफ मैन्यूअल स्कैवेंजर एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन (प्रोहिवेशन) एक्ट 1993’ को लागू किया जाए। कोर्ट ने इस मसले पर उचित दिशा – निर्देश भी दिए। इसी प्रकार वर्ष 2007 अक्टूबर में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने देश के समस्त राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेशों को यह निर्देश दिए थे कि वे अपने – अपने  राज्यों के सम्बन्ध में मैला ढोने की कुप्रथा के उन्मूलन के विषय में अधिसूचना जारी करें किन्तु प्रशासनिक स्तर पर आज भी इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता है। राजनैतिक इच्छाशक्ति तो पूर्णतः शून्य ही दीख पड़ती है। इतना नहीं 10वीं पंचवर्षीय योजना में इसके लिए 460 करोड का भारी – भरकम बजट भी आवंटित किया गया लेकिन दुर्भाग्यवश केवल 146 करोड़ रूपयें ही खर्च हो पाए। जाहिर है, प्रशासनिक स्तर पर शिथिलता बरती गई और अपेक्षा से बदतर परिणाम ही मिले। 11वीं पंचमवर्षीय योजना में भी इसके लिए विशेष प्रावधान किए गए लेकिन स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है। वर्ष 2012 तक इस कुप्रथा को जड़ से समाप्त करने का आह्वान भी किया गया लेकिन सूरतेहाल बदतर ही है। मैला ढोने वालों में इस अमानवीय कार्य से मुक्ति के लिए छटपटाहट और तीव्र बेचैनी है। वे सम्मानपूर्वक जवीन बिताना औरा जीना चाहते हैं। इस अमानवीय कुप्रथा का बोझ ढोने वाले विभिन्न प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त होने के कारण असमय काल के गाल समा जाते हैं। उनका पूरा का पूरा कुनबा इस अभिशप्त जीवन जीने को आजीवन बाध्य रहता है। यही कारण है कि सफाई कर्मी चाहते हैं कि मैला ढोने वालों में सिर्फ उन्हें ही शामिल न किया जाय, जो सिर पर मैला ढोते हैं, बल्कि इस दायरे में उन्हें भी लाया जाय, जो सिर्फ शुष्क शौचालयो को ही नहीं साफ करते अपितु सीवर, सेप्टिक टैकों व नालों – नालियों इत्यादि को साफकर उनसे निकलने वाले कचरे – मल आदि को साफ करते हैं। परिणामस्वरूप लोग आक्रोशित और आंदोलित भी हैं। ऐसे लोगों का सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक जीवन घोर संत्रणा के दौर से गुजरता है।

यद्यपि आज की वर्तमान स्थिति का संकेत देते हुए डॉ0 भीमराव अम्बेडकर जी ने भारतीय संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते समय संविधान सभा में कहा था – ’’इस संविधान को अपनाकर हम विरोधाभाषों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। इससे राजनीतिक जीवन में तो हमें समानता प्राप्त हो जाएगी, परन्तु सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमता बनी रहेगी।’’ दलितों के उद्धारकों मे से एक महात्मा ज्योतिबफूले का मानना था कि समस्त स्त्री – पुरूष जन्म से समान और स्वतन्त्र है जब ईश्वर ने उन्हें स्वतन्त्र व समान बनाया है, तब किसी व्यक्ति को दूसरे का दमन करने का अधिकार नहीं रह जाता है।

इस समस्या की समग्रता पर यदि गम्भीरता से विचार किया जाय तो इसके समाधान की बात भी निकलकर सामने आती हैं। इस कुप्रथा के उन्मूलन के लिए समाज और सरकारें, दोनों न सिर्फ संवेदनशील हों, अपितु दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय भी दें। विभिन्न योजनाओं की जवाबदेही तय की जाए और उनके क्रियान्वयन में पारदर्शिता बरती जाए। निगरानी इस रूप में हो उनमें भ्रष्टाचार की संभावना नगण्य हो। यथा सम्भव इसे मानवाधिकार के दायरे मे लाया जाए। यहाँ यह बात भी गौरतलब है कि सफाई जैसे कार्यों में हम अपने संसाधनों को विस्तारित करें और अत्याधुनिक तकनीकों से सुसज्जित हों। सफाईकर्मीयों को राहत और सम्मान दें एवं उनके पुनर्वास की उचित व्यवस्था करें।
सर्वाधिक सक्रियता सामाजिक स्तर पर होनी चाहिए। देश के प्रत्येक आमोखास नागरिक को इस दिशा में पूरी संवेदनशीलता और गम्भीरता से न केवल सोचना होगा अपितु आगे भी आना होगा। विशेषतः बुद्धिजीवी वर्ग, धर्माचार्यों, युवाओं और राजनेताओं की जिम्मेदारी इस दिशा में सर्वाधिक है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि आज जब देश के प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी जी के आह्वान पर पूरे देश में ’स्वच्छ भारत’ अभियान चलाया जा रहा है तो इस परिप्रेक्ष्य में कहीं अधिक गम्भीर और सक्रिय होने की नितान्त आवश्यकता और अपेक्षा है। हम इस देश में ऐसा वातावरण बनाएँ तभी संभावना की स्थिति बन सकती है। मैला ढोने वालों केे जीवन में भी एक नया सवेरा होगा।

atul mishra,writer atul mishra ,invc newsपरिचय- :

अतुल  मिश्र
यूएनओ फेलोशिप प्राप्तकर्ता

निवास – इलाहाबाद

संपर्क – 0950603336  , ई मेल – : immishraatul@gmail.com

*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC.  

 

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