– निर्मल रानी –
देश में लोकसभा चुनाव समाप्त होने के बाद नई सरकार ने अपना कार्यभार संभाल लिया है। उ मीद की जा रही थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने सांसदों को दिए गए सकारात्मक उपदेशों के बाद संभवत: उनकी वाणी कुछ संयमित होगी। और 'छपास' के मोह से उबरते हुए वे शायद आने वाले दिनों में कोई ऐसे बयान नहीं देंगे जिससे भाजपा को किसी संकट का सामना करना पड़े और अपने इस प्रकार के विवादपूर्ण बयानों की वजह से उनका मीडिया में सु$िर्खयां बटोरने का शौक पूरा हो सके। परंतु ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री के 'प्रवचन' को भी शायद पार्टी नेताओं द्वारा गंभीरता से नहीं लिया गया। अन्यथा केंद्रीय मंत्री गिरीराज सिंह द्वारा एक बार फिर विवादित व विद्वेषपूर्ण बयान न दिया जाता।
गौरतलब है कि पिछले दिनों बिहार में आयोजित एक रोज़ा इफ्तार पार्टी में मु यमंत्री नितीश कुमार, उपमु यमंत्री सुशील मोदी, केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान उनके पुत्र चिराग पासवान, पूर्व मु यमंत्री जीतन राम मांझी के अतिरिक्त जनता दल युनाईटेड, भाजपा तथा लोकजन शक्ति पार्टी के अनेक नेता शरीक हुए। नितीश कुमार द्वारा इस इफ्तार पार्टी को लेकर तस्वीरों सहित एक टविट् किया गया जिसमें उपरोक्त सभी नेता रोज़ा-इफ्तार में शिरकत करते दिखाई दे रहे हैं। कल तक लालू यादव की छत्रछाया में रहकर धर्मनिरपेक्षता का लिबादा लपेटे और आज की तारीख में भारतीय जनता पार्टी के फायर ब्रांड नेता बनने की कोशिश में लगे केंद्रीय मंत्री गिरीराज सिंह को शायद रोज़ा-इफ्तार के यह चित्र रास नहीं आए। उन्होंने रोज़ा-इफ्तार के कुछ चित्र ट्विट करते हुए तंज़ भरे अंदाज़ में लिखा-'कितनी खूबसूरत तस्वीर होती जब इतनी ही चाहत से नवरात्रि पर फलाहार का आयोजन करते और सुंदर-सुंदर फोटो आते? अपने कर्म-धर्म में हम पिछड़ क्यों जाते हैं और दिखावे में आगे रहते हैं?
गिरिराज सिंह के इस विवादित टविट् की मु यमंत्री नितीश कुमार तथा लोजपा नेता चिराग पासवान ने तो निंदा की ही साथ-साथ भाजपा अध्यक्ष व केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी गिरीराज सिंह को फोन पर कड़ी फटकार लगाते हुए यह हिदायत दी कि इस प्रकार की शिकायत दोबारा नहीं मिलनी चाहिए। गौरतलब है कि यही गिरीराज सिंह मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की सलाह देने को लेकर काफी चर्चा में रहे हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि देश में जि़ मेदारी के पदों पर बैठने वाले लोग इस प्रकार की नफरत फैलाने वाली भाषाओं का इस्तेमाल करने से बाज़ नहीं आते? पिछले लोकसभा चुनाव में इस प्रकार के अनेक नेताओं के तमाम विवादित बयान अखबारों की सु$िर्खयां बटोरते रहे हैं। यहां तक कि कई बार आलाकमान के निर्देश पर कुछ नेताओं को अपनी बदज़ुबानी पर माफी तक मांगनी पड़ी।
भोपाल से सांसद चुनी गई प्रज्ञा ठाकुर का वह बयान जिसमें उसने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथू राम गोडसे का महिमा मंडन करते हुए यह कहा था कि 'गोडसे देशभक्त थे, हैं और रहेंग। अपने इस बदज़ुबानी की वजह से उसे बयान देने के चंद घंटों के भीतर ही मा$फी भी मांगनी पड़ी थी। देशवासियों का दिल दुखाने वाली बात करने से पहले यदि प्रज्ञा ठाकुर ने कुछ सोच-विचार कर लिया होता तो शायद उसे माफी मांगने की ज़रूरत ही न पड़ती। लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी के भोपाल से उ मीदवार दिग्विजय सिंह के समर्थन में उतरे महामंडलेश्वर स्वामी बैराग्यनंद उर्फ मिर्ची बाबा की वह घोषणा भी सु$िर्खयां बटोरने में काफी सफल रही जिसमें उन्होंने दिग्विजय सिंह के चुनाव हारने की स्थिति में हवनकुंड में समाधि लेने की घोषणा की थी। उन्होंने पांच क्विंटल मिर्च स्वाहा कर हवन भी किया था। परंतु दिग्विजय सिंह की पराजय के बाद अब भोपाल के लोग मिर्ची बाबा की तलाश करते फिर रहे हैं।
ज़रा सोचिए एक साधू, सन्यासी तथा महामंडलेश्वर की गद्दी पर बैठे किसी संत को किसी भी दल के नेता के पक्ष में इस प्रकार का अत्यधिक आत्मविश्वास से भरा हुआ बेतुका बयान देने की क्या ज़रूरत है? और यदि दिया था तो क्या उसमें अपने वचन को पूरा करने का साहस भी है? निश्चित रूप से ऐसे बड़बोलेपन वाले वक्तव्य किसी भी व्यक्ति के लिए शर्मिंदगी का कारण बनते हैं। यह तो अच्छा हुआ केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गई और नरेंद्र मोदी देश के पुन:प्रधानमंत्री बन गए अन्यथा उत्तर प्रदेश शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिज़वी भी अयोध्या में राम मंदिर के द्वार पर जाकर या तो आत्महत्या कर लेते अन्यथा उन्हें भी मिर्ची बाबा की तरह लोग तलाशते फिरते। गौरतलब है कि चुनाव के दौरान वसीम रिज़वी ने भी कुछ मिर्ची बाबा के अंदाज़ का ही बयान देते हुए यह कहा था कि-'यदि 2019 में नरेंद्र मोदी दोबारा देश के प्रधानमंत्री नहीं बने तो अयोध्या में राममंदिर के गेट केे पास जाकर मैं आत्महत्या कर लूंगा। याद रहे कि वसीम रिज़वी वक्फ बोर्ड की बेशकीमती ज़मीनों की बंदरबांट किए जाने के आरोप में विभिन्न अदालतों में कई मु$कद्दमों में फंसे हुए हैं और उन्हें भाजपा सरकार से ही संरक्षण मिलने की पूरी उ मीद है। इसी परिपेक्ष्य में वे इस प्रकार की बयानबाज़ी करने के लिए मजबूर हैं।
पिछले दिनों ऐसे ही एक नवोदित बड़बोले नेता का बड़बोलेपन वाला बयान सामने आया। आज़मगढ़ से भारतीय जनता पार्टी ने भोजपुरी $िफल्मी कलाकार दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ को चुनाव मैदान में उतारा। उनका मुकाबला समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव से हुआ। निरहुआ अपनी जीत को लेकर इतना आश्वस्त था कि उसके मुंह से अहंकार के वह शब्द निकले जो सं ावत: उसकी पार्टी के सर्वाेच्च नेता भी आसानी से नहीं निकाल सकते। एक टीवी साक्षात्कार के दौरान निरहुआ ने कई वरिष्ठ पत्रकारों के बीच अपनी बात रखते हुए यह हुंकार भरी थी कि-'मैं ईश्वर का लिखा लेख मिटा सकता हूं। उसने यह भी कहा था कि मुझे हराने वाला कोई पैदा ही नहीं हुआ। निरहुआ के इस बड़बोलेपन के लिए चुनाव के दौरान ही चर्चा शुरु हो गई थी। उसे न केवल उसके विरोधियों बल्कि उसकी अपनी पार्टी के नेताओं ने भी नज़रों से गिरा दिया था। आ$िखरकार ईश्वर को भी उसका यह बड़बोलापन पसंद नहीं आया और उसे अखिलेश यादव से करारी शिकस्त खानी पड़ी। आज निरहुआ को भी मिर्ची बाबा की तरह लोग ढंढते फिर रहे हैं परंतु अपनी बदज़ुबानी के चलते यह 'बड़े लोग' अपना मुंह छिपाए न जाने किस गुफा में पनाह लिए बैठे हैं।
किसी भी इंसान द्वारा बोले गए शब्द ही वास्तव में उसके व्यक्तित्व की असली पहचान कराते हैं। कम बोलना या न बोलना कड़वे व बेतुके बोल बोलने से कहीं बेहतर होता है। बेतुकी वाणी किसी भी इंसान की सोच, उसके विचार तथा उसकी योग्यता का पता बताती है। खासकर ऐसे लोग जो विशिष्ट लोगों की श्रेणी में गिने जाने लगें या किसी जि़ मेदारी भरे पदों पर बैठे हों उनके लिए तो बोलने से पहले शब्दों का चयन करना बेहद ज़रूरी हो जाता है। किसी भी व्यक्ति द्वारा बोले गए अच्छे शब्द समाज में प्रेम व सद्भाव का वातावरण तो पैदा करते ही हैं साथ-साथ बोलने वाले व्यक्ति को स मानित स्थान दिलाते हैं। ठीक इसके विपरीत कटु वचन समाज में वैमनस्य पैदा करते हैं और साथ-साथ बोलने वाले व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता भी बताते हैं। लिहाज़ा 'बड़े लोगों' को कम से कम यह कोशिश ज़रूर करनी चाहिए कि अपना मुंह खोलने से पहले वे स्वयं अपने मुंह से निकलने वाले वचनों को स्वयं परख लिया करें कि वे कड़वे हैं या मीठे?
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परिचय –:
निर्मल रानी
लेखिका व् सामाजिक चिन्तिका