प्रेमचंद गांधी की कविताएँ

प्रेमचंद गांधी की कविताएँ

नित्यानन्द गायेन की टिप्पणी :  प्रेमचंद गांधी हमारे समय के उन कवियों में हैं जिनकी पहचान उनकी रचनाओं  से होती है।  जीवन और समाज के विविध रंगों से लिखीं गयी उनकी कविताएँ पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं।  उनकी कविता पहला चुंबन की यह पंक्ति देखिये -“जो हमें याद नहीं रहता !
लेकिन हमारी देह पर अंकित हो जाता है” . कितना सही लिखा है कवि ने।  इसी कविता में वे कहते हैं -“जानवरों में जैसे मांएं /अपनी जीभ से चाट-चाट कर/अपनी संतान को संवारती हैं/ मनुष्यों  के पास चुंबन होते हैं / जो जिंदगी संवारते हैं।” जीवन के तमाम अनुभवों को कविता में उकेरने की कला में प्रेमचंद जी माहिर हैं।  वहीँ लड़ाइयां शीर्षक से लिखीं गयी तीन बेहतरीन कवितायेँ हैं।  इनकी प्रेम कविताओं को पढ़ते हुए एक अलग और नये अनुभव का अहसास करते हैं हम।  “आंसुओं की लिपि में डूबी प्रार्थनाएं ” कविता को पढ़ते हुए हम कवि की संवेदनशीलता से और गहराई से परिचित होते हैं।  ये कविता हमें सोचने पर विवश करती है ( 
नित्यानन्द गायेन सहायक सम्पादक आई एन वी सी न्यूज़ )

प्रेमचंद गांधी की कविताएँ

1.पहला चुंबन

जो हमें याद नहीं रहता
लेकिन हमारी देह पर अंकित हो जाता है
चेतना और समृति के इतिहास को कुरेद कर देखो
हमारी दादी, नानी, दाई, नर्स या
किसी डॉक्‍टर ने लिया होगा
इस पृथ्‍वी पर आने के स्‍वागत में
हमारा पहला चुंबन और
सौंप दिया होगा मां को
मां ने लिया होगा दूसरा चुंबन
पहली बार हमने सूखे मुंह से
मां की छातियों को चूमा होगा

शैशव काल में हम
जिसकी भी गोद में जाते
चुंबनों की बौछार पाते
हर किसी में खोजते
हमारी मां जैसी छातियां

हम नहीं जानते
कितनी स्त्रियों का दूध पीकर
हम बड़े हुए
कितनी स्त्रियों ने दिया
हमें अपना पहला चुंबन

थोड़ा-सा बड़ा होते ही
खेल-खेल में हमने
कितने कपोलों पर अंकित किया
अपना प्रेम
हम नहीं जानते

जन्‍म से मृत्‍यु तक
कितने होते हैं जीवन में चुंबन
हम नहीं जानते

जानवरों में जैसे मांएं
अपनी जीभ से चाट-चाट कर
अपनी संतान को संवारती हैं
मनुष्‍यों के पास चुंबन होते हैं
जो जिंदगी संवारते हैं।

2.अगर हर्फों में ही है खुदा

वे घर से निकलती हैं
स्‍कूल-कॉलेज के लिए
रंगीन स्‍कार्फ या बुरके में
मोहल्‍ले से बाहर आते ही
बस या ऑटो रिक्‍शा में बैठते ही
हिदायतों को तह करते हुए
उतार देती हैं जकड़न भरे सारे नकाब

वे जिन किताबों को पढ़कर बड़ी होती हैं
उनमें कहीं जिक्र नहीं होता नकाबों का
इतने बेनकाब होते हैं उनकी किताबों के शब्‍द कि
अक्‍सर उन्‍हें रुलाई आती है
परदों में बंद
अपने परिवार की स्त्रियों के लिए
उनकी खामोश सुबकियों और सिसकियों में
आंसुओं का कलमा है
‘ला इलाह इलिल्‍लाह’

कहां हो पैगंबर हज़रत मोहम्‍मद साहेब
ये पढने जाती मुसलमान लड़कियां
आप ही को पुकारती हैं चुपचाप

आप आयें तो इन्‍हें निजात मिले जकड़न से
अर्थ मिले उन शब्‍दों को जो नाजि़ल हुए थे आप पर

अगर हर्फों में ही है खुदा तो
वो जाहिर क्‍यों नहीं होता रोशनाई में।

3.कवि की रसोई

ज़रा आराम से बाहर बैठो
मेरे प्‍यारे श्रोता-पाठक
इधर मत तांको-झांको
आनंद लो खुश्‍बुओं का
आने वाले जायके का
मेरी कविता की कड़वाहट का

कुछ हासिल नहीं होगा तुम्‍हें
इधर आकर देखने से
बहुत बेतरतीबी है यहां
कोई चीज़ ठिकाने पर नहीं

सुना आज का अखबार पढ़कर
जो डबाडबा आये थे आंसू
उन्‍हें मैंने प्‍याले में जमा कर लिया था

पहले प्रेम के आंसू
बरसों से सिरके वाली बरनी में सुरक्षित हैं
किसानों के आंसुओं की नमी
मेरे लहू में है
भूख-बेरोजगारी से त्रस्‍त
युवाओं की बदहवासी
मेरे भीतर अग्नि-सी धधकती रहती है
जिंदगी के कई इम्‍तहानों में नाकाम
खुदकुशी करने वालों की आहें
मेरी त्‍वचा में है चिकनाई की तरह

विलुप्‍त होते जा रहे
वन्‍यजीवों के रंग मेरी स्‍याही में
जंगल और पहाड़ों के गर्भ में छुपे
खनिजों की गर्मी है मेरी आत्‍मा में
और इन पर जो गड़ाये बैठे हैं नजरें
पूंजी के रक्‍त-पिपासु सौदागर
उन पर मेरी कविता की नज़र है लगातार

अभावग्रस्‍त लोगों की उम्‍मीदों के
अक्षत हैं मेरे कोठार में
हिमशिखरों से बहता मनुष्‍यता का
जल है मेरे पास दूध जैसा
प्रेम की शर्करा है
कभी न खत्‍म होने वाली
दु:ख, दर्द और तकलीफों के मसाले हैं
चुनौतियों का सिलबट्टा है
कड़छुल जैसी कलम है
हौंसलों के मर्तबान हैं
कामनाओं का खमीर है मेरे पास

अब बताओ
तुम क्‍या पसंद करोगे ?

4.लड़ाइयां : तीन कविताएं

एक
लड़ाइयां तो दुनिया में आने से पहले ही
शुरु हो जाती हैं
असंख्‍य शुक्राणुओं में से कोई एक जीतता है
और मां के गर्भ में हमें रचने की
शुरुआत करता है

सृष्टि के खेल में लड़ता हुआ भ्रूण
निरन्‍तर रचता है हमारी काया
नौ महीने बाद लड़ता है
दुनिया में आने के लिए
और लड़ाइयां चलती रहती हैं
दुनिया में आने के बाद भी

क़ुदरत से लड़कर हम बड़े होते हैं
पैरों पर खड़े हो चलना सीखते हैं
जीवन की लम्‍बी लड़ाइयों के लिए

बिना लड़े कुछ भी हासिल नहीं होता
यह जानते हैं हम, लेकिन
दुनिया की बेहतरी के लिए चल रही
लड़ाइयों में अगर शामिल नहीं हम
तो तय मानिए कि
शुक्राणु से मनुष्‍य बनने तक की
हमारी सारी लड़ाइयां व्‍यर्थ थीं

व्‍यर्थ क्‍यूं फिर लड़ें हम
हर लड़ाई में चुपचाप खड़े हम
नहीं किसी के फेर में पड़ें हम
स्‍वार्थ के घड़े हम
इस तरह एकान्‍त में सड़ें हम।

दो

जितने देश हैं
उतनी ही सेनाएं हैं दुनिया में
हर देश का सैनिक देशभक्‍त सैनिक
एक देशभक्‍त सैनिक
दूसरे देशभक्‍त सैनिक का दुश्‍मन
होता है क्‍यों
यह नहीं मालूम
मैं अपनी मां से प्रेम करता हूं तो
दूसरे की मां दुश्‍मन क्‍यों है
ये तमाम सेनाएं देशभक्‍तों की हैं
या कि दुश्‍मनों की
इस धरती पर लगता है
सारी फौजें हैं
सिर्फ दुश्‍मनों की
पड़ौसी दुश्‍मन देश हो या
देश के भीतर पल रहे दुश्‍मन हों
सभी से निपटने के लिये चाहिए सेना
जिस देश से न रहा कभी वास्‍ता
वहां भी चली जायेंगी फौजें
और किसी के स्‍वार्थ में मारे जायेंगे
दोनों तरफ के सैनिक
दूर देश में लड़ने जाता फौजी
सोचता ही रह जाता है
हम क्‍यों जा रहे हैं वहां
उन्‍होंने तो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा
लेकिन आदेश तो आदेश है और
फौजी आदेश का तो कहना ही क्‍या
देशभक्ति के सारे गीत
दुश्‍मन को ललकारने के प्रयाण गीत
वतन पर कुरबान होने के गीत
अपने ह्रदय के अंतस्‍थल से जानता है
एक सच्‍चा फौजी कि
कुल जमा इंसान को इंसान से
लड़ा देने के गीत हैं
जिन्‍हें बेचने हैं हथियार
करना है कहीं पर कब्‍जा
वे ही तय करते हैं देशभक्ति के मानक
वे किसी भी नाम पर
जगा सकते हैं देशभक्ति की भावना
वे छेड़ सकते हैं गृहयुद्ध
वे मजबूर कर सकते हैं किसी भी देश को
अपने दुश्‍मन से लड़ने के लिये
लोग जहां भी लड़ेंगे
वहीं हथियार बिकेंगे
लोग लड़ाइयों में मरेंगे तो
फूलों का कारोबार बढ़ेगा और
उसी तादाद में ताबूतों का
सौदागरों का क्‍या है
उन्‍हें तो बस माल की बिक्री से मतलब है
लड़ाई चलती रहनी चाहिए
लड़ते हुए लोग
सौदागरों की सबसे बड़ी जरूरत हैं
और लड़ाइयों का क्‍या है
वे कभी बुनियादी सवालों पर नहीं होतीं
इसीलिये इतिहास में
कोई लड़ाई निर्णायक नहीं होती
निर्णायक तो मौत होती है
जो हर लड़ाई के बाद
अट्टहास करती नाचती है
जिंदगी का नाच तो जंगलों के साथ चला गया
अब तो महज शोर है हथियारों का
जिसे ही संगीत कहा जा रहा है
और लोग हैं कि नाचे जा रहे हैं
दुनिया के सारे फूल
सैनिकों-सिपाहियों की टोपियों के लिये हैं
बच जायें तो ताबूतों के लिये
प्रेम के लिए तो एक फूल ही काफी है।
तीन
लड़ना इंसान की फितरत है
आदिम काल से ही लड़ता आया है वह
पेट भरने और जान बचाने से
शुरु हुई थी इंसान की लड़ाई
जिसमें वक्‍त के साथ
ना जाने कितनी इच्‍छाएं जुड़तीं चली गईं
और इंसान हर चीज के लिये लड़ता रहा
हर लड़ाई में हथियार चाहियें
इसलिये हर तरह के हथियार बनाये गये
मनुष्‍य की समूची प्रतिभा जैसे
हथियार खोजने में ही खर्च हो गई
जब हथियार नाकाफी पड़ गये
विचारों की लड़ाई शुरु हुई
अपने ही विचार को महान सिद्ध करने की लड़ाई
जो विचार उपजे थे
लड़ाई के खिलाफ शांति के लिये
उन्‍हें भी जरूरत महसूस हुई कि
शांति के लिये भी होनी चाहिये सेना
तभी दबाया जा सकता है
अशांति फैलाने वाले विचारों को
और बन गई शांति सेनाएं
लड़ाई के सौदागरों ने कहा और
दार्शनिक जुट गये
सिद्ध कर दिया गया कि
सेनाएं सिर्फ शांति के लिये ही होती हैं
मैं चुपचाप किताब पढ़ते हुए
कविता लिखने का समय चाहता हूं
एक स्‍त्री परिवार के साथ
आराम से रहना चाहती है
एक प्रेमी युगल सुकून की तलाश में है
इस सबके लिए शांति सेना चाहिए
कितनी अजीब बात है ना
धरती की सारी हरियाली
सेना की वर्दियों में गुम हो गई है
और पृथ्‍वी का नीला-आसमानी-खाकी सौंदर्य
पुलिस के पास जमा है

कोई बताये
मैं उस पृथ्‍वी का क्‍या करूंगा
जिसका हरा, नीला, आसमानी और खाकी रंग
हथियारों के साये में जमा कर दिया गया है
बचा ही क्‍या है अब पृथ्‍वी पर
रंगों के रूप में
एक धूसर बियाबान के सिवा
इसलिये अब मेरी लड़ाई उन रंगों के लिये है
अब मुझे भूख, प्‍यास और प्राणों से कहीं ज्‍यादा
धरती के असली रंगों की जरूरत है।

5. आंसुओं की लिपि में डूबी प्रार्थनाएं

सूख न जायें कंठ इस कदर कि
रेत के अनंत विस्‍तार में बहती हवा
देह पर अंकित कर दे अपने हस्‍ताक्षर
सांस चलती रहे इतनी भर कि
सूखी धरती के पपड़ाये होठों पर बची रहे
बारिश और ओस से मिलने की कामना
आंखों में बची रहे चमक इतनी कि
हंसता हुआ चंद्रमा इनमें
देख सके अपना प्रतिबिंब कभी-भी

देह में बची रहे शक्ति इतनी कि
कहीं की भी यात्रा के लिये
कभी भी निकलने का हौसला बना रहे
होठों पर बची रहे इतनी-सी नमी कि
प्रिय के अधरों से मिलने पर बह निकले
प्रेम का सुसुप्‍त निर्झर।

6.कुविचार

‘बर्फ-सी रात है और है एक कुविचार
(अभी तक जो कविता में ढला नहीं है)
*इवान बूनिन

निर्विचार की रहस्‍यमयी साधनावस्‍था
अभी बहुत दूर है मेरी पहुंच से कि
जब विचारना ही नहीं हुआ पूरा तो
क्‍या करेंगे निर्विचार का

अभी तो जगह बची हुई है
कुछ कुविचारों की कविता में
वे आ जाएं तो आगे विचारें
मसलन, वासना भी व्‍यक्‍त हो कविता में कि
हमारी भाषा में बेधड़क
एक स्‍त्री कह सके किसी सुंदर पुरुष से कि
आपको देखने भर से
जाग गई हैं मेरी कामनाएं
या कि इसके ठीक उलट
कोई पुरुष कह सके
जीवन में घटने वाले ऐसे क्षणिक आवेग
कुछ अजनबी-से प्रेमालाप
लंबी यात्राओं में उपजे दैहिक आकर्षण
राजकपूर की नायिकाओं के सुंदर वक्षस्‍थल
अगर दिख जाएं साक्षात
तो कहा जा सके कविता में
किसी के होठों की बनावट से
उपजे कोई छवि कल्‍पना में तो
व्‍यक्‍त की जा सके अभिधा में
और फिर सीधे कविता में

इवान बूनि‍न!
एक पूरी शृंखला है कुविचारों की
जो कविता में नहीं आई
मसलन, मोचीराम तो आ गया
लेकिन वो कसाई नहीं आया
जो सुबह से लेकर रात तक
बड़ी कुशलता के साथ
काटता-छीलत रहता है
मज़बूत हड्डियां – मांस के लोथड़े
जैसे मोची की नज़र जाती है
सीधे पैरों की तरफ़
कसाई की कहां जाती होगी
एक कसाई को कितना समय लगता है
इंसान को अपने विचारों और औजारों से बाहर करने में
महात्‍मा गांधी का अनुयायी
अगर हो कसाई तो
कैसे कहेगा कि
उसका पेशा अहिंसक है
जब गांधी के गुजरात में ही
ग़ैर पेशेवर कसाइयों ने मार डाला था हज़ारों को
बिना खड्ग बिना ढाल तो
उन कसाइयों के समर्थन में
क्‍यों नहीं आई कोई पवित्र धार्मिक ऋचा

घूसखोर-भ्रष्‍टाचारी भी लिखता है कविता
कैसे रिश्‍वत देने वाले की दीनता
कविता में करुणा बन जाती है
और घूस लुप्‍त हो जाती है
क्‍या इसी तरह होता है
कविता में भ्रष्‍टाचार का प्रायश्चित
***
बर्फ-सी रातों में
ज़र्द पत्‍तों की तरह झड़ते हैं विचार
अंकुरित होते हैं कुविचार
जैसे पत्‍नी, प्रेमिका, मित्र या वेश्‍या की देह से लिपटकर
जाड़े की ठण्‍डी रातों में
खिलते हैं वासनाओं के फूल
जीवन में सब कुछ
पवित्र ही तो नहीं होता इवान बूनिन
अनुचित और नापाक भी घटता है
जैसे जतन से बोई गई फसलों के बीच
उग आती है खरपतवार
मनुष्‍य के उच्‍चतम आदर्शों के बीचोंबीच
कुविचार के ऐसे नन्‍हें पौधे
सहज जिज्ञासाओं के हरे स्‍वप्‍न
जैसे कण्‍डोम और सैनिटरी नैपकिन के बारे में
बच्‍चों की तीव्र उत्‍कण्‍ठाएं
ब्रह्मचारी के स्‍वप्‍नों में
आती होंगी कौन-सी स्त्रियां
साध्‍वी के स्‍वप्‍नों में
कौन-से देवता रमण करते हैं
कितने बरस तक स्‍वप्‍नदोष से पीडि़त रहते होंगे
ब्रह्मचर्य धारण करने वाले
कामेच्‍छा का दमन करने वालों के पास
कितने बड़े होते हैं कुण्‍ठाओं के बांध
जिस दिन टूटता होगा कोई बांध
कितने स्‍त्री-पुरुष बह जाते होंगे
वासना के सैलाब में
कुण्‍ठा, अपमान, असफलता और हताशा के मारे
उन लोगों की जिंदगियों को ठीक से पढ़ो
कितने विकल्‍पों के बारे में सोचा होगा
खुदकुशी करने से पहले उन्‍होंने
जिंदगी इसीलिए विचारों से कहीं ज्‍यादा
कुविचारों से तय होती है इवान बूनिन
मनुष्‍य को भ्रष्‍ट करते हैं
झूठे आदर्शों से भरे उच्‍च नकली विचार
इक ज़रा-सी बेईमानी का कुविचार
बच्‍चों की फीस, मां की दवा, पिता की आंख
और बीवी की नई साड़ी का सवाल हल कर देता है
कुछ जायकेदार कहीं पकने की गंध
जैसे किसी के भी मुंह में ला देती है पानी
कोई ह्रदय विदारक दृश्‍य या विवरण
जैसे भर देता है आंखों में पानी
विचारों की तरह ही
आ धमकते हैं कुविचार।

7.वाघा सीमा पार करते हुए

पता नहीं पुराणों के देवता ने
तीन डग में समूची धरती
सच में नापी थी या नहीं
लेकिन यहां तो सचमुच
तीन कदम में दुनिया नपती है
पता नहीं दादाजी
किस साधन से आते-जाते थे
यह सरहद बनने से पहले
जिसे मैंने पैदल पार किया है
उनकी मौत के आधी सदी बाद
अगर दादाजी गए होंगे पैदल
तो मेरे कदमों को ठीक वहीं पड़ने दो सरज़मीने हिंद
जहां पुरखों के कदम पड़े थे
दादा के पांव पर पोते का पांव
एक ख्‍वाबीदा हक़ीक़त में ही पड़ने दो
ऐ मेरे वतन की माटी
हक़ीक़त में ना सही
इसी तरह मिलने दो
पोते को दादा से
ऐ आर-पार जाती हवाओ
दुआ करो
आने वाली पीढि़यां
यह सरहद वैसे ही पार करती रहें
जैसे पुरखे करते थे
बिना पासपोर्ट और वीजा के।

8. मृत्‍यु और प्रमाण पत्र

एक

वो नहीं रहे
इसका सबूत क्‍या है
मैंने कहा
जैसे वे गए
वसंत भी चला गया
उन्‍होंने कहा
सबूत पेश करो
शरद, शिशिर, हेमंत और वर्षा भी नहीं रहे
हमें सबका मृत्‍यु प्रमाणपत्र चाहिए।
दो

उन्‍हें चाहिए
हर जगह मूल मृत्‍यु प्रमाणपत्र
कोई प्रतिलिपि नहीं चलेगी

बैंक, बीमा, पेंशन, पानी, बिजली, टेलीफोन
नगर पालिका, आवासन मण्‍डल
सभी को चाहिए
मूल मृत्‍यु प्रमाणपत्र
मैं कहना चाहता हूं कि
पहली बार वे तब मरे थे
जब उन्‍हें स्‍कूल में दाखिला नहीं दिया गया था
उनकी जाति के कारण
इस पहली मृत्‍यु के निशान
जीवन भर रहे उनकी आत्‍मा पर
दूसरी बार उनकी मौत तब हुई
जब सबसे अच्‍छे अंकों से
प्रथम श्रेणी में उत्‍तीर्ण होने के बावजूद
उन्‍हें गांव भर में अपमानित किया गया
दूसरी मौत उन्‍हें शहर ले आई
शहर में उन्‍हें धीरे-धीरे मारा गया
सबसे पहले अच्‍छी कॉलोनी में
किराए के मकान से वंचित रखकर मारा गया
दफ्तर में पानी का अलग
मटका रखकर मारा गया
ज्‍यादा काम करने के बावजूद
औरों के हिस्‍से का काम लाद कर मारा गया
उन्‍होंने धार्मिक जुलूस के लिए चंदा नहीं दिया तो
उनकी दराजों-अलमारियों में
अदृश्‍य रंग में डूबे
रुपये रखकर मारा गया
उन्‍हें पदोन्‍नति में
नाकाबिल कहकर मारा गया
बच्‍चों की पढ़ाई
और मकान के लिए
उन्‍हें कर्जे के लिए अपात्र मानकर मारा गया
सेवानिवृति से ऐन पहले
उनके खिलाफ जांच बिठाकर मारा गया
कचहरी में झूठी गवाहियों से मारा गया
घाघ वकीलों की जिरह में
उन्‍हें लांछनों से मारा गया
आए दिन पल-पल की इस मौत से
सुकून दिलाने वाली
उनकी थोड़ी-सी शराब को
गांधीवाद और मद्यनिषेध के नाम पर
महंगी कर-करके उन्‍हें मारा गया

वे अपनी बमुश्किल सत्‍तर-साला जिंदगी में
दस हजार बार मरे
क्‍या करें हुजूर
इन मौतों का कोई प्रमाण नहीं
यह उनकी आखिरी मौत थी प्राकृतिक
बस इसी का पंजीकरण हुआ है
जिसका दस्‍तावेज है
यह मूल मृत्‍यु प्रमाणपत्र।

9.अंतिम कुछ भी नहीं होता

कोई दिन नहीं अंतिम
न कोई पल अंतिम
झूठी और भ्रामक हैं
अंतिम की सारी अवधारणाएं
जैसे सृष्टि के अंत की घोषणाएं
किसी के अंत या अंतिम होने की बात
लोभ और लालच की संस्‍कृति में
व्‍यापार की नई कला है
बिक्री और छूट का आखिरी दिन
बचे हुए माल को बेचने का तरीका
आवेदन की अंतिम तिथि
गलाकाट प्रतियोगिता का पैंतरा
कमजोर को बाहर करने का हथियार अंतिम
अंतिम आदमी तमाम सूचियों से बाहर
अन्‍न के आखिरी दाने गोदामों में सड़ते
अंतिम पायदान पर लोग तरसते
पानी की आखिरी बूंद पर कंपनियां काबिज
हर अंतिम सत्‍य को झुठलाती संसद
कौन देता है अंतिम रूप उन नीतियों को
जो पहले से त्रस्‍त लोगों को
धकेलती अंत की ओर
समस्‍याओं का आखिरी समाधान
क्‍यों होता है सिर्फ व्‍हाइट हाउस के पास
दरिद्रता के अंतिम मुहाने पर खड़े
आदिवासियों के पास
कहां से आता है आखिरी हथियार
क्‍यों अपनी ही जनता को
गोलियों से भून देने का
बचा रह जाता है आखिरी उपाय
कहीं नहीं कोई अंतिम सत्‍ता
इस अनंत सृष्टि में
हमने मंगल तक जाकर देख लिया

अंतिम कुछ भी नहीं होता
आखिरी सांस के बारे में
सिर्फ मृतक जानते थे
हमारे पास तो सिर्फ इरादे हैं
इनमें से कोई अंतिम नहीं।

10. सपनों में रोती हुई स्‍त्री

मेरे सपनों में अक्‍सर
वो आती है रोती हुई
उसकी घुटी-घुटी चीखें
कांपती हुई दीये की लौ जैसी आवाज़
अंधेरों को चीरकर मुझ तक आती है

भूख से बेहाल
पति से परेशान
बच्‍चों से उपेक्षित
एक स्‍त्री रोती है चुपचाप
उसकी रुलाई मेरे गले में
उमड़ती-घुमड़ती है
एक आवाज़ शब्‍दों में बदलने को बेताब हो जैसे

सदियों से रोती आई है एक स्‍त्री इसी तरह
कविता में उसकी रुलाई का
कोई अनुवाद संभव नहीं हुआ मुझसे
उसकी कातर आंखों में नहीं तैरते
प्रेम-प्रणय के स्‍वप्‍न भरे दृश्‍य
जाने कितने दरवाज़ों में बंद हैं
उसकी पीड़ा और दुखों की गठरियां बेहिसाब
जाने कितनी दीवारें खड़ी कर दी हैं उसने
अपनी दुनिया के इर्द-गिर्द कि
उसकी रुलाई सिर्फ़ सपनों में ही सुनाई देती है

मैं थाम लेना चाहता हूं उसकी हिचकियां
पोंछ देना चाहता हूं उसके आंसू
दुनिया के सामने उसकी नकली मुस्‍कान का परदा
हटा देना चाहता हूं मैं लेकिन
एक हाथ से मुंह ढांप कर
रुलाई को बाहर आने से बचाती हुई वह
दूसरे हाथ से रोक देती है मुझे भी

मेरे सपनों में हाहाकार मचाने वाली
कभी दिन के उजालों में मिले तो
कैसे पहचान पाउंगा मैं
एक रोती हुई स्‍त्री
दिन की रोशनी में सिर्फ़
मृत्‍यु की अभ्‍यर्थना करती है

व्रत, उपवास और प्रार्थनाओं से
एक अज्ञात ईश्‍वर को रिझाकर
जीवन बदल देने की प्रार्थना करती स्‍त्री के आंसू
पूजाघरों में स्‍वीकार्य नहीं होते
जिंदगी के दुखों का मैल है आंसू
तमाम धर्मों में वर्जित हैं
स्‍त्री के आंसुओं के नैवेद्य

स्‍वप्‍न के जाने कौनसे क्षण में
अदृश्‍य हो जाती है वह स्‍त्री
भूख और पीड़ा कब
बच्‍चों की लोरियों की तरह
नींद की चादर तान कर
सुला देती है उसे और मुझे

सुबह की ठण्‍डी हवा में
सूख चुके आंसुओं की नमी है
पक्षियों के कलरव में जैसे
उस स्‍त्री की रुलाई के गीत हैं
बादलों की चित्रकारी में उसका चेहरा है
और मैं आकाश की तरह
चुपचाप सुनता हूं जैसे
पृथ्‍वी का हाहाकार।

11.निरपराध लोग

एक दिन वे उठा लिये जाते हैं या
बुला लिये जाते हैं
तहकीकात के नाम पर-
फिर कभी वापस नहीं आते

कश्‍मीर की वादियों से
तेलंगाना के जंगलों तक
कच्‍छ के रण से
मेघालय की नदियों तक
यह रोज की कहानी है

पिता, भाई, दोस्‍त और रिश्‍तेदार
थक जाते हैं खोजते
मां, पत्‍नी, बहन और बच्‍चे
तस्‍वीर लिए भटकते हैं
पता नहीं तंत्र के कितने खिड़की-दरवाजों पर
देते बार-बार दस्‍तक
बस अड्डे, रेलवे स्‍टेशन और चौक-मोहल्‍लों के
छान आते हैं ओर-छोर

हर किसी को तस्‍वीर दिखाते हुए पूछते हैं वे
इसे कहीं देखा है आपने…
और फिर रुलाई में बुदबुदाते हैं
खोए हुए शख्‍स से रिश्‍ता
’अब्‍बा हैं मेरे… बेटा है… इस बच्‍ची का बाप है’
लेकिन कहीं कोई सुराग नहीं मिलता

वे किसी जेल में बंद नहीं मिलते
न किसी अस्‍पताल में भर्ती
न कब्रिस्‍तान में उनकी कब्र मिलती है
न श्‍मशान में राख और अंतिम अवशेष

जहां कहीं दिखता है उनका पहना हुआ
आखिरी लिबास का रंग
या उनकी कद काठी वाला कोई
घर वाले दौड़ पड़ते हैं उम्‍मीद के अश्‍वारोही बनकर
और उसे न पाकर मायूसी के साथ
याद करते हैं किसी अज्ञात ईश्‍वर को

वे सहते हैं अकल्‍पनीय यंत्रणाएं
वे अपने को निरपराध बताते कहते थक जाते हैं
कुछ भी कबूल करना या न करना
हर रास्‍ता उन्‍हें
मौत की ओर ले जाता है

पेट्रोल से भर दिये जाते हैं उनके जिस्‍म
जैसे तैरना नहीं आने वाले के पेट में
भर जाता है पानी
हाथ-पांव बांध लटका दिये जाते हैं कहीं
जैसे जंगल में शिकारी लटकाते हैं
पकाने के लिए कोई परिंदा या जानवर‍
मिर्च, पेट्रोल और डण्‍डे के अलावा
पता नहीं क्‍या-कुछ भर दिया जाता है उनके गुप्‍तांगों में
मिर्च घुले पानी से नहलाया जाता है उन्‍हें
तो याद आ जाता है उन्‍हें सब्‍जी के हाथ लगी
आंखों की छुअन का मामूली अहसास
पूरे बदन पर पेट्रोल डालकर
माचिस दिखाई जाती है उन्‍हें
तो याद आ जाते हैं उन्‍हें
सड़को पर जलते हुए वाहन
यातनाओं का यह सिलसिला जारी रहता है
उनकी देह में प्राण रहने तक

उनकी लाश बिना भेदभाव के
जला दी जाती है या दफना दी जाती है

सेना-पुलिस कहती है
हमने तो इस शख्‍स को
कभी देखा तक नहीं

ना जाने ऐसे कितने निरपराध लोगों के
लहू से सने हैं उनके हाथ, हथियार और ठिकाने
जिनके परिजन-परिचित उन्‍हें ताउम्र
एक नज़र देखने को तरसते रह जाते हैं

जहां दफ्न होती हैं या जला दी जाती हैं
ऐसे निरपराध लोगों की लाशें
वहीं तो उगते हैं
प्रतिरोध के कंटीले झाड़।

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प्रेमचंद गांधी 
जयपुर

कुछ प्रमुख कृतियाँ – इस सिम्फनी में (कविता संग्रह)

विविध-पं0 गोकुलचन्द्र राव सम्मान – सांस्कृतिक लेखन के लिए(2005);जवाहर कला केन्द्र, जयपुर द्वारा लघु नाटक ‘रोशनी की आवाज’ पुरस्कृत (2004); राजेन्द्र बोहरा स्मृति काव्य पुरस्कार ‘इस सिम्फनी में’ के लिए (2007); लक्ष्मण प्रसाद मण्डलोई सम्मान ‘इस सिम्फनी में’ के लिए (2007)

संपर्क :- प्रेमचंद गांधी, 220 रामा हैरिटेज, सेंट्रल स्‍पाइन विद्याधर नगर, जयपुर 302 039

मोबाइल 09829190626

10 COMMENTS

  1. बेहद उम्दा कविताए बधाई प्रेम जी को और धन्यवाद नित्यानंद जी को । मन प्रसन्न हो गया आभार ।

  2. प्रेमचंद गांधी जी …आपकी सभी कविताएँ बहुत उम्दा हैं ! आपको पढ़ना हमेशा से ही सुखद रहा हैं पर यहाँ की बात कुछ और ही हैं क्योकि यहाँ पर रचनाएं अलग अंदाज़ में नज़र आती हैं ! आई एन वी सी न्यूज़ को हार्दिक शुभकामनाएं !

  3. गांघी जी आपने सभी कविताएँ बहुत ही बढिया लिखी हैं ! साथ में टिप्पणी ने सोने पर सुहागा कर दिया हैं ! मुझे जो कविता सबसे पसंद आई वह ” मृत्‍यु और प्रमाण पत्र ” है !

  4. निरपराध लोग…शानदार ,बहुत ही बढिया कविता हैं ! आपकी बाही सभी कविताएँ भी बार बार पढ़ी जा सकती हैं ! साभार !!

  5. गांधी आपको पहले भी पढ़ा हैं ! आप सच में बहुत शानदार कविताएँ लिखते हैं ! अब आपको पढ़ने का नया पता मिल गया हैं !

  6. हर कविता शानदार है ,किसी एक कविता को अव्वल कह पाना नामुमकिन ! दिल खुश कविताएँ हैं आपकी !

  7. प्रेमचंद जी सपनों में रोती हुई स्‍त्री ….क्या कविता लिखी हैं …शानदार …आपका आई एन वी सी के ” साहित्य संसार ” में स्वागत हैं !…गायेन जी आपकी टिप्पणी बहुत उम्दा हैं !

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