अगर लोकगीतों को जिन्दा रखना है तो उनकी मूल धुन को भी जिन्दा रखना होगा। यह विचार भोजपुरी साहित्य के प्रख्यात लोकवेत्ता राम नारायण तिवारी ने इलाहबाद में आई एन वी सी वरिष्ठ संवाददाता प्रवीण राय से बातचीत के दौरान व्यक्त किये।
श्री तिवारी गोबिन्द बल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के दलित संसाधन केन्द्र में ‘‘विस्थापन और लोकसंस्कृति’’ पर व्याख्यान देने के लिए आये हुए थे। बातचीत के दौरान श्री तिवारी ने विस्थापन के कारण लोक संस्कृति और लोकगीतों में होने वाले परिवर्तन पर अपने विचार रखे।
अपने साक्षात्कार के शुरूआत में लोकगायक ने अपनी खुद की लोकयात्रा के बारे में बताया कि किस तरह वो खुद भोजपुरी संस्कृति की तरफ आकर्षित हुए । श्री तिवारी जी ने पन्द्रह सालों तक लगातार गॉव-गॉव में घूमकर भोजपुरी लोकगीतों को एकत्रित किया। उनके अनुसार नारी का सशक्तीकरण व शूद्रो का सशक्तिकरण सबसे ज्यादा हमारे लोकगीतों में पाया जाता है। इस दौरान लोकगायक ने उन मुश्किलों र्का भी जिक्र किया जो उनको लोकगीतों को एकत्रित करने के दौरान आई।
उन्होने आगे कहा कि आजकल धुनें खत्म हो गई हैं एक धुन पर सात-सात गीत गाये जाते हैं। आधुनिक लड़कियॉं एक ही धुन पर ज्यादातर लोकगीत गा लेती हैं। भोजपुरी संस्कृति प्रवासियों के साथ दूसरे शहरों में जाती तो है पर वहॉ एक विशेष तरह की ‘छूटन, लूटन व घुटन’ का शिकार हो जाती हैं। लोक एक सीमा तक तो अशुद्धि नहीं बरदाश्त कर पाता है पर बाद में समझौता कर लेता है। विस्थापन के कारण हमारी मूल लोक संस्कृति काफी विकृत हो गई है। बाहर से आये लोगों ने भी इस संस्कृति में काफी परिवर्तन कर दिया है।
विस्थापन का एक रुप यह भी है कि आपको हमेशा कमजोर होकर रहना पड़ता है और जो विस्थापित होकर जाता है वो अपनी संस्कृति को कभी भी ठीक से विस्थापित नही कर पाता। जैसे सोहर मूल रुप में कालानुक्रमिक्र क्रम में गाई जाती है लेकिन विस्थापित लोग ऐसे नही गाते ।
लोकसंस्कृति में भी आधुनिकता आ गई है। ज्यादातर त्यौहार आधुनिक तरीके से मनाये जाते हैं जैसे छठ पूजा अब मूल रुप में नही मनाई जाती है। मिश्रित संस्कृति के कारण अब हमारी लोक संस्कृति काफी विकृत हो गई है कैसे और फिल्म वालों ने भी हमारे लोकगीतों को बरबाद कर दिया है।
बताचीत के अन्त में राम नारायण तिवारी ने ‘कजली और बारामासा’ लोकगीत के अन्तर को समझाया। साथ ही कुछ लोकगीत गाकर भी सुनाये।
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