दोहा दौर की वार्ता में नया दौर

सुरेश प्रकाश अवस्थी

यह एक सुखद खबर है कि सितम्बर के पहले सप्ताह में नई दिल्ली में आयोजित विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की दोहा दौर की बातचीत को आगे बढाने के बारे में सहमति सदस्य देशों में बन गई है । भारत की पहल पर विश्व व्यापार संगठन के प्रमुख 35 देशों के वाणिज्य मंत्रियों के इस सम्मेलन में कुछ मुद्दों पर असहमति के बावजूद इस बात पर सहमति थी कि दोहा दौर की वार्ता को सफल बनाने के लिए बातचीत आगे बढाई जानी चाहिए । इस निर्णय के बाद अब जिनेवा में 14 सितम्बर से अधिकारी स्तर की बातचीत शुरू होगी, जिसमें वार्ता की कार्यसूची तैयार की जाएगी । यह भी तय हुआ है कि दोहा दौर की वार्ता 2010 तक पूरी कर ली जाए । दिल्ली में हुए सम्मेलन की समाप्ति पर विश्व व्यापार संगठन के महानिदेशक पास्कर लामी काफी उत्साहित थे । उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि दोहा दौर के मात्र 20 प्रतिशत एजेंडे पर ही सहमति होना बाकी है । परन्तु यथार्थ यही है कि यह 20 प्रतिशत एजेंडा ही विकसित और विकासशील देशों के बीच समझौते के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट बनी हुई है ।

  दिल्ली की दो दिवसीय बैठक की एक उपलब्धि यह रही कि भारत सहित किसी देश ने इस बार कड़ा रुख नहीं अपनाया । वाणिज्य और उद्योग मंत्री आनन्द शर्मा ने सम्मेलन के बाद कहा कि हम बातचीत को आगे बढाने पर सहमत हो गए हैं । सभी सदस्य देशों का मानना है कि बातचीत में लचीलापन अपनाया जाना चाहिए । यही कारण है कि 14 सितम्बर को जिनेवा में फिर से वार्ता शुरू करने का फैसला किया गया है । श्री शर्मा ने दिल्ली सम्मेलन को एक उपलब्धि बताया और कहा कि इस बैठक में यह फैसला होना एक बड़ी बात है कि वार्ता को आगे जारी रखा जाना चाहिए । उन्होंने कहा कि सदस्य देशों की भावना ऐसी ही रही तो अंतिम फैसला भी जल्द ही निकल आएगा ।

 पिछले वर्ष जुलाई में जिनेवा में हुई वार्ता की विफलता के पीछे कृषि पर दी जाने वाली सब्सिडी की मुख्य भूमिका रही । सम्पन्न और विकसित देशों के अड़ियल रुख के कारण बातचीत बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गई थी । असल में,  विकसित देश अपने किसानों को तो कृषि पर भारी सब्सिडी दे रहे हैं परन्तु अपेक्षा यह करते हैं कि विकासशील देश अपने किसानों को यह सरकारी सहायता न दें या कम-से-कम रखें । इस मुद्दे पर विकसित देशों के रुख में कितना परिवर्तन आया है, यह अभी स्पष्ट नहीं है, हालांकि अमेरिका यह अवश्य कह रहा है कि दोहा दौर की बातचीत किसी ठोस नतीजे पर तभी पहुंच पाएगी जब सदस्य देश अपने रुख में लचीलापन लायें। अमेरिका ने यह बात स्वीकार की है कि भारत, चीन और ब्राजील सरीखे देशों पर वार्ता को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका रहने वाली है ।

 दोहा दौर की कुछ शर्तों पर भारत को कड़ी आपत्ति थी । भारत का कहना था कि वह अपने किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी मे कटौती नहीं कर सकता है । इससे भारतीय किसानों की आर्थिक स्थिति में गिरावट आएगी । इसके अलावा, भारत ने कृषि उत्पादों के क्षेत्र में विदेशी कंपनियों के खुले प्रवेश के प्रस्ताव को भी मानने से इनकार कर दिया था । भारत व्यापारिक क्षेत्र में संतुलन चाहता है । उसकी प्रमुख मांग है कि विकसित देश अपने किसानों को बड़ी मात्रा में दे रहे नकद सब्सिडी को कम करें। यदि विकसित देश ऐसा करते हैं तो उनके उत्पादों का भारतीय बाजारों में प्रवेश हानिकारक नहीं होगा । ऐसा करने से भारतीय उत्पाद उनके उत्पादों से प्रतिस्पर्धा में आसानी से उतर सकेंगे । वर्तमान में, विकसित देशों के उत्पाद इसीलिये सस्ते पड़ते हैं क्योंकि सरकार किसानों और व्यापारियों को नकद सब्सिडी देती है ।

 नई दिल्ली के लघु मंत्रिस्तरीय बैठक के दौरान जो तेवर मेजबान भारत ने दिखाए, वे उसकी, विकासशील देशों के नेतृत्व की भूमिका को पुष्ट करते हैं । व्यापार वार्ता के उरुग्वे दौर की सफल समाप्ति और विकास के मुद्दे पर केन्द्रित मौजूदा दोहा दौर में पूर्व में भारत के वाणिज्य मंत्री रहे सर्वश्री मुरासोली मारन, प्रणव मुखर्जी और कमलनाथ की भूमिका इतनी मुखर रही है कि संगठन के सौ से ज्यादा गरीब और विकासशील देशों के वर्ग में भारत की पहचान एक निर्णायक नेता की हो गई है । खासतौर पर 2005 की हांगकांग की मंत्रिस्तरीय बैठक से लेकर 2008 की जिनेवा बैठक तक पूर्व वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने जिस प्रभावशाली ढंग से सम्पन्न देशों की कृषि सब्सिडी की समाप्ति को दोहा दौर की मुख्य शर्त का स्थान दिलाया उससे भारत स्वाभाविक रूप से इन विकासशील देशों का अघोषित प्रवत्ता बन गया है । विकसित देशों ने तब भारत की भूमिका को र्साजनिक आलोचना की थी और वार्ता की विफलता का दोष भारत के सिर मढ दिया था । कूटनीतिक जगत में ऐसा माना जा रहा है कि ऐसे कुप्रचार पर अंकुश लगाने और वार्ता की बहाली के प्रति अपनी गंभीरता और प्रतिबध्दता को रेखांकित करने के उद्देश्यों को लेकर ही भारत ने नई दिल्ली में 35 देशों के मंत्रियों का सम्मेलन आयोजित किया था । इस सम्मेलन मे कोई कड़ा बयान जारी नहीं किया गया क्योंकि यह पहले ही स्पष्ट कर दिया गया था कि इसका उद्देश्य केवल विवाद के मुद्दों पर जमी धुंध को साफ करना था ।

 दोहा दौर की 2008 (जुलाई) की वार्ता के बाद से लेकर अब तक दुनिया, विशेषकर, विकसित देशों की अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा गई है । आर्थिक मंदी के प्रकोप से ये देश निकल नहीं पा रहे हैं । दूसरी ओर, विकासशील देशों ने वैश्विक आर्थिक मंदी का मुकाबला ज्यादा बेहतर ढंग से किया है । मंदी से उबरने के लिए विकसित देशों को विकासशील देशों के बाजार की दरकार है । इसलिए दोहा दौर की वार्ता को सफल बनाना विकासशील देशों के मुकाबले विकसित देशों की ज्यादा मजबूरी है । पिछले साल सवा साल में आर्थिक मंदी से जूझ रहे विकसित देशों ने यदा-कदा परोक्ष और अपरोक्ष रूप से यह स्वीकार भी किया है कि इस मंदी से वे अकेले ही नहीं लड़ सकते । इसके लिए विकासशील देशों का साथ और सहयोग आवश्यक है । इसके बावजूद, उनकी नीतियों में आमूल परिवर्तन आया हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता । आउटसोर्सिंग सहित अनेक मामलों में उनका संरक्षणवादी रवैया बरकरार है । असल में, यह संरक्षणवादी रवैया ही वार्ता में सबसे बड़ी बाधा है ।

 बाजारों की तलाश में बैचेन हो रहे विकसित देश भले ही वार्ता को अगले वर्ष ठोस नतीजे तक ले जाने को व्यग्र हो रहे हों परन्तु, बकौल ब्राजील के विदेश मंत्री और जी-20 देशों के सम्मेलन के सूत्रधार सेलसो अमेरिम ने स्पष्ट कर दिया है कि यह दौर लम्बा भी खिंच सकता है । वाणिज्य और उद्योग मंत्री आनन्द शर्मा भी कह चुके हैं कि गतिरोध समाप्त करने के लिए सौहार्दपूर्ण पहल का अर्थ अपने हितों से समझौता करना नहीं है । हालांकि संपन्न देशों की भरपूर कोशिश होगी कि किसी तरह भारत समेत अन्य विकासशील देशों को दोहा समझौते के लिए राजी कर लिया जाए । यही कारण है कि दिल्ली के दो दिवसीय सम्मेलन के बजाए जिनेवा सम्मेलन सात दिनों का होगा ताकि बातचीत और समझौतों में वक्त की कमी आड़े न आए ।
 
 भारत और विकासशील देशों की यह मांग उचित ही है कि विकसित देश पहले अपने यहां कृषि सब्सिडी समाप्त करें और अपने बाजार को हमारे उत्पादों के लिए पूरी तरह खोलें । उनके लिए यह जीवन मृत्यु का प्रश्न है । आखिर विकासशील देशों के गरीब किसान विकसित देशों के सम्पन्न किसानों का मुकाबला कैसे कर सकते हैं ? काली मिर्च, कॉफी, चाय और नारियल की खेती से जुड़े किसान विदेशों से आ रही सस्ती जिन्सों की मार से बेहाल हो रहे हैं । दैनिक उपभोग के अनाज, दलहन और चीनी में लगी आग न केवल उपभोक्ताओं को परेशान कर रही है बल्कि किसान भी उससे झुलस रहे हैं । इसलिए किसानों के हितों की रक्षा, भारत के लिए केवल बहस का मुद्दा नहीं है, बल्कि किसानों की आजीविका से जुड़ा हुआ है ।

 विकसित देश, माने या न माने, परन्तु वे यह बात भली-भांति जानते हैं कि आर्थिक मंदी ने उन्हें जो चोट पहुंचाई है, उसका इलाज भारत, चीन जैसे विकासशील देशों के पास ही है । उन्हें यह समझना होगा कि विकासशील देशों के बगैर उनकी गुजर संभव नहीं है । अत: यदि वे चाहते हैं कि अगले साल तक दोहा वार्ता परवान चढे तो उन्हें अपना अड़ियल रवैया छोड़ना होगा और विकासशील देशों को सही अर्थों में विश्व व्यापार का समान भागीदार बनाना होगा ।

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