तिरछी नजर
चौकीदार बदले में चौक न ले लें !
झुंड कौओं के हर कोने पर
कांव-कांव करते
शोक सभाओं में खा पी कर
तृप्त झुंड ऐलान करते
क्राँति आई, क्राँति आई।
कौओं कुण्ड में थी
एक कोयल कूं कूं करती।
आया कहीं से एक तीर
कोयल हुई घायल, दर्द की मारी
हवा ने भी उसके दर्द को गाया
क्रँति चली कहीं और
कोयल के दर्द को लिए।।
मीना गजभिए की इस कविता की तरह सियासी सौदागरों का मौसम आ गया है। हर गली कूचे में सिर्फ अपने सियासी फायदें के लिए तरह -तरह के प्रलोभन देते हुए अपने आपको कोई देश का तो कोई वोटर का चौकीदार बनने के लिए वोट माँग रहा है। चौकीदार का काम चौकन्ना रहना है पर, किस से ? इस सवाल का उत्तर आसान नही है। जिस भी चौकीदार से सवाल किया कि चौकीदारी किसकी करोगे, कैसे करोगें, सबके सब मौन हो जाते है। इस मौन के पीछे छुपा कौतूहल परेशान किये है। वक्त बदला है, राजा फकीर हो गये, रंक राजा बन गए। नई परिभाषा गड़ने के इस मौसम में लोक का विवेक चौकीदारों के सवाल पर बड़ा ही परेशान करने वाला है। जनता के सामने कितने चौकीदार निष्ठा और प्रतिष्ठा बदलते रहे है। एक की चौकीदारी करते करते दूसरे दल के चौकीदार बन जाते है। इस भूल भुलैया में सब कुछ अगड़म बगड़म हो गया है। एक दली चौकीदार, दो दली चौकीदार, मौका परस्त चौकीदार, छुपे इरादों वाला चौकीदार, दलबदलुओं का सरताज चौकीदार, रणछोड़दास चौकीदार, दल से ठुकराया गया चौकीदार, दलदल मंे फंसा चौकीदार मंे से किस चौकीदार को फिर से दिल्ली की राह दिखाना है। इस बात पर निर्णय लेने के पहले मालवा की एक लोक कथा याद आती है-
कांव-कांव करते
शोक सभाओं में खा पी कर
तृप्त झुंड ऐलान करते
क्राँति आई, क्राँति आई।
कौओं कुण्ड में थी
एक कोयल कूं कूं करती।
आया कहीं से एक तीर
कोयल हुई घायल, दर्द की मारी
हवा ने भी उसके दर्द को गाया
क्रँति चली कहीं और
कोयल के दर्द को लिए।।
मीना गजभिए की इस कविता की तरह सियासी सौदागरों का मौसम आ गया है। हर गली कूचे में सिर्फ अपने सियासी फायदें के लिए तरह -तरह के प्रलोभन देते हुए अपने आपको कोई देश का तो कोई वोटर का चौकीदार बनने के लिए वोट माँग रहा है। चौकीदार का काम चौकन्ना रहना है पर, किस से ? इस सवाल का उत्तर आसान नही है। जिस भी चौकीदार से सवाल किया कि चौकीदारी किसकी करोगे, कैसे करोगें, सबके सब मौन हो जाते है। इस मौन के पीछे छुपा कौतूहल परेशान किये है। वक्त बदला है, राजा फकीर हो गये, रंक राजा बन गए। नई परिभाषा गड़ने के इस मौसम में लोक का विवेक चौकीदारों के सवाल पर बड़ा ही परेशान करने वाला है। जनता के सामने कितने चौकीदार निष्ठा और प्रतिष्ठा बदलते रहे है। एक की चौकीदारी करते करते दूसरे दल के चौकीदार बन जाते है। इस भूल भुलैया में सब कुछ अगड़म बगड़म हो गया है। एक दली चौकीदार, दो दली चौकीदार, मौका परस्त चौकीदार, छुपे इरादों वाला चौकीदार, दलबदलुओं का सरताज चौकीदार, रणछोड़दास चौकीदार, दल से ठुकराया गया चौकीदार, दलदल मंे फंसा चौकीदार मंे से किस चौकीदार को फिर से दिल्ली की राह दिखाना है। इस बात पर निर्णय लेने के पहले मालवा की एक लोक कथा याद आती है-
एक किसान के खेत में लगातार चोरियां हो रही थी। भ्रसक सावधानी और निगरानी के बाद भी चोरियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं। अपने दिन-रात के परिश्रम से उपजे अन्न पर हो रही यह डकैती किसान को परेशान किए हुए थी। उसने लगातार निगरानी की। वह चोरियां तो बंद नहीं कर पाया लेकिन उसने पता लगा लिया कि चोर कौन है। अगले दिन उसने चोर को बुलाया और मासिक पगार तय करके उसे अपने खेत की रखवाली सौंप दी।
परिणाम अनुकूल रहा। खेत में चोरी बंद हो गई। किसान खुश हो गया। उसने अगले साल फिर चोर को चौकीदारी दे दी। चोर ही जब रखवाला बन गया तो चोरी होने का सवाल ही नही रहा। अब किसान निश्चिंत। लेकिन बात यही रुक कर नहीं रह गई। कुछ बरस बादकिसान यह देखकर हतप्रभ रह गया कि जिसे चौकीदार बनाया था उसने खेत की मिल्कियत पर दावा कर कब्जा कर लिया है। स्थिति यह हो गई कि खेत में चोरी तो नहीं हो रही लेकिन अपना पेट भरने लायक अन्न पाने के लिए खेत का मालिक किसान अब भिखारी बन कर चोर के दरवाजे पर खड़ा रहता है। अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए किसान को भरपूर अनाज तो मिलने लगा लेकिन खेत की मिल्कियत उससे छिन गई। अब इस लोक कथा से सबक लेने का वक्त है। द्वारे -द्वारे वोटांे के सौदागर कभी पश्चाताप के ऑसू बहाते तो कभी स्वाद पुराण की कथा सुनाते गागर में सागर भरने की काबलियत बताते वोटों को लूटने के लिए जुगत लगा रहे है। ईट का जवाब पत्थर से देने के लिए कवि केदार की ये पक्तियां याद आती है-