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2014 में होने वाले लोकसभा के आम चुनावों की तिथियां घोषित होते ही देश की राजनीति में दलीय चुनावी समीकरण बनने-बिगडऩे शुरु हो चुके हैं। आयाराम गयाराम की राजनीति का बाज़ार गर्म हो चुका है। राजनीति के दिग्गज अपने राजनैतिक लाभ-हानि के मद्देनज़र कहीं दल बदल करते दिखाई दे रहे हैं तो कहीं गठबंधन के पुराने रिश्तों की बलि चढ़ाकर नए गठबंधन की ओर पींगें बढ़ाई जा रही हैं। और अपने को मज़बूत करने की खातिर ही राजनेताओं व राजनैतिक दलों द्वारा विभिन्न धर्मों,संप्रदायों व जातियों के लोगों को अपने साथ जोडऩे व आकर्षित करने के भी तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाने लगे हैं। इस क्रम में हमेशा की तरह इस बार भी भारतवर्ष के मतदाताओं की संख्या के लिहाज़ से अपनी दूसरे नंबर की हैसियत रखने वाले मुस्लिम अल्पसंख्यक मतदाताओं पर देश के लगभग सभी राजनैतिक दलों की नज़रें टिकी हुई हैं।
ग़ोर रतलब है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला मुस्लिम समुदाय सौ से अधिक लोकसभा सीटों पर अपनी निर्णायक भूमिका अदा करने की क्षमता रखता है। इसलिए कोई भी राजनैतिक दल मुस्लिम मतदाताओं की अनदेखी नहीं करना चाहता। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी ने भी भले ही गुजरात में लगभग 9 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता होने के चलते शेष बहुसंख्यक मतदाताओं को अपने साथ जोडऩे के लिए 2002 में हुए दंगों-फ़सादों के बाद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराकर राज्य की सत्ता पर अपना नियंत्रण क्यों न कर लिया हो पंरतु अब यही भाजपा यह भी महसूस कर रही है कि दिल्ली दरबार पर अपनी पताका फहराने के लिए वह मुस्लिम मतदाताओं की अनदेखी नहीं कर सकती।पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह द्वारा देश के मुसलमानों से आवश्यकता पडऩे पर माफी मांगने की बात कहना भी इसी संदर्भ में देखा जा सकता है।
हालांकि मैं निजी रूप से इस बात का कतई क़ायल नहीं हूं कि धर्म, जाति व संप्रदाय के आधार पर देश में किसी राजनैतिक दल का गठन हो अथवा कोई विशेष धर्म,समुदाय या जाति के लोग किसी दल विशेष के साथ केवल समुदाय के आधार पर जुड़ें। भारतवर्ष एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और इसकी यह पहचान बनी रहे इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि राष्ट्र धर्म व जाति संसदीय व्यवस्था से कतई दूर रहे। परंतु हमारे देश के नेताओं व कई राजनैतिक दलों द्वारा मात्र स्वयं को सत्ता में बनाए रखने की खातिर बार-बार ऐसे प्रयास किए जाते हैं। और इन कुंठित प्रयासों के दौरान न केवल विभिन्न धर्मों व संप्रदायों के बीच नफरत का ज़हर फैला दिया जाता है बल्कि खून की होलियां खेलने से भी परहेज़ नहीं किया जाता।
ऐसी स्थिति न केवल देश की धर्मनिरपेक्षता के लिए घातक है बल्कि राष्ट्रीय एकता व अखंडता के लिए भी यह स्थिति बेहद ख़तरनाक है। कितनी शर्मनाक बात है कि भाजपा द्वारा 2002 में राज्य के मुसलमानों का दमन अपने राजनैतिक लाभ को ध्यान में रखते हुए किया गया तो आज राष्ट्रीय राजनीति में अपना वर्चस्व बनाने के लिए उसी वर्ग से माफी मांगने की बात भी की जाने लगी है। देश के मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा को अपना समर्थन देने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। परंतु भाजपा को मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के प्रयासों से पूर्व देश केमुसलमानों को कुछ सवालों के जवाब तो ज़रूर देने चाहिए।
हमारा देश अध्यात्मिक,स्वाभाविक,राजनैतिक तथा भौगोलिक सभी दृष्टिकोण से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। हमारे देश का संविधान भी पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर आधारित संविधान है। देश के अधिकांश राजनैतिक दल यहां की बहुसंख्य जनता,मतदाता सभी इस बात को स्वीकार करते हैं। परंतु भाजपाई हमेशा देश की इस धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था का मज़ाक उड़ाते, सेक्यूलर विचार के लोगों को अपमानित करते तथा विभिन्न धर्मों को जोडऩे के प्रयासों को उचित नहीं मानते। भले ही वे दुनिया को दिखाने के लिए अपने दल में राजनैतिक मुखौटे के रूप में कभी सिकंदर बख़त,कभी आरिफ बेग,कभी मुख़तार अब्बास नक़वी तो कभी शाहनवाज़ हुसैन जैसे मुस्लिम नेताओं के चेहरों व उनके नामों का प्रयोग भी करते हों।
परंतु वास्तव में यह अल्पसंख्यक उनका मुखौटा मात्र ही हैं। और देश का अल्पसंख्यक मतदाता इस बात को भलीभांति समझता भी है। इसका एक और प्रमाण यह भी है कि भाजपा के संरक्षक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा विश्व हिंदू परिषद साफतौर पर अपने एजेंडे में हिंदू राष्ट्र के निर्माण को सर्वोपरि रखते हैं तथा देश के अल्पसंख्यक समुदाय को दूसरे दर्जे का नागरिक समझते हैं। वैसे भी विश्व हिंदू परिषद व संघ के नेताओं की मुस्लिम अल्पसंख्यकों संबंधी आक्रामक बयानबाज़ियां देश की कई बड़ी हिंसक व आतंकवादी घटनाओं में उनका शामिल होना इस बात का पुख्ता सुबूतहैं कि संघ परिवार देश में धर्म आधारित ध्रुवीकरण कराए जाने का पक्षधर है।
कुछ माह पूर्व पश्चिम उत्तर प्रदेश का प्राय: शांतिपूर्ण समझा जाने वाला मुज़फ्फरनगर क्षेत्र एक व्यक्तिगत् रंजिश के चलते सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल उठा। इसमें लगभग कई राजनैतिक दलों के लोग दंगों को भडक़ाने में शामिल पाए गए। इनमें जहां दूसरे कई राजनैतिक दलों के कई नेता शामिल थे वहीं भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय नेताओं व विधायकों ने भी दंगों को भड़काने का काम किया। परंतु भारतीय जनता पार्टी ने इन दंगों के बाद होने वाली पुलिस कार्रवाई में अपनी पार्टी के विधायकों की गिरफ़तारी का ज़बरदस्त विरोध किया। इतना ही नहीं बल्कि जब यह विधायक गिरफ्तार होने के बाद जेल से रिहा हुए तो दंगा फैलाने के इन दोषियों का पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा ज़ारेदार स्वागत किया गया।बात यहीं पर खत्म नहीं हुई बल्कि इन्हीं दंगाई विधायकों को भाजपा के उस मंच से आगरा में सम्मानित किया गया जिस मंच पर नरेंद्र मोदी ने उसी समय अपना भाषण दिया। सार्वजनिक रूप से भाजपा द्वारा इस प्रकार का प्रदर्शन करना अपने-आप में यह सोचने के लिए पर्याप्त है कि भाजपा व संघ परिवार के एजेंडे में कोई अंतर नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा वही चाहती है जोकि गुजरात में हो रहा है यानी धर्म के आधार पर मतों का ध्रुवीकरण। परंतु भाजपा नेता देश की जनता के धर्मनिरपेक्ष मिज़ाज से भी चूंकि बखूबी वाकि़फ हैं इसलिए समय-समय पर मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने तथा उनसे माफ़ी मांगने जैसी बातें भी करते रहते हैं।
नेरंद्र मोदी के विषय में 2002 के बाद तमाम बातें हो चुकी हैं। आज उन्हें भी यह महसूस हो रहा है कि दिल्ली की सत्ता पर बैठने के लिए देश की लगभग एक चौथाई आबादी की अनदेखी नहीं की जा सकती।परंतु इसके बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर संप्रदाय के आधार पर ध्रुवीकरण करने संबंधी अपना कोई भी मौका वे नहीं गंवाते। उदाहरण के तौर पर गत् वर्ष देश को दिखाने के लिए मोदी ने गुजरात में सद्भावना यात्रा निकाल कर राज्य में सद्भावना का संदेश देने का एक अच्छा प्रयास किया। परंतु उसी दौरान जब किसी मुस्लिम मौलवी ने ससम्मान उनके सिर पर अपने हाथों से एक टोपी रखनी चाही तो उन्होंने उसे सार्वजनिक रूप से अपने सिर पर रखने से मना कर दिया। अब इसे सद्भावना बनाए जाने वाला चरित्र कहा जाए या मुस्लिम विरोधी मानसिकता की पहचान व ध्रुवीकरण का संदेश? जबकि नरेंद्र मोदी को देश के सभी क्षेत्रों में अलग-अलग क्षेत्रीय पगड़ी,टोपी अथवा साफा पहने देखा जा सकता है।गोया नरेंद्र मोदी को केवल किसी मौलवी द्वारा भेंट की गई टोपी स्वीकार नहीं। परंतु इन्हें प्रधानमंत्री बनने के लिए मुस्लिम मतों की दरकार ज़रूर है। मैं नहीं समझता कि ऐसे राजनैतिक चरित्र को धर्मनिरपेक्ष,सद्भावपूर्ण अथवा राजधर्म निभाने वाला चरित्र कहा जा सकता है। और यदि मोदी में ऐसा होता तो स्वयं भाजपा के सबसे वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी नरेंद्र मोदी को राजधर्म का पालन करने की हिदायत नहीं देते।
भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह से एक सवाल यह भी है कि जिस समय पीलीभीत में वरूण गांधी ने मुसलमानों के विरुद्ध आपत्तिजनक एवं हिंसक टिप्पणी की थी और इस आरोप में वे जेल भेजे गए थे उस समय राजनाथ सिंह ने मुस्लिम विरोधी भाषण देने वाले वरुण गांधी से जेल में जाकर मुलाकात की थी तथा उसकी हौसला अफज़ाई की थी। उस भाषण के बाद वरुण गांधी को देश में कई जगह सभा करवाकर उग्र हिंदुत्व की बात करने वाले नेताओं में वरुण को भी शामिल कर दिया था। इतना ही नहीं बल्कि सुब्रमण्यम स्वामी जिसने कि भारतीय मुसलमानों से उनके मताधिकार छीन लेने की वकालत की थी उसे इस वक्तव्य के बाद भाजपा में शामिल किया गया था।सुब्रमण्यम स्वामी को भाजपा में शामिल कर पार्टी किसे और क्या संदेश देना चाह रही है? यदि यह सब देश के उग्र हिंदुतव की विचारधारा रखने वाले मतों के ध्रुवीकरण का ही प्रयास नहीं तो और क्या है? इस प्रकार की मुस्लिम विरोधी भावनाएं रखने वाले स्वामी को भाजपा ने आखिर पार्टी सदस्य क्यों बनाया? बहरहाल,जनादेश 2014 की रणभेरी बज चुकी है। अब देखना है कि भारतीय जनता पार्टी भारतीय मुसलमानों में किस प्रकार अपना विश्वास कायम करती है अथवा ध्रुवीकरण की राह पर चलते हुए चुनाव से पूर्व अभी और क्या गुल खिलाती है?
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