कोविड -19 का संकट और प्रबंधन – महात्मा गांधी के देवदूतात्मक मार्गदर्शन से
– प्रो नवीन माथुर –
पूरी दुनिया आज कोविद -19 के संकट की गिरफ्त में मगर शुकून देने वाली बात यह है कि उम्मीदों के चिराग अभी धूमिल नहीं हुए हैं/ सुदूर किसी भी देश से जब दबाई खोजने की बात हो या फिर वैक्सीन बनाने की सफलता की खबर हो; धूमिल होते उम्मीदों के चिराग जगमगा उठते हैं और ऐसा महसूस होता है कि हमारे किसी पड़ौसी दोस्त या रिश्तेदार के यहाँ से खुशी एवम सफलता की खबर आई है /
यूँ तो कोरोना का खानदान बहुत बड़ा है मगर उसके फ़ैमिली का जो सबसे आतंकी सदस्य वायरस है उसका नाम है कोविद- १९ जो आज पूरी दुनियां में अचानक से एक कुख्यात बन गया है/ आज इसे दुनिया के सबसे खतरनाक वायरस यानी महामारी अजातशत्रु के रूप में सर्व सुलभ पहचान एवम ख्याति मिल गई है/ आज इसने चिकित्सा पेशेवरों, प्रशासकों व वैज्ञानिकों की व्यवसाय क्षमताओं को अस्त, व्यस्त एवं त्रस्त कर दिया है। आज बदलती हुई अनिश्चितताओं के धुआं और धुंध में कोविद -19 ने हँसती खेलती एवम प्रगतिशील दुनियाँ के मंच पर एक ऐसा मंजर पेश कर दिया है जहां दुनिया के अमीर और गरीब, सरकार और शासित, नेता और नेतृत्व, सामान्य और असामान्य हर इन्सान को समतामूलक ईश्वर की सत्ता के समक्ष एक धरती और एक जाजम पर लाकर खड़ा कर दिया है। आज कोरोना पॉजिटिव मामलों की बढ़ती संख्या के कारण लाखों लोगों की दुखद और असामयिक मौतों ने सार्वजनिक रूप से भय और आतंक को जन्म दिया है और सरकार, नीति निर्माताओं और वैज्ञानिकों को दिग्भ्रमित माहौल में यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि आप मानो या ना मानो परंतु आज भी विज्ञान एवं तकनीक की सत्ता प्रकृति की सत्ता के आगे बहुत ही तुच्छ और सीमित है।
आज हर कोई इस सबसे अप्रत्याशित मगर महत्वपूर्ण समस्या का समाधान खोजने के लिए जुनूनी हद तक जाकर मानवता की मदद करने व हल खोजने में लगा हुआ है/ एक तरफ वैज्ञानिक इस खतरनाक वायरस का मुकाबला करने के लिए एक वैक्सीन खोजने के भागीरथ प्रयासों में लगे हैं, वहीं पत्रकार, लेखक, गायक, टीवी कलाकार, योग प्रशिक्षक, एवम समाज सेवक सभी अपने अपने तरीके से इससे निजात पाने के हर सम्भव सहायता प्रकल्पों में लगे पड़े हैं । विशेषज्ञ लोगों को यह बताने में व्यस्त हैं कि मन और शरीर के संतुलन को कैसे बनाए रखें, धार्मिक मार्गदर्शक जीवन में आध्यात्मिकता और जिंदगी की वास्तविकताओं के बारे में बात कर रहे हैं, शिक्षाविद् छात्रों को ऑनलाइन शिक्षण में व्यस्त हैं और मनोवैज्ञानिक अवसाद और अकेलेपन से निपटने के तरीके सुझा रहे हैं। अर्थात यदा-कदा, यहां-वहां सर्वत्र चर्चा के केंद्र में अगर कोई आज खड़ा है तो वह है कोविद -19, यहां तक कि सोशल मीडिया में भी चर्चा का एकमात्र विषय है कोविद -19/ यूँ कहें कि “कोरोनोवायरस के ही समाचार सुर्खियां हैं और समाचार की सुर्खियां ही कोरोनावायरस है ” चाहे वह अखबार हो या टीवी चैनल हर जगह पर हावी है तो सिर्फ कोरोना।
इस महामारी के भूमण्डलीकृत प्रभाव को देखते हुए, कई प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और एजेंसियां भारत और विश्व अर्थव्यवस्था की निराशाजनक तस्वीर पेश कर रहे हैं / हकीकत के धरातल पर निस्संदेह, जनसमूह की सामाजिक और आर्थिक स्थिति सुस्त चल रही है/ ऐसे माहौल में विकाशील देशों की गरीबी सबसे भयावह समस्या बनती जा रही है। यहाँ सवाल उठता है कि भारत जैसे विकासशील देशों की सरकारें क्या करें ? उनके पास आज की परस्थितियों में सबसे कारगर एवम प्रभावी अगर कोई तरीका है तो वह है सिर्फ “सोशल डिस्टैन्सिंग एवम लॉकडाउन ” / सोशल डिस्टैन्सिंग, लॉकडाउन और कर्फ्यू समय की जरूरत तो है, मगर सभी उद्योगों और संस्थानों के बंद होने से बेरोजगारी, भुखमरी और कुपोषण की जो समस्या बढ़ती जा रही है उससे कैसे और कब तक निजात मिलेगी इसको सोच कर सभी के चेहरों पर चिंता की लकीरें उभर आती हैं/ चूँकि यत्र तत्र सर्वत्र एक ही अहम् सवाल उठता है कि ये कब तक चलेगा ? यानी महामारी का अंत कब होगा? इस सवाल के जबाव में जितने मुंह उतनी बातें/ पूरी दुनियां के वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, भविष्यवक्ता एवं अर्थशास्त्री सभी दिक्भ्रमित हैं/ कोई कहता है कि इसका अंत दिसंबर 2020 तक होगा तो दूसरा कहता है कि 2022 एवं कुछ तो इसको 2024 तक खींचकर इसके साथ जीने की सलाह तक दे रहे हैं/ 20 साल से अधिक समय तक अमेरिका के चार राष्ट्राध्यक्षों के कार्यकालों में महामारियों के खतरों पर रिसर्च करने वाले अमेरिकी वैज्ञानिक एवं सेंटर फॉर इन्फेक्शस डिजीज रिसर्च एंड पॉलिसी निदेशक तो यहाँ तक कहते हैं कि 60 से 70 प्रतिशत अमरीकी लोग शर्दियों में आने वाले इसके एक और दौर में संक्रमित होंगे और उसके बाद यदि वैक्सीन बन गयी तो अमरीका भाग्यशाली होगा/ यह बात उन्होंने हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ एपिडेमीओलॉजिस्ट के विशेषज्ञ मार्क लिप्सिच के साथ साझा रिपोर्ट कही है/ जब ऐसा ही एक सवाल ” भविष्य में आगे देखते हुए, आप क्या आशा करते हैं? क्या COVID-19 कभी गायब होगा ? दुनियाँ के जाने माने महामारी विशेषज्ञ एवम विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक के वरिष्ठ सलाहाकार डॉ ब्रूस आयल्वर्ड जो कि 30 साल से पोलियो एवं ईबोला पर काम कर रहे हैं से पूछा गया तो उनका जवाब था ” ऐसा लगता है कि हम मूल रूप से गोलाकार दुनियाँ के मध्य में इस बीमारी की पर्याप्त लहर के साथ चल रहे हैं/ जब तक कि उत्तर से दक्षिणी गोलार्ध तक कुछ बहुत अलग नहीं होता है, तब तक कुछ नहीं कहा जा सकता। और फिर सवाल यह है कि क्या होने जा रहा है? क्या यह पूरी तरह से गायब हो रहा है? क्या हम चक्रीय तरंगों की अवधि में आने वाले हैं? या क्या हम निम्न स्तर की स्थानिक बीमारी से जूझ रहे हैं जिससे हमें निपटना है पहले है बाद में कोरोना से ? ज्यादातर लोगों का मानना है कि पहला परिदृश्य जहां यह पूरी तरह से गायब हो सकता है, बहुत ही कम संभावना है, यह अभी भी प्रसारित हो रहा है/ अभी कुछ वक्त और लगेगा कुछ ठोस बताने में “/ इस प्रकार इन सभी बातों से तो यही लगता है कि जैसे दुनियाँ गोल है वैसे ही भविष्यवाणियाँ एवम जवाब भी गोल गोल ही हैं/
यदि वापिस भारत में लॉकडाउन की हम बात करें तो इसकी यदि समय सीमा इसी कदर बढ़ती गयी और जनता की लापरवाहियां भी बढ़ती गई तो मजबूर मजदूर की जिंदगी के तिलिस्म विखरने से कैसे बचेंगे और कब तक? यह सब सरकारों के लिए पहेली बना हुआ है/ इस स्थिति को सभी राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थान एवं उनके विशेषज्ञों जैसे अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, संयुक्त राष्ट्र एवं विभिन्न प्रकार की अन्य एजेन्सीओं ने तो अनिश्चितताओं की बातें बोल बोल कर कोरोना वायरस के प्रसार से निपटने व कड़े प्रशासनिक उपायों से गरीबी की समस्या को कम करने के बजाए और बढ़ा दिया है।
कोविद -19 द्वारा उत्पन्न सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए उपलब्ध उपायों पर विचार-विमर्श करना आज न केवल महत्वपूर्ण वल्कि प्रासंगिक भी है। भारत जैसे विकाशील देश में तो ये चुनौतियां अत्यंत ही गहरी हैं क्योंकि यह एक बड़ा देश है, जो उत्तर से दक्षिण तक दो हजार मील और पूर्व से पश्चिम तक एक हजार सात सौ मील की दूरी में फैला हुआ है, जिसमें एक सौ छत्तीस करोड़ की आबादी अनेकों समस्याओं एवं तंत्रों से जूझ रही है। इसमें दैनिक वेतन पाने वालों की संख्या तो इतनी है जिसको अगर अर्थशास्त्र के चश्मे से देखा जाए तो सारी अर्थव्यवस्था और उसके ताने-बाने लड़खड़ाने लगते हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की ताजा रिपोर्ट ने दुनियां में ३.३ बिलियन मानवशक्ति के बुरी तरह प्रभावित होने का अनुमान लगाया है जिसमें भारत जैसे विकासशील देश के यदि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की बात करें तो वे अनेकों सुधारो के बावजूद अभी भी उन हालातों में नहीं पहुंचे हैं जहां पर उनकी तुलना विकसित देशों के मजदूरों से किसी भी दृष्टि या बिंदु पर की जा सके और आज के बेरोजगारी के हालात में जहां राज्य एवं केंद्र सरकार स्वयं अपने वित्तीय घाटे के कारण लड़खड़ाती हुई घबराहट भरे कदमों से उनकी सहायतार्थ जो कुछ कर रही हैं वह सब ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर ही है।
यदि विकसित वनाम विकासशील दृष्टि से कोविद – १९ से होने वाली मृत्युदर पर नजर डाली जाये तो संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे विकसित देशों की तुलना में भारत में जनसंख्या के अनुपात में मौतों की संख्या बहुत कम है/ अनेकों कारणों में से एक प्रमुख कारण है यहाँ का भारतीय दर्शन “सर्वजन हिताय- सर्वजन सुखाय” / इसे दुनियाँ विकासशील वनाम विकसित चश्मे से चाहे माने या ना माने मग़र भारत का जनमानस जिस जतन के साथ आज दिल खोलकर मानवता की सेवा में सारी वर्जनाओं को तोड़कर लगा हुआ है वह आज भूमंडलीकृत मीडिया की आँखों से दुनियां को अवश्य दिख रहा है/ वे सोच रहे होंगे शायद कि यही है वह संस्कृति और सभ्यता जो भारत को विश्व में अलग एवम अद्वितीय स्थान दिलाती है जिसे आप चाहे विश्व गुरु कहें या फिर विश्व मानवता का प्रमाणिक मार्गदर्शक/
यूं तो का एक लम्बा एवम महान बौद्धिक इतिहास रहा है और यदि भारत भूमि को प्रख्यात संतों, आध्यात्मिक गुरु, सुधारवादी और दार्शनिकों की भूमि कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। दुनिया को अहिंसा एवं त्याग का संदेश देने वाले महापुरुष राष्ट्रपिता के रूप में महात्मा गांधी, जिन्हें मैन ऑफ द मिलेनियम भी कहा जाता है, संतों और सुधारवादियों के इस लीग समुदाय से संबंध रखते हैं, जिन्होंने हमेशा सभी को सत्य, अहिंसा और त्याग का मार्ग दिखाया है। सामाजिक और आर्थिक विकास, व्यवसाय प्रबंधन, घर और कार्य स्थल की जीवन शैली और स्व-प्रबंधन पर गांधीवादी विचारधाराओं का यदि हम पुनरावलोकन करें तो पाएंगे कि “कोविद -19 द्वारा प्रदत्त वर्तमान परिस्थितियों से निपटने में अत्यधिक मूल्यवान और व्यावहारिक दृष्टि से कारगर साबित हो सकते हैं”। गाँधी जी के विचार, उनके सार्वजनिक भाषण, पत्रों और लेखों के साथ-साथ उनकी जीवन शैली वर्तमान संकट के प्रबंधन में अति महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हुए एक नवीन युग एवं जीवन शैली का संचार करते हुए कुछ कदम हमें सुन्दर राज्य (सुराज्य) की तरफ ले जा सकते हैं/
गांधी जी, भागवत गीता और उसके उपदेशों से बहुत प्रभावित थे/ उन्होंने इस प्रभाव के प्रत्यक्षीकरण के लिए ही सत्य और अहिंसा का उपदेश दिया था । दुर्भाग्य से, गंभीर संकट के इस दौर में भी, देश में सोशल मीडिया पर कोरोनावायरस के इलाज के बारे में फर्जी (असत्य) खबरें प्रसारित की जा रही हैं (उदाहरण के लिए, हर पंद्रह मिनट पर पानी पीने से वायरस को रोका जा सकता है; ताजे उबले हुए लहसुन के पानी का एक कटोरा, टोना टोटका कोरोना वायरस को ठीक कर सकता है;)। जब हम ऐसे कृत्यों में लिप्त लोगों के खिलाफ मामले दर्ज होते हुए भ्रामक या सामुदायिक झगड़ों के साथ हिंसा को देखते हैं तो फिर हमें गाँधी जी का सन्देश ” सत्य एवं अहिंसा” याद आता है/ मिशाल के तौर पर, हाल में राजस्थान के 153 लोगों को फर्जी खबरें फैलाने के आरोप में सलाखों के पीछे डाल दिया गया । अप्रमाणिक खबरों के लिए महाराष्ट्र में 200 से भी अधिक मामले दर्ज किए गए हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी अप्रमाणित सूचनायें प्रसारित की जा रहीं हैं जैसे चीन का यूनान प्रान्त कोविद -19 का जन्मस्थान है ,चीन कोरोनोवायरस रोग के बारे में पूर्ण और सही जानकारी की आपूर्ति नहीं कर रहा है, जिससे अन्य देशों को केवल बीमारी के कारणों और इसके कारणों के बारे में अनुमान लगाया जा सके, अमेरिका ने चीन में वायरस जॉइंट मिलिट्री ऑपरेशन के दौरान छोड़ा था इत्यादि ।
गाँधी जी के देश में गांधी जी के संदेशों को धता बताता पुलिस एवं लोक सेवा में लगे निर्दोष “कोरोना वारियर्स” चिकित्सा कर्मियों पर पथराव का मंजर चौंकाने वाले हैं, कि आखिर हम कैसे समाज की रचना कर रहे हैं ? यही है बापू जी के सपनों का देश भारत? इंदौर में मेडिकल स्टाफ पर हमला, महाराष्ट्र में साधुओं की हत्या, पंजाब में ड्यूटी पर तैनात पुलिस अधिकारी का हाथ काट देना, यूपी, तमिलनाडु, बिहार और कुछ अन्य राज्यों में पुलिस और डॉक्टरों पर हमले दिल दहला देने वाले हैं/ गांधी की तपोभूमि में ये अप्रिय मामले जब सामने आते हैं, तो देश खुद से पूछता है कि ये सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय वाला यही देश है क्या जिसे हम बड़े अदब के साथ भारत कहते हैं ? अभी हाल में “आर्म्ड कंफ्लिक्ट लोकेशन एंड इवेंट डेटा प्रोजेक्ट” द्वारा यह बताया गया है कि इस वर्ष फरवरी के मध्य से लगभग पैंतालीस दिनों के भीतर दुनिया भर में डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा की कुल घटनाओं में से अड़तीस प्रतिशत अकेले भारत में हुई हैं। इन हमलों ने सरकार को कुछ राज्यों में अपराधियों के लिए कानून सख्त बनाने और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को बनाने के लिए मजबूर किया है। बदलते हुए इन हालातों में यदि सत्य और अहिंसा के “दो गांधी मंत्र”, प्रत्येक नागरिक के दिल एवं दिमाग में उतार दिए जाएं तो शायद इन सभी विद्रूपदाओं से निजात मिल सकती है।
गांधी जी के दिल में अहिंसा के प्रति बहुत व्यापक अवधारणा थी। उन्होंने पशुओं की हत्या का घोर विरोध किया था । वह शाकाहार के कट्टर अनुयायी थे और कहा करते थे कि मांस मनुष्य का भोजन नहीं है । यहाँ तक कि वैज्ञानिक भी दन्त संरचना शोध के आधार पर कहते हैं कि माँसाहार मनुष्य का मजबूरी वाला आहार हो सकता है परन्तु ईश्वर मंजूरी वाला आहार नहीं / माना जाता है कि 2003 में पहचाने गए SARS कोरोनावायरस के बिग ब्रदर को इंसानों को संक्रमित करने से पहले घोड़े के जूते, चमगादड़ों से लेकर बिल्ली जैसे दिखने वाले गुच्छों के रूप में देखा गया था । अफसोस की बात है कि तब दुनिया ने सबक नहीं सीखा और मासाहार का बैट बाजार लगातार फलता-फूलता रहा और कई देशों में मांसाहारी भोजन का उपयोग बेरोकटोक जारी रहा। यह सही समय है कि दुनिया शाकाहारी भोजन के उपयोग की आवश्यकता का एहसास करे और बढ़ावा देते हुए अपनाये, जिसका महत्व गांधी द्वारा रेखांकित किया गया था।
गांधी ने स्व-अनुशासन की भी वकालत की थी। स्व-संगरोध, सामाजिक भेद और आत्म-अनुशासन के अन्य रूपों का कोरोना वायरस से लड़ने में अत्यधिक महत्वपूर्ण आज साबित हो रहा है। जबकि भारत सरकार ने स्व-संगरोध के लिए विदेश से आने वाले सभी यात्रियों के लिए एडवाइज़री जारी की, कई लोगों ने तो मजे मजे में उसी की अवज्ञा की और महामारी को गले लगा लिया। परिणामस्वरूप, कुछ यात्रियों ने अपने निकट और प्रियजनों सहित लोगों की एक पूरी विरासत को ही संक्रमित कर दिया । विवाह, धार्मिक कार्यों, श्मशान घाटों और अन्य समारोहों में इकट्ठा होना, तालाबंदी और कर्फ्यू के बावजूद मौज-मस्ती के लिए घर से बाहर निकलना, इत्यादि गांधी जी के आत्म-अनुशासन के बारे में गंभीरता की कमी को इंगित करता है ।
एक और सबक, सन्देश एवं सत्य व्यापारिक घरानों के लिए है। गांधी ने ट्रस्टीशिप की अवधारणा को प्रतिपादित किया था । अर्थात व्यवसायियों के लिए उनकी सलाह थी, “हमें अपने आप को मालिकों के रूप में नहीं, बल्कि अपने धन के ट्रस्टियों के रूप में मानना चाहिए और समाज की सेवा के लिए इसका उपयोग करना चाहिए/ अपने लिए प्रदान की गई सेवा के लिए उचित रिटर्न से अधिक और कुछ भी नहीं।” उन्होंने कहा कि यह पृथ्वी के गर्भ में हर आदमी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, लेकिन हर आदमी के लालच को पूरा नहीं कर सकती। लेकिन, अफसोस की बात है कि भारत और अन्य देशों में भी अधिकांश धन कुछ ही व्यक्तियों के हाथ में है। दुनिया भर में हर दिन लाखों लोग भूखे सोते हैं, जबकि अमीर एक शानदार जीवन शैली का आनंद लेते हैं और हर तरह से अधिक से अधिक संपत्ति हासिल करना चाहते हैं, चाहे तरीका नैतिक या अनैतिक, वैध या गैरकानूनी। एकमात्र अस्थायी समाधान के तौर पर भारत में कोरोनोवायरस बीमारी को नियंत्रित करने के लिए व्यावसायिक घरानों और मशहूर हस्तियों ने सरकार और अन्य निकायों को एक बड़ी राशि दान की है। भविष्य में भी, कॉर्पोरेट या अन्य व्यापारिक संगठन, बड़े या छोटे, समाज और गरीब लोगों को पहले सोचना चाहिए और गांधी संदेशों के अनुसार अपने धन के ट्रस्टी के रूप में काम करना चाहिए। वर्तमान संकट और लॉकडाउन के दौरान गरीब मजबूरी में जकड़ा मजदूर न केवल बुरी तरह प्रभावित हुआ है वल्कि जिंदगी जीने के तिलिस्मी स्वप्न से परे मौत के आईने में झाँक रहा है / गांधी हमेशा मानते थे कि पूंजी और श्रम को एक दूसरे का पूरक और मदद करनी चाहिए। पूँजीपति एवं श्रमिक दोनों एक महान परिवार की तरह होने चाहिए/ उन्हें एकता और सद्भाव के साथ रहना चाहिए। आज घाटे की भरपाई और लाभ कमाने की भूख को कम कर उद्योगपतियों को एक सौहार्दपूर्ण कार्य वातावरण बनाकर श्रमिकों के जीवन एवं स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखना चाहिए।
गांधी का महिलाओं के प्रति बहुत सम्मान था। यह नोट करना दुखद है कि लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए, पंजाब में तालाबंदी के दौरान महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों में इक्कीस प्रतिशत की वृद्धि हुई। भारत में अभी हाल में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के बढ़ते मामलों पर राष्ट्रीय महिला आयोग ने तालाबंदी के दौरान गहरी चिंता व्यक्त की है। जब देश गांधी की 150 वीं वर्षगांठ मना रहा है, तो भारत के लोगों को महिलाओं का सम्मान करने का संकल्प करना चाहिए न कि हिंसा ।
गांधी ने उत्पादों में गुणवत्ता के महत्व को भी रेखांकित किया था । भारतीय गुणवत्ता एजेंसियों ने (एफएसएसएआई) ने पहले से ही दूध और दूध उत्पादों के साथ-साथ अन्य वस्तुओं जैसे पेंट, डिटर्जेंट, आदि में मिलावट की ओर इशारा किया है। अचानक तालाबंदी के बाद, सैनिटाइज़र, खाद्य पदार्थों और अन्य आवश्यक वस्तुओं की मांग में जबरदस्त उछाल आया। इससे बाजार में मिलावटी और खराब गुणवत्ता वाले उत्पादों की आपूर्ति हुई। हैदराबाद में नकली सैनिटाइज़र के उत्पादन से जुड़े एक रैकेट का भंडाफोड़ हुआ, क्योंकि इसमें एक लाख से अधिक सैनिटाइज़र की बोतलें एक करोड़ रुपये से अधिक की बेची गईं। कुछ उल्लेख करने के लिए जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, कर्नाटक और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में नकली सैनिटाइज़र जब्त किए गए हैं/ हाल ही में, चीन द्वारा आपूर्ति की जाने वाली रैपिड टेस्टिंग किट की गुणवत्ता पर सवाल उठाए गए थे। गांधी के अनुसार, इसके निर्माण, संचालन या इसके निपटान में उत्पादों में गुणवत्ता, नैतिकता व परोपकार के भाव होना चाहिए। आज नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों के पतन के कारण हो रहा है जिसके लिए गाँधी के सन्देश आज अत्यंत ही प्रासंगिक हो चुके हैं/
यूँ तो स्वच्छता एक ईश्वरीय कर्मयोग है” यह स्वच्छता चाहे आंतरिक हो या बाहरी/ यह गांधी जी के लिए केवल एक नारा नहीं था, वल्कि एक शाश्वत सत्य नियम था, जिसकी उन्होंने पूरे जीवन भर उत्साहपूर्वक वकालत की और पालना भी की ।आज की समकालीन परिस्थितियों में, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस शाश्वत कर्मयोग के सन्देश और उसके महत्व को महसूस किया और स्वच्छ भारत अभियान जैसी महत्वपूर्ण परियोजनाओं के माध्यम शुरू पर देशव्यापी बढ़ावा दिया है/ आज यह अभियान न केवल भारत वल्कि पूरी दुनियां के लिए एक नजीर बन गया है / स्वच्छता को आज कोरोनो संक्रमित दुनिया में एक प्रमुख अभियान के रूप देखा, बनाया एवम अपनाया जा रहा है /
भारत गांवों का देश है। इस विशाल देश में छह लाख से अधिक गाँव हैं। गरीब और आम आदमी पर ध्यान देने के साथ, गांधी ने समावेशी विकास और आत्म निर्भर गांवों की वकालत की। सामाजिक-आर्थिक विकास का मॉडल जिसे भारत ने आजादी के बाद अपनाया वह वास्तव में समावेशी विकास और आत्म निर्भर गांवों के गांधीवादी चिंतन को प्रतिबिंबित नहीं करता था। परिणामस्वरूप, देश भारत के संविधान की प्रस्तावना में अंतर्निहित सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने में विफल रहा। अमीर और गरीब के साथ-साथ शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच की खाई और चौड़ी हुई / इस मॉडल में मूलभूत संरचनात्मक ढाँचा शहरों में बनाया जाना था ताकि औद्योगीकरण के विकास से देश को विकास के साथ साथ रोजगार भी मिल सके/ परिणाम यह हुआ कि 75 साल तक लोग गांव के विकास से विमुख होकर कृषि को त्याग कंस्ट्रक्शन के लिए शहरों की तरफ पलायन कर भागते रहे/ तंग सुविधाओं और नारकीय शहरी जीवन का आभाष उन्हें लॉकडाउन के बाद तब महसूस हुआ जब उन्होंने अपनी इस गांव से शहर की जीवनयात्रा का पुनरावलोकन किया/ उन्होंने पाया कि वे दुनियां व दूसरों के लिए महल, आशियाने और मॉल बनाते रहे अपनों का समझकर और खुद शहरों में बेखबर व बेगाने ही रहे/ अनगिनत आशियाने बनाकर ‘लेने के बजाय देने वाले’ ये मजदूर लोग जब शहर में शहरवासियों और सरकारों के अपनेपन और अपने लिए एक छोटे से घर, उसकी छत और रोटी के सपने को टूटता देख जब दिल्ली व मुम्बई जैसे शहरों से अफवाओं एवम सरकारों की बेरुखी के शिकार होकर रुख्सत हुए तो उनके दरकते दिल और आँखों में आंसू सिर्फ यही कह रहे होंगे ” बेगाने शहर और बेवफा बस्ती से, आ अब लौट चलें”
आरोपों एवं प्रत्यारोपों के भवँर में फँसे ये लोग केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा शुरू किए गए सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों की एक विस्तृत श्रृंखला के बावजूद, न गाँव मेंआत्म-निर्भर बन पाए और न ही शहरी क्षेत्रों में / यह बताना उचित है कि भारत के मिसाइल मैन और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने PURA मॉडल (ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं प्रदान करना) को अपनाने का सुझाव दिया था। बड़े शहरों में कोरोनावायरस बीमारी की अगली कड़ी के रूप में, आज लोग गांवों में वापस चले गए हैं और भयंकर बेरोजगारी की समस्या का सामना कर रहे हैं। अधिकांश गांवों में कुटीर और छोटे उद्योग तो लगभग पहले से ही गायब हो गए थे। बुनियादी सुविधाओं और परिवहन सुविधाओं की कमी, बिजली, पानी और सिंचाई सुविधाओं की कमी और अशिक्षा ने गांवों की आर्थिक वृद्धि को सीमित कर दिया था । यद्यपि पिछले कुछ वर्षों में बिजली, पानी, शिक्षा व् सुविधाओं के हालात कुछ बदले हैं मगर आज के हालात अलग होते यदि गाँव के विकास का गांधीवादी मॉडल देश की आर्थिक नीति के मूल में होता। लाखों मजदूर गांव से पलायन कर शहरों में आए और जिल्लत और रुसवाई के मंजर में जीते हुए दूसरों के लिए घर बनाते रहे मगर खुद अपने घर से मैहरूम रहे/ यदि सरकार और समाज पूरे आर्थिक एम व्यावसायिक तंत्र की पुनरसंरचना करने में लग जाए तो वह दूर नहीं कि भारत में एक बार पुनः कोविड-19 के बाद राम राज्य की स्थापना हो जाए और यही एकमात्र ऐसा व्यापक फार्मूला है जो बेरोजगारी गरीबी एवं भुखमरी के त्रिआयामी तिलिस्म को तोड़ सकता है जिसमें आज मजदूर की मजबूर आँखें मौत के आईने में झांक रही हैं /
आज महात्मा गांधी के विचार सन 2020 में भी मान्य और प्रासंगिक हैं क्योंकि वे मानवता पर आधारित हैं और कल्याण व प्रगति के दो पहियों पर चलायमान हैं । वास्तव में, गांधी का मानव जाति के प्रति सहज प्रेम, गरीबों के प्रति दया, जन्मजात बड़प्पन, विनम्रता और देश की सेवा के लिए नवीन खोजों ने उन्हें एक नैतिक कद वाला राष्ट्रपिता बनाकर कोविद -19 के कारण वर्तमान स्थिति का संकट मोचक भी बना दिया है।
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परिचय -:
प्रो नवीन माथुर
लेखक व् विशेषज्ञ
प्रबंधन विशेषज्ञ एवम पूर्व प्रमुख, व्यावसायिक व्यवस्थापन विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर
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