उज्जैन में हुए महाकुंभ में इस वर्ष सोने पर सुहागा यह रहा कि जहां राज्य में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में संचालित होने वाली भाजपा सरकार सत्ता में है वहीं केंद्र में भी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार सत्तारुढ़ है। और यहां यह दोहराने की भी ज़रूरत नहीं कि भारतीय जनता पार्टी अपने अस्तित्व में आने से लेकर आज तक राष्ट्रीय स्वयं संघ के ही राजनैतिक संगठन के रूप में देश की राजनीति में हिस्सा लेती आ रही है तथा भाजपा का मुख्य उद्देश्य ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की हिंदुत्ववादी नीतियों को लागू करना है।
जहां तक देश के साधुओं व संत समाज का प्रश्र है तो देश के अधिकांश साधू-संत परस्पर सद्भाव,सामाजिक समरसता तथा धर्म व जाति आधारित राजननीति के विरोधी रहे हैं। परंतु कुछ राजनैतिक स्वार्थ के लोभी तथाकथित साधुवेशधारी नेताओं को अपने संगठन में पदाधिकारी अथवा सांसद या विधायक आदि बनाकर भाजपा देश की जनता को यह दिखाना चाहती है कि देश का संत समाज भी भाजपा के ही साथ है।यहां तक कि ऐसे स्वयंभू संतों को ही सामने रखकर राजनीति करने वाली भाजपा यह भी प्रदर्शित करती रहती है कि साधु-संत भाजपा की नीतियों व पार्टी के एजेंडे का अनुसरण करते हैं न कि पार्टी साधू-संतों के उपदेश अथवा उनके आशीर्वाद या किसी प्रकार के निर्देश की मोहताज है। परंतु जब देश के समग्र साधू-संतों के सामने संघ अथवा भाजपा नेताओं का सामना होता है उस समय प्राय: इन राजनैतिक संगठनों को अपने मुंह की खानी पड़ती है।
उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों इसी सिंहस्थ महाकुंभ में संघ व भाजपा के संयुक्त प्रयास से संघ के अंतर्गत् काम करने वाली एक संस्था पंडित दीनदयाल विचार प्रकाशन ने समरसता स्नान के नाम से एक ऐसे आयोजन की घोषणा की जिसमें संघ उच्च जाति व दलित समाज के संतों को एक साथ एक ही घाट पर एक ही समय में स्नान कराए जाने का दिखावा करना चाह रहा था। परंतु शंकराचार्य सहित अखाड़ा परिषद के प्रमुख नरेंद्र गिरी महाराज ने ऐसे आयोजन को राजनैतिक आयोजन करार दिया और कहा कि कुंभ के स्नान अथवा कोई नदी किसी की जाति या धर्म पूछकर स्नान की इजाज़त नहीं देती। देश में स्वाभाविक रूप से ऐसे अवसरों पर हमेशा से ही समरसता स्नान होते आए हैं। संतों के इस तेवर के बाद संघ व भाजपा ने अपने कदम पीछे खिसका लिए।
इसके पश्चात संघ व भाजपा ने मिलकर ‘विचार महाकुंभ’नामक एक आयोजन की राजनैतिक चाल चली। इस आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शरीक हुए। परंतु उनकी इस आयोजन में शिरकत संतों से आशीर्वाद लेने अथवा उनसे ज्ञान हासिल करने के मकसद से नहीं बल्कि अपनी चिरपरिचित शैली के अनुसार संतों को भी प्रवचन व उपदेश देने की ही थी। चूंकि यह आयोजन साधू-संतों के सबसे बड़े आयोजन के रूप में पहचाने जाने वाले महाकुंभ के अवसर पर संघ द्वारा किया गया था इसलिए ज़ाहिर है साधू-संतों को ही इस विचार कुंभ में बड़ी तादाद में आमंत्रित किया गया था।
इस कार्यक्रम को देश के साधू-संतों का कितना समर्थन हासिल था इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कार्यक्रम के समापन के अवसर पर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साधू-संतों की मौजूदगी में अपना ‘उपदेश’ देना था उसमें लगभग 200 प्रमुख संतों को आमंत्रित किया गया था। परंतु इनमें से आधे से भी कम संत आयोजन में शरीक होने के लिए गए। महाकुंभ क्षेत्र में पडऩे वाले मंगलनाथ ज़ोन से 23 संतों को आमंत्रित किया गया था जिनमें केवल 7 संतों ने ही कार्यक्रम में जाना मुनासिब समझा। और कई संत ऐसे भी थे जिन्हें विचार महाकुंभ नामक आयोजन में शिरकत करने का भी काफी मलाल था। खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पवित्र शिप्रा नदी की तुलना नर्मदा से किए जाने व नागाओं के विषय में प्रधानमंत्री द्वारा की गई टिप्पणी पर संत समाज के लोगों ने अपनी गहरी नाराज़गी व्यक्त की।
अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेंद्र गिरी महाराज ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि यह कुंभ नागाओं और अखाड़ों का ही है किसी राजनैतिक दल अथवा सरकार का कतई नहीं। उन्होंने यह भी साफ किया कि कुंभ में नागाओं तथा साधू-संतों का दर्शन करने के लिए ही लाखों व करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं। नरेंद्र गिरी महाराज ने कहा कि किसी के कहने से साधू समाज या अखाड़े अपनी परंपरा नहीं बदलेंगे। उन्होंने साफतौर पर कहा कि विचार महाकुंभ एक राजनैतिक मंच था तथा उनका इस विचार महाकुंभ में शिरकत करना उनकी भूल थी। अखाड़ा परिषद प्रमुख के अनुसार विचार महाकुंभ जैसे राजनैतिक आयोजन पर सराकर द्वारा करोड़ों रुपये खर्च किए गए। यह आयोजन सार्थक था अथवा निरर्थक इस बात का जवाब समय आने पर जनता स्वयं देगी। इसी प्रकार शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने नरेंद्र मोदी के भाषण की ओर इशारा करते हुए कहा कि राजा हमें उपदेश देने आया था ज्ञान लेने नहीं। कुल मिलाकर देश के अधिकांश निष्पक्ष व धर्मपरायण साधू-संतों ने यही आरोप लगाया कि उज्जैन महाकुंभ को भारतीय जनता पार्टी व संघ ने राजनैतिक अखाड़ा बना दिया।
इसी प्रकार उज्जैन महाकुंभ इस बार भारी दुर्व्यवस्था का भी शिकार रहा। वैसे तो राज्य सरकार द्वारा सिहंस्थ महाकुंभ में देश भर के लोगों को आमंत्रित करने हेतु तथा इस आयोजन में अपनी व्यवस्थाओं का बखान करने हेतु अरबों रुपये विज्ञापन पर खर्च कर दिए गए। हमारे देश में विज्ञापन किए जाने का कोई भीा माघ्यम ऐसा नहीं बचा जहां सिहंस्थ महाकुंभ के विज्ञापन जारी न किए गए हों। यहां तक कि महाकुंभ समाप्त होने से पूर्व ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इस आयोजन की सफलता तथा बेहतरीन प्रबंधन का प्रमाणपत्र भी जारी कर दिया।
पंरतु ज़मीनी हकीकत इसके ठीक विपरीत थी। सर्वप्रथम तो कई किलोमीटर लंबे-चौड़े जिस क्षेत्र को कुंभ आयोजन हेतु अपने नियंत्रण में लिया गया था वे सभी खेत-खलिहान की ज़मीन थी। और बारिश हो जाने की स्थिति में यह क्षेत्र एक कीचड़ व दलदल का रूप धारण कर लेते थे। आंधी-तूफान व बारिश जैसी प्राकृतिक आपदा को यदि हम छोड़ भी दें तो भी वहां शौचालय तथा जलापूर्ति की समुचित व्यवस्था नहीं की गई थी। कुंभ के शुरुआती दौर में ही एक सर्वेक्षण दल ने केंद्र सरकार को अपनी इस आशय की रिपोर्ट प्रस्तुत की थी कि कुंभ के मेला क्षेत्र के बाहरी इलाकों में भारी मात्रा में कूड़े के ढेर इकठ्ठा हो गए हैं। इस दल ने तो यहां तक आशंका जताई थी कि यदि समय रहते इसे मेला क्षेत्र से हटाया नहीं गया तो बीमारी फैलने की भी संभावना है। हालांकि राज्य सरकार द्वारा समय रहते इस गंदगी को काफी हद तक वहां से हटाया तो ज़रूर गया परंतु पूरी तरह से सफाई कर पाना फिर भी संभव नहीं हो सका। उज्जैन के स्थानीय प्रशासन की ओर से तो कई बार मेला क्षेत्र की समुचित व्यवस्था खासतौर पर सफाई, शौचालय व जलापूर्ति आदि को लेकर अपने हाथ खड़ किए जाने के समाचार सुनाई देते रहे हैं।
परंतु दुर्भाग्यपूर्ण तो यह कि यह महाकुंभ व्यवस्था की दृष्टि से जितना ही अव्यवस्थित,लाचारी का शिकार तथा जनसुविधाओं की कमी झेलता नज़र आया उतना ही बड़ा सफलता का प्रमाणपत्र प्रधानमंत्री द्वारा राज्य के मुख्यमंत्री के पक्ष में जारी कर दिया गया। ज़ाहिर है ऐसा केवल इसीलिए किया गया क्योंकि केंद्र व राज्य में भाजपा की ही सरकारें हैं। दूसरी बात यह कि यदि सिंहस्थ महाकुंभ के आयोजन के विज्ञापन पर होने वाले ऐतिहासिक भारी-भरकम खर्च का मात्र दस प्रतिशत हिस्सा भी शौचालय, जलापूर्ति तथा कच्चे मार्गों को कीचड़ मुक्त बनाए जाने पर खर्च किया जाता तो शायद महाकुंभ में शिरकत करने वाले श्रद्धालुओं को इतनी परेशानियों का सामना न करना पड़ता।
परंतु जैसाकि राजनीति की परंपराओं में यह बात शामिल हो चुकी है कि राजनेता लोकहितकारी विषयों की ओर कम तवज्जो देते हैं लोकलुभावनी बातों की ओर अधिक। कुछ वैसा ही नज़ारा सिंहस्थ महाकुंभ के आयोजन,उसकी ज़मीनी हकीकत तथा उसके विज्ञापन व उसके लिए किए गए दिखावे में भी महसूस किया गया। और राजनेताओं व साधू-संतों की इसी सहमति व असहमति तथा रस्साकशी के बीच 12 वर्षों के अंतराल पर आयोजित होने वाला यह ऐतिहासिक सिंहस्थ महाकुंभ उपने पीछे यह सवाल छोड़ गया कि यह महाकुंभ वास्तव में साधू-संतों व विभिन्न अखाडा़ें के लिए आयोजित होने वाला एक पारंपरिक धार्मिक समागम था अथवा किसी संघ या पार्टी द्वारा आयोजित कोई राजनैतिक आयोजन?
निर्मल रानी
लेखिका व् सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
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