– निर्मल रानी –
महिला खिलाडिय़ों के विवादित ड्रेस कोड को लेकर ईरान एक बार फिर आलोचना का केंद्र बन गया है। ताज़ातरीन घटना भारतीय शतरंज चैंपियन सौम्या स्वामीनाथन से जुड़ी है जिन्हें ईरान में 26 जुलाई से 4 अगस्त 2018 के मध्य होने वाली एशियाई शतरंज चैंपियनशिप से केवल इसीलिए बाहर होना पड़ा है क्योंकि उन्होंने ईरान में महिलाओं हेतु लागू हिजाब की अनिवार्यता अर्थात् महिलाओं द्वारा सिर ढकने जैसे नियम को मानने से इंकार कर दिया है। सौम्या स्वामिनाथन तथा मानवाधिकारों की पैरवी करने वालों के अनुसार ईरान द्वारा गैर ईरानी लोगों पर इस प्रकार के नियम थोपना मानवाधिकारों का उलंघ्घन है। हिजाब की अनिवार्यता,महिला खिलाडिय़ों के पहनावे संबंधित ड्रेस कोड तथा खाने-पीने में हराम व हलाल जैसी धार्मिक व शरई प्रतिबद्धताओं को लेकर ईरान पहले भी कई बार चर्चा में रह चुका है। अपने देश में ईरानी नेतृत्व अपने नागरिकों हेतु क्या कानून बनाता है और किस प्रकार के नियम लागू करता है इसे लेकर दुनिया इतनी अधिक विचलित नहीं होती परंतु जब ऐसे नियमों व कानूनों से दूसरे देशों के लोग अथवा उनका कैरियर या भविष्य प्रभावित होने लगे तो निश्चित रूप से ऐसी अनिवार्यताएं,कायदे-कानून व पूर्वाग्रह चिंता व चर्चा का विषय बन जाते हैं।
सर्वविदित है कि ईरान जहां पश्चिमी संस्कृति का प्रबल विरोधी है वहीं दूसरी ओर ईरानी नेतृत्व अपने देश में तथा अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में इस्लामी व शरई कायदे-कानूनों को जहां तक संभव हो सके लागू करने व कराने की कोशिश करता है। पश्चिमी संस्कृति महिलाओं के लिए बिकनी पहनकर स्विम सूट प्रतियोगिता करने-कराने में महिलाओं का सम्मान देखती है तो ईरानी संस्कृति महिलाओं को घर-परिवार,देश व समाज की इज़्ज़त-आबरू मान-मर्यादा के रूप में देखते हुए इसे सम्मानजनक तरीके से सहेजने की पक्षधर है। ईरानी संस्कृति औरतों के हिजाब पहनने या सिर ढककर रखने को इसी श्रेणी में गिनती है। परंतु निश्चित रूप से ईरान की ही तरह दुनिया के प्रत्येक देश की अपनी अलग संस्कृति भी है और किसी भी बात को सोचने व समझने का अपना नज़रिया भी। आज संसार का कारोबार व परस्पर संबंध तथा रिश्ते इसी आधार पर बने व टिके हुए हैं कि दुनिया एक-दूसरे की संस्कृति तथा उनकी मान्यताओं का आदर व सम्मान करती है। और जहां ऐसा नहीं हो पाता वहां समाज तथा राष्ट्र के स्तर पर दरार भी पड़ जाती है। लिहाज़ा ऐसे अवसरों पर अपने किसी पूर्वाग्रही सोच पर अड़े रहने से बेहतर है कि परिस्थितियोंवश कुछ समझौते किए जाएं ताकि अपना पूर्वाग्रह व प्रतिबद्धताएं भी बरकरार रहें तथा इन्हें न स्वीकार करने वाला दूसरा पक्ष भी पूरी तरह संतुष्ट रह सके व उसके अधिकारों का भी हनन न हो सके।
ईरान से ही जुड़ी इसी प्रकार की एक महत्वपूर्ण घटना जनवरी 2016 में फ्रांस में उस समय पेश आई थी जब ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी अपने फ्रांस दौरे पर गए हुए थे। गौरतलब है कि दुनिया के अधिकांश देशों में खासतौर पर पश्चिमी देशों में बीफ तथा सुअर का मांस सामान्य रूप से खाया जाता है। शराब का प्रचलन भी इन्हीं देशों में अत्यधिक है। ज़ाहिर है किसी को किसी भी देश के ऐसे खान-पान से कोई आपत्ति नहीं है और न होनी चाहिए। परंतु इस्लामी देशों में अथवा इस्लाम धर्म व शरीया का पालन करने वालों के लिए सुअर व शराब का सेवन करना तो दूर इनका नाम लेना भी अच्छा नहीं समझा जाता। यह चीज़ें इस्लाम में साफतौर पर हराम खाद्य पदार्थों की श्रेणी में रखी गई हैं। 26 जनवरी 2016 को जब ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसिस ओलांदे के साथ एक उच्चस्तरीय भोज पर आमंत्रित थे तो उन्हें सूचित किया गया कि उनकी खाने की मेज़ पर परोसी जाने वाली खाद्य सामग्री में हराम भोजन भी शामिल है। यहां तक कि उनकी मेज़ पर शराब भी परोसी जानी थी। जब राष्ट्रपति रूहानी को इस बात की सूचना मिली तो उन्होंने उस रात्रि भोज में इस्लाम व शरीया के अनुसार हराम सामग्री को खाने की मेज़ से हटाए जाने का आग्रह किया। दूसरी ओर फ्ऱांस की संस्कृति में इन वस्तुओं का किसी मेहमान की मेज़ पर होना वहां की जाने वाली मेज़बानी का एक अहम हिस्सा है। इस पूर्वाग्रह व विवाद का नतीजा यह हुआ कि फ्रांस ने खाने की मेज़ से इन कथित हराम सामग्री को हटाने से इंकार कर दिया। नतीजतन राष्ट्रपति रूहानी को अपनी मेज़ पर बैठकर अकेले ही खाना पड़ा। इतना ही नहीं बल्कि एक बड़ा प्रतिनिधिमंडल स्तर का भोज व इससे जुड़ी शिखर वार्ता ऐसे ही पूर्वाग्रह को लेकर स्थगित भी करनी पड़ी। यहां यह बात भी काबिल-ए-गौर है कि फ्रांस में कई स्थानों पर रखी गई नग्र मूर्तियों को भी ईरानी राष्ट्रपति के सम्मान में ढक दिया गया था क्योंकि नग्र मूर्तियों को देखना भी इस्लामी शरिया के िखलाफ है।
परंतु जहां तक खिलाडिय़ों पर लागू होने वाले पोशक संबंधी नियमों अथवा ड्रेस कोड की बात है तो निश्चित रूप से इसके ऐसे अंतर्राष्ट्रीय मापदंड होने चाहिए जो दुनिया के सभी देशों को स्वीकार्य हों और यदि दुनिया का कोई भी देश उन ड्रेस कोड को मानने की स्थिति में न हो या इसका विरोध करें तो ऐसे खेलों को उस देश में आयोजित ही नहीं करना चाहिए। भारतीय शतरंज चैंपियन ग्रैंड मास्टर सौम्या स्वामिनाथन हिजाब की ईरान में अनिवार्यता के चलते किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता से स्वेच्छा से बाहर होने वाली पहली महिला खिलाड़ी नहीं हैं। इससे पहले 2016 में भारतीय शूटर हिना सिद्धू ने भी ईरान में आयोजित एशियाई एयरगन प्रतियोगिता से स्वयं को अलग कर लिया था। और भी कई देशों के खिलाड़ी ईरानी ड्रेस कोड का पालन न करने के चलते स्वयं को विभिन्न खेल प्रतियोगिताओं से अलग कर चुके हैं। ज़ाहिर है अपनी अथक मेहनत व प्रयास के बाद किसी प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर मिलना और खेल के समय इस प्रकार के पूर्वाग्रही नियमों के चलते प्रतियोगिता में भाग न ले पाना किसी भी खिलाड़ी के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन कहा जा सकता है। परंतु इसके लिए न तो ईरान को दोषी ठहराया जा सकता है न ही प्रतियोगिता का बहिष्कार करने वाले किसी उस खिलाड़ी को जो किसी भी देश के धार्मिक अथवा पूर्वाग्रही नियमों को मानने से इंकार करे। बल्कि अंत्तोगत्वा इसके लिए खेल-कूद के अंतर्राष्ट्रीय नियम,मापदंड,ड्रेसकोड की अनिवार्यता तथा दुनिया के देशों को विश्वास में लिए बिना खेल-कूद के नियम खासतौर पर ड्रेस कोड बनाये जाने जैसे कारण जि़म्मेदार हैं।
निश्चित रूप से ईरान की ही तरह प्रत्येक देश को अपनी संस्कृति तथा अपने देश के नियम व कानून सहेज कर रखने तथा इसे लागू करने का पूरा अधिकार है। परंतु जहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोगों की शिरकत का सवाल हो वहां अपने पूर्वाग्रह,अनिवार्यताएं अथवा प्रतिबद्धताएं किसी दूसरे पर थोपना हरगिज़ मुनासिब नहीं है। खासतौर पर अंतराष्ट्रीय राजनैतिक संबंधों,खेल-कूद,सांस्कृतिक कला साहित्य,फि़ल्म,मनोरंजन जैसे क्षेत्रों में तो बिल्कुल नहीं। आज अरब देशों,मध्य एशिया तथा ईरान जैसे देशों में महिलाएं पश्चिमी देशों की तुलना में काफी पीछे हैं। ज़ाहिर है उसकी मुख्य वजह यही है कि उन्हें धार्मिक रीति-रिवाजों,इस्लाम व शरिया के अनुसार अपना रहन-सहन,पहनावा तथा सीमित आज़ादी के साथ रहने के लिए बाध्य किया जाता है। और यही बाध्यताएं तुलनात्मक दृष्टि से महिलाओं को पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलने में बाधा साबित होती हैं। लिहाज़ा कोशिश यही होनी चाहिए कि दुनिया का कोई भी देश बेशक अपने धर्म व संस्कृति की रक्षा तो ज़रूर करे परंतु उसे दूसरों पर थोपने की कोशिश भी न करे और मानवाधिकारों की रक्षा का भी पूरा ध्यान रखे।
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निर्मल रानी
लेखिका व् सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
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