– जावेद अनीस –
छिंदवाड़ा जिले के तामिया ब्लॉक में स्थित पातालकोट मानो धरती के गर्भ में समाया है। तकरीबन 89 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली यह एक घाटी है जो सदियों तक बाहरी दुनिया के लिए अनजान और अछूती बनी रही। पातालकोट में 12 गाँव समाये हुए हैं ये गाँव हैं- गैलडुब्बा, कारेआम, रातेड़, घटलिंगा-गुढ़ीछत्री, घाना कोड़िया, चिमटीपुर, जड़-मांदल, घर्राकछार, खमारपुर, शेरपंचगेल, सुखाभंड-हरमुहुभंजलाम और मालती-डोमिनी। बाहरी दुनिया का यहाँ के लोगों से संपर्क हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है, इनमें से कई गावं ऐसे हैं जहां आज भी पहुँचना बहुत मुश्किल है, जमीन से काफी नीचे होने और विशाल पहाड़ियों से घिरे होने के कारण इसके कई हिस्सों में सूरज की रौशनी भी देर से और कम पहुँचती है,मानसून में बादल पूरी घाटी को ढक लेते हैं और बादल यहाँ तैरते हुए नजर आते हैं। इन सब को देख सुन कर लगता है कि मानो धरती के भीतर बसी यह एक अलग ही दुनिया हो। सतपुड़ा की पहाड़ियों में करीब 1700 फुट नीचे बसे ये गावं भले ही तिलिस्म का एहसास कराते हों लेकिन यहाँ बसने वाले लोग हम और आपकी तरह हांड-मांस के इंसान ही हैं, यह लोग भारिया और गौंड आदिवासी समुदाय के हैं जो अभी भी हमारे पुरखों की तरह अपने आप को पूरी तरह से प्रकृति से जोड़े हुए हैं, मुनाफा आधारित व्यवस्था और दमघोंटू प्रतियोगिता से दूर इनकी जरूरतें सीमित हैं, प्राकृतिक संसाधनों के साथ इनका रिश्ता सहअस्तित्व का है और अपनी संस्कृति, परम्परा, जिंदगी जीने व आपसी व्यवहार के तरीके को भी इन्होनें अभी भी काफी हद तक पुरातन बनाया हुआ है बिलकुल सहज सरल और निश्छल। अगर उनके रहन–सहन, खान-पान, दवा-दारू की बात करें तो इस मामले में भी वे अभी भी काफी हद तक जंगल और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं लेकिन इधर बाहरी दुनिया से संपर्क और सदियों से उनके द्वारा संजो कर रखे गये प्रकृति से छेड़-छाड़ की वजह से अब वे संकट में दिखाई दे रहे हैं, दूसरी तरफ आधुनिक विकास भी उन तक नहीं पहुँची है और इससे होने वाले फायदे के दायरे से उन्हें बेदखल रखा गया है।
पाताललोक को लेकर भले ही कई मिथक हों लेकिन यहाँ की समस्याएँ यथार्थ हैं, वैसे तो देश के सभी हिस्सों की तरह यहाँ भी विकास की तमाम योजनाएं चल रही हैं लेकिन इसका लाभ ज़्यादातर लोगों तक पहुँच नहीं पाया है, 2007 में यहां पहला आंगनवाड़ी केंद्र खुला था, मध्यप्रदेश सरकार द्वारा स्थापित पातालकोट विकास प्राधिकरण की वजह से यहाँ स्कूली शिक्षा, आईसीडीएस, प्राथमिक स्वास्थ्य जैसी सेवाएँ पहुँच गयी हैं लेकिन कई सुविधायें अभी भी पहुँच से दूर हैं। गैलडुब्बा तक पक्की सड़क की वजह से यहाँ आना जाना आसान हो गया है लेकिन बाकि क्षेत्र अभी भी कटे हुए हैं, इसी तरह से इनकी खेती परंपरागत और नये तरीकों के बीच ही उलझ कर रह गयी है, वे अपने पहले के फसलों से तकरीबन हाथ धो चुके हैं, नये नगदी फसलों से भी कोई खास फायदा नजर नहीं आ रहा है, इस तरह से उनके पुराने खाद्य सुरक्षा तंत्र के बिखरने का असर पोषण पर पड़ रहा है जिसकी वजह से जानलेवा कुपोषण वहां अपना पैठ बना चुकी है ।
यहाँ पानी की समस्या गंभीर रूप धारण कर चुकी है, यहाँ के लोगों के लिए पानी का एकमात्र स्रोत पहाड़ों से निकलने वाली जलधाराएँ रही हैं। पहले इन जलधाराओं में साल भर पानी रहता था लेकिन अब अपेक्षाकृत ठंढे महीनों में भी यह सूख जाते हैं, यह सब जलवायु परिवर्तन और बाहरी हस्तक्षेप की वजह से हुआ है। पातालकोट की जैविक विवधता, प्राकृतिक संसाधन और वन-संपदा खतरे में हैं। यहाँ की दुर्लभ जड़ी बूटियों पर लालची व्यापारियों की नजर पड़ चुकी है और वे इसका बड़ी बेरहमी से दोहन करना शुरू कर चुके हैं, अगर जल्दी ही इस पर रोक नहीं लगी तो पातालकोट का यह बहुमूल्य खजाना खत्म हो जाएगा।
स्वैच्छिक संस्था विज्ञान सभा 1997 से पातालकोट में वैज्ञानिक चेतना, स्वास्थ्य, आजीविका खेती आदि को लेकर काम कर रही है, संस्था के तामिया स्थित सेंटर के समन्वयक आरिफ खान बताते हैं कि विज्ञान सभा द्वारा यहाँ लोगों की आजीविका और स्वास्थ्य को लेकर काफी काम हुआ है, जिसमें लोगों को वैज्ञानिक तरीके से शहद निकालने की ट्रेनिंग दी गयी है, इसके लिए उन्हें पोशाक भी उपलब्ध कराए गये हैं, गैलडुब्बा सेंटर में शहद की हारवेस्टिंग के लिए मशीन भी लगाए गये थे, इसी तरह से वनोपज को लेकर भी उनमें यह जागरूकता लायी गयी है कि किस समय इन्हें तोड़ना चाहिए जिससे इनकी मेडिसिन वैल्यू खत्म ना होने पाए। इन उत्पादों को बेचने में भी संस्था द्वारा सहयोग किया जाता है।
पिछले कुछ सालों से विज्ञान सभा द्वारा यूनिसेफ के साथ मिलकर बाल अभिव्यक्ति एवं सहभागिता को लेकर भी काम किया जा रहा है जिसका मकसद यहाँ के बच्चों में आत्मविश्वास, कौशल, अभिव्यक्ति और शिक्षा को बढ़ावा देना है और उन्हें एक मंच उपलब्ध कराना है जहाँ बच्चे अपने अनुभवों एवं विचारों को सामने रख सकें। इसके तहत बच्चों की रचनात्मक अभिव्यक्ति उभारने के लिए चित्रकलां, फोटोग्राफी, लेखन, विज्ञान से जुड़ाव आदि से सम्बंधित गतिविधियाँ आयोजित की जाती हैं, बच्चों के अभिव्यक्तियों को बाल पत्रिका ‘गुइयां’ में प्रकाशित भी किया जाता है। कुछ समय पहले ही यहाँ के गावों में ‘ज्ञान-विज्ञान पोटली’ (पुस्तकालय) की शुरुआत भी की गयी है जिससे यहाँ के बच्चों को किताबों और शैक्षणिक गतिविधियों से जोडा जा सके। पातालकोट में इन सब का प्रभाव भी देखने को मिल रहा है, आरिफ खान बताते हैं कि “पहले यह बच्चे बात करने में झिझकते थे अब वे खुल कर बात करने लगे हैं और अपनी आस पास की समस्याओं को भी वे चित्रों, फोटोग्राफी और लेखन के माध्यम से सामने लाने लगे हैं”।
यह बदलाव बच्चों में महसूस भी किया जा सकता है, उनकी रचनात्मकता तो बढ़ी ही है, हिचक भी टूटी है, एक नागरिक के तौर पर वे अपने अधिकारों के बारे में भी जान और समझ रहे हैं, उनके सपनों के दायरे का भी विस्तार हुआ है, पिछले दिनों विज्ञान सभा के इसी तरह के एक फोटोग्राफी कार्यशाला में पातालकोट के गैलडुब्बा गावं जाने का मौका मिला, उस दौरान 26 जनवरी भी थी, लम्बे समय बाद देखने को मिला कि बच्चों के साथ बड़े भी गणतंत्र दिवस इतने उत्साह के साथ मना रहे है, बाद में लोगों ने बताया कि दरअसल इस क्षेत्र में 1997 में पहले स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को लेकर जागरूकता नहीं थी, जानकारी ना होने के कारण इसे मनाया भी नहीं जाता था, शायद इस वजह से यह लोग गणतंत्र दिवस की इतनी शिद्दत और उत्साह की तरह मना रहे थे। यह उत्सव एक तरह से स्थानीय और बाहरी दुनिया का फ्यूजन था। यह पांच स्कूलों का संयुक्त आयोजन था जहाँ गणतंत्र दिवस मनाने के लिए पातालकोट के आसपास के कई गावों के महिला, पुरुष और बच्चे इकठ्ठा हुए थे, दो दिन के इस आयोजन में पहले दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा दूसरे दिन खेल प्रतियोगिता का आयोजन किया गया, इस दौरान टेंट और साउंड सिस्टम की भी व्यवस्था थी, सांस्कृतिक कार्यक्रम में बड़ों से लेकर बच्चों तक भागीदारी की गयी, जिसमें परंपरागत सामूहिक नृत्य से लेकर “देश रंगीला” और “जलवा तेरा जलवा” जैसे गीतोँ पर परफॉरमेंस शामिल था । हर प्रस्तुति के बाद मंच संचालक लोगों द्वारा दिए गये इनाम का एलान भी करता जा रहा था, गणतंत्र दिवस का यह अनोखा उत्सव देखना एक सुखद अहसास था जहाँ उन्माद नहीं, खुशी थी और इस देशभक्ति में किसी के लिए भी नफरत नदारद थी।
फोटोग्राफी कार्यशाला में गैलडुब्बा के अलावा पातालकोट के अन्य गावों के बच्चे भी शामिल हुए थे. बच्चे अपने आसपास के माहौल जिसमें घर, पहाड़, नदियाँ, पेड़-पौधों की तस्वीरें कैमरे में कैद करके बहुत खुश नजर आ रहे थे, कई बच्चों की कैमरे से दोस्ती देखते ही बनती थी। यह बच्चे पातालकोट की पथरीली जमीन से बाहर भी जीवन के सपने देख रहे हैं, वे डाक्टर, नर्स ,फोटोग्राफर, वैज्ञानिक, टीचर, इंजीनियर, चित्रकार आदि बनना चाहते हैं। जाहिर है यह सपने बड़े हैं लेकिन यह बच्चे बाहरी दुनिया की भाषा और तौर तरीकों से अपने आप को अभिव्यक्ति करना सीख रहे हैं, उनके इस बदलाव के सपने में एक हिस्सा पातालकोट का भी हैं जिसमें वे यहाँ जीवन जीने के लिए बुनियादी सुविधायें उपलब्ध हों, साथ ही उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति में कहीं अवचेतन से यह भी निकल कर आ रहा है कि उनके पहाड़, जंगल, पेड़-पौधे यहाँ मिलने वाली वनोपज भी सलामत रहें जो की उनकी धरोहर है।
यक़ीनन से ही कोई शुरुवात होतीहै, उम्मीद कर सकते हैं पातालकोट के यह जुगनू आने वाले समय में पातालकोट के घाटियों सहित देश के अलग अलग कोनों में अपनी चमक बिखेरेंगें।
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जावेद अनीस
लेखक ,रिसर्चस्कालर ,सामाजिक कार्यकर्ता
लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे , उन्होंने अपनी पढाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पूरी की है पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द के मुद्दों पर काम कर रहे हैं, विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है !
जावेद नियमित रूप से सामाजिक , राजनैतिक और विकास मुद्दों पर विभन्न समाचारपत्रों , पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेबसाइट में स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं !
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