नवें दशक के एक महत्वपूर्ण कवि ” कुमार मुकुल “
कुमार मुकुल की कविताएं अपने आप में खुद से ही बाते करती कवितायें हैं ! कुमार मुकुल को पढ़ने के बाद लगा की.… नवें दशक में कुमार मुकुल को जो मकाम मिला हैं … कुमार मुकुल उससे कहीं ऊपर के कवि हैं ! जबकि ये बात भी जग जाहिर हैं की आलोचकों की गुटबंदी और चापलूसी के इस दौर में किसी भी किसी बा-जमाल कवि को अपना मकाम बनाये रखना बहुत मुश्किल हैं !
ज़ाकिर हुसैन
संपादक
अंतराष्ट्रीय समाचार एवम विचार निगम व् इंटरनेशनल न्यूज़ एंड वियुज़ डॉट कॉम
कुमार मुकुल की कवितायेँ
1.पहाड़
गुरूत्वाकर्षण तो धरती में है
फिर क्यों खींचते हैं पहाड़
जिसे देखो
उधर ही भागा जा रहा है
बादल
पहाडों को भागते हैं
चाहे
बरस जाना पडे टकराकर
हवा
पहाड़ को जाती है
टकराती है ओर मुड जाती है
सूरज सबसे पहले
पहाड़ छूता है
भेदना चाहता है उसका अंधेरा
चांदनी वहीं विराजती है
पड जाती है धूमिल
पर
पेडों को देखे
कैसे चढे जा रहे
जमे जा रहे
जाकर
चढ तो कोई भी सकता है पहाड
पर टिकता वही है
जिसकी जडें हो गहरी
बादलों की तरह
उडकर
जाओगे पहाड तक
तो
नदी की तरह
उतार देंगे पहाड
हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर।
2. पहाड़ (दो)
उूदी हवा शरीर से लगती है
तो सिहरते हुए याद आते हैं पहाड
यादों का भी सानी नहीं
छूते ही बरोबर कर देती हैं ये विषमताओं को
अब इसमें क्या तुक कि धुआं छोडती रेल को देख
एक लडकी की याद आती है
यादों में पहाड का वजन
फूल से ज्यादा नहीं होता
ना ही फूलों से कम खूबसूरत लगते हैं पहाड
यादों में संभव होता है
कि हम चूम सकें पहाडों को
जैसे उन्हें चूमता है आकाश
3.पुतैये –
रात भीगना था ओस में
जिन चूल्हों को
सुबह पुतना था
मिटटी-गोबर-पानी और धूप से
पुत गये वे अपनों ही के खून से
पुतैये आये थे रात
जमात में
यूं चरमराया तो था बॉंस की चॉंचर का दरवाजा
प्रतिरोध किया था जस्ते के लोटे ने
ढनमनाया था जोर से
चूल्हे पर पडा काला तावा भी
खडका था
नीचे गिरते हुए
पर बहादुर थे पुतैये
बोलती बंद कर दी सबकी
चूल्हे की तरह मुँह बा दिया सबने
चूल्हे की राख में घुसी
सोयी थी बिल्ली जो
मारी गयी
पिल्ले भी मारे गये
सोये पुआल पर।
(हिटलर चित्रकार भी था और ब्रेख्त उसे व्यंग्य से पुतैया यानी पोतने वाला कहते थे। यह कविता बिहार के नरसंहारों के संदर्भ में है)
4.चबूतरा-एक
बचपन में
गांव के कुएं के चौडे चबूतरे पर सोना
डराता था मुझे
फिर भी मैं सोता था वहां
क्योंकि चबूतरे पर
सपने बडे सुंदर आते थे
मैं डरता था कि कभी – कभी
बिल्ली चली आया करती थी
चबूतरे पर
मैं डरता कि कहीं बिल्ली के डर से
कुएं में ना गिर जाउं
इसी डर से कुत्ते को
अपने पास सुलाता था मैं
कभी कभी मैं झांकता कुएं में
तो आकाश उतराता नजर आता
मुझे यह अच्छा लगता पर तभी
एक काली छाया नजर आती मुझे
हिलती हुई
वह मेरी ही छाया होती थी
जो डराती थी मुझे
चबूतरे के पास ही
मेहंदी लगी थी
जो आज तक हरी है
दिन में जिस पर लंगोट सूखते हैं
और रात में उगते हैं सफेद सपने ।
5.मिथक प्यार का –
बेचैन सी एक लड़की जब झांकती है मेरी आंखों में
वहां पाती है जगत कुएं का
जिसकी तली में होता है जल
जिसमें चक्कर काटती हैं मछलियां रंग-बिरंगी
लड़की के हाथों में टुकड़े होते हैं पत्थर के
पट-पट-पट
उनसे अठगोटिया खेलती है लड़की
कि गिर पड़ता है एक पत्थर जगत से लुडककर पानी में
टप…अच्छी लगती है ध्वनि
टप-टप-टप वह गिराती जाती है पत्थर
उसका हाथ खाली हो जाता है
तो वह देखती है
लाल फ्राक पहने उसका चेहरा
त ल म ला रहा होता है तली में
कि
वह करती है कू…
प्रतिध्वनि लौटती है
कू -कू -कू
लड़की समझती है कि मैंने उसे पुकारा है
और हंस पड़ती है
झर-झर-झर
झर-झर-झर लौटती है प्रतिध्वनि
जैसे बारिश हो रही हो
शर्म से भीगती भाग जाती है लड़की
धम-घम-घम
इसी तरह सुबह होती है शाम होती है
आती है रात
आकाश उतराने लगता है मेरे भीतर
तारे चिन-चिन करते
कि कंपकंपी छूटने लगती है
और तरेगन डोलते रहते हैं सारी रात
सितारे मंढे चंदोवे सा
फिर आती है सुबह
टप-झर-धम-धम-टप-झर-झर-झर
कि जगत पर उतरने लगते हैं
निशान पावों के
इसी तरह बदलती हैं ऋतुएं
आती है बरसात
पानी उपर आ जाता है जगत के पास
थोडा झुककर ही उसे छू लिया करती है लड़की
थरथरा उठता है जल
फिर आता है जाड़ा
प्रतिबंधों की मार से कंपाता
और अंत में गर्मी
कि लड़की आती है जगत पर एक सुबह
तो जल उतर चुका होता है तली में
इस आखिरी बार
उसे छू लेना चाहती है लडकी
कि निचोडती है खुद को
और टपकते हैं आंसू
टप-टप
प्रतिध्वनि लौटती है टप-टप-टप
लड़की को लगता है कि मैं भी रो रहा हूं
और फफक कर भाग उठती है वह
भाग चलता है जल तली से।
6.उदासी –
ठिठोली करती
स्मृतियों के मध्य
कहॉं रखूं
तुम्हारी उदासी का
यह धारदार हीरा।
7.चरवाहे –
चरवाहे बन सकते हैं शहंशाह
शहंशाह बन नहीं सकता चरवाहा चाहकर भी
तानाशाह बन सकता है वह
भोला-भाला व्यक्ति
बन सकता है पंडित ज्ञानी विराट
ज्ञानी हो नहीं सकता मूर्ख
पागल हो सकता है वह
आकाश छूती ज़मीन को
पाट सकते हो अट्टालिकाओं से
खींच सकते हो
कई-कई और चीन की दीवार
उसे बदल नहीं सकते समतल भूमि में
खंडहर बना सकते हो
वहाँ बोलेंगे उल्लू।
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——– प्रस्तुति – नित्यानन्द गायेन
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कुमार मुकुल
कवि /लेखक /वरिष्ट पत्रकार
जन्म : १९६६ आरा , बिहार के संदेश थाने के तीर्थकौल गांव में। शिक्षा : एमए, राजनीति विज्ञान १९८९ में अमान वूमेन्स कालेज फुलवारी शरीफ पटना में अध्यापन से आरंभ कर १९९४ के बाद अबतक दर्जन भर पत्र-पत्रिकाओं अमर उजाला , पाटलिपुत्र टाइम्स , प्रभात खबर आदि में संवाददाता , उपसंपादक और संपादकीय प्रभारी व फीचर संपादक के रूप में कार्य। किताब : दो कविता संग्रहों , परिदृश्य के भीतर , ग्यारह सितंबर व अन्य कविताएं का प्रकाशन। कविता की आलोचना पर ‘अंधेरे में कविता के रंग’ नाम से एक किताब और राममनोहर लोहिया-जीवन दर्शन नाम से एक किताब, देश की तमाम हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं जैसे – हंस,वसुधा,तदभव,समकालीनतीसरी दुनिया, जनमत, जनपथ,पाखी,कंकसाड, शुक्रवार,कथादेश,आलोचना,इंडिया टूडे, आउटलुक,हिन्दुस्तान, कादंबिनी,कृति ओर,पब्लिक एजेंडा, रचना समय, नवभारत टाइम्स, जनसत्ता,नई दुनिया, दैनिक जागरण आदि में कविता , कहानी , समीक्षा और आलेखों का नियमित प्रकाशन। कैंसर पर एक किताब शीघ्र प्रकाश्य। संपादन : ‘संप्रति पथ’ नामक साहित्यिक पत्रिका का दो सालों तक संपादन। 2007 से 2010 तक ‘मनोवेद’ त्रैमासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक।
वर्तमान में कल्पतरू एक्सप्रेस हिन्दी दैनिक में स्थानीय संपादक।
Kalptaru Express ‘Hindi Dainik’,
7 & 8, IInd Floor, Bhawna Multiplex,
Sikandra-Bodla Road, Near Kargil Petrol Pump,
Agra-282007.
http://hindiacom.blogspot.com/
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