जरूरी होता है खेत को सींचा जाना भी ऋतु आने पर
यूं ही नहीं फसलें लहलहाती हैं
सभी जानते हैं मगर मानता कौन है , करता कौन हैa
चाहे नेह का समंदर ठाठें मार रहा हो ,
चाहे सुनामी आने को आतुर हो
मगर अहम की पोषित तुम्हारी वंशबेल कभी चप्पू उठाने ही नहीं देती
चाहे किनारे नेस्तनाबूद हो जाएँ या नैया भंवर में ही डूब क्यों न जाए
एक अहम की कस्सी से तुम खोद ही नहीं पाते बंजर जमीन की मिटटी को और नहीं रोप पाते अपनी मनचाही फसल के बीजों को
वैसे भी यहाँ तो खलिशों के रेगिस्तान की इकलौती मलिका हूँ मैं
हाँ , मैं , तुम्हारी चाहतों की कब्रगाह का फूल नहीं
जो तोडा , सूंघा और मसल डाला
जीने के लिए कुछ रौशनदान बनाए हैं मैंने भी
तुम्हारी दी बेरुखी से , तुम्हारी बदमजगी से , तुम्हारी बेअदबी से
हवाये झुलसाने का शऊर बखूबी निभा रही हैं तब से
जानां !!!
इश्क की कतरनें भी कभी क्या सीं जाती हैं ?
और देख मैंने तो पूरा लिहाफ बना डाला
चाहो तो ओढ़ लो चाहो बिछा लो चाहो तो इबादत कर लो
कहो , कर सकोगे इबादत , कर सकोगे बुतपरस्ती
मुझसी ?
तुमसे एक सवाल है ये
क्या दे सकोगे कभी ” मुझसा जवाब ”
ओ मेरे !
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वन्दना गुप्ता
उपसंपादक – सृजक पत्रिका
निवास दिल्ली