अनवर सुहैल की कहानी गहरी जड़ें

नित्यानन्द गायेन  की टिप्पणी  :  चर्चित उपन्यास ‘पहचान ‘ के लेखक कथाकार अनवर सुहैल अपने उपन्यास पहचान एवं अपनी कहानियों के माध्यम से भारतीय मुस्लिम समाज की समस्याओं एवं विसंगतिओं को जिस तरह से प्रस्तुत करते हैं वह कबीले तारीफ है।  इनको पढ़ते हुए पाठकों को अक्सर ग्रेट राही मासूम रज़ा याद आते हैं। इनकी कहानी के पात्र , उनके संवाद हमें सीधा कहानी के उस परिवेश में ले जाते हैं जहाँ की बात वे कह रहे हैं।  यही एक सशक्त लेखक की पहचान भी है। 

 गहरी जड़ें

असगर भाई  बड़ी बेचैनी से जफर की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
जफर उनका छोटा भाई है।
उन्होनें सोच रखा है कि वह आ जाए तो फिर निर्णय ले ही लिया जाए, ये
रोज-रोज की भय-चिन्ता से छुटकारा तो मिले !
इस मामले को ज्यादा दिन टालना अब ठीक नहीं।
कल फोन पर जफर से बहुत देर तक बातें तो हुई थीं।
उसने कहा था कि —’भाईजान आप परेशान न हों, मैं आ रहा हूं।’
असगर भाई ‘हाईपर-टेंशन’ और ‘डायबिटीज’ के मरीज ठहरे।  छोटी-छोटी बात से
परेशान हो जाते हैं।

मन बहलाने के लिए जफर बैठक में आए।
मुनीरा टी वी देख रही थी। जब से ‘गोधरा -प्रकरण’ चालू  हुआ, घर में इसी
तरह ‘आज-तक’ और ‘स्टार-प्लस’ चैनल को बारी-बारी से चैनल बदल कर घंटों से
देखा जा रहा था। फिर भी चैन न पड़ता था तो असगर भाई रेडियो-ट्रांजिस्टर
पर बीबीसी के समाचारों से देशी मीडिया के समाचारों का तुलनात्मक अध्ययन
करने लगते।
तमाम चैनलों में नंगे-नृशंस यथार्थ  को दर्शकों तक पहुंचाने की होड़ सी लगी हुई थी।
मुनीरा के हाथों से असगर ने रिमोट लेकर चैनल बदल दिया।
‘डिस्कवरी-चैनल’ में हिरणों के झुण्ड का शिकार करते “ोर को दिखाया जा रहा
था। “ोर गुर्राता हुआ हिरणों को दौड़ा रहा था।  अपने प्राणों की रक्षा
करते हिरण अंधाधुंध भाग रहे थे।
असगर भाई सोचने लगे कि इसी तरह तो आज डरे-सहमें लोग गुजरात में जान बचाने
के लिए भाग रहे हैं।

उन्होनें फिर चैनल बदल दिया। निजी समाचार-चैनल का एक दृश्य कैमरे  का
सामना कर रहा था। कांच की बोतलों से पेट्रोल-बम का काम लेते अहमदाबाद की
बहुसंख्यक लोग और वीरान होती अल्पसंख्यक आबादियां। भीड़-तंत्र की बर्बरता
को बड़ी ढीठता के साथ ‘सहज-प्रतिक्रिया’’ बताता एक सत्ता-पुरूश। टेलीविजन
पर चलती ढीठ बहस कि राज्य पुलिस को और मौका दिया जाए या कि सेना
‘डिप्लाय’ की जाए ।
सत्ता-पक्ष और विपक्ष के बीच मृतक-संख्या के आंकड़ों पर उभरता प्रतिरोध।
सत्ता-पक्ष की दलील कि सन् चैरासी के कत्लेआम से ये आंकड़ा काफी कम है।
उस समय आज के विपक्षी तब केन्द्र में थे और कितनी मासूमियत से यह दलील दी
गई थी — ‘‘ एक बड़ा पेर गिरने से भूचाल आना स्वाभाविक है।’’
इस बार भूचाल तो नहीं आया किन्तु न्यूटन की गति के तृतीय नियम की
धज्जियां जरूर उड़ाई र्गइं।
‘क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया…’’
असगर भाई को हंसी आ गई।

उन्होनें देखा टीवी में वही संवाददाता दिखाई दे रहे थे जो कि कुछ दिनों
पूर्व झुलसा देने वाली गर्मी में अफगानिस्तान की पथरीली गुफाओं, पहाडों़
और युद्ध के मैदानों से तालिबानियों को खदेड़ कर आए थे, और बमुश्किल तमाम
अपने परिजनों के साथ चार-छह दिन की छुट्टियां ही बिता पाए होंगे कि
उन्हें पुनरू एक नया ‘टास्क’ मिल गया।
अमेरिका का रक्त-रंजित तमाशा, लाशों के ढेर, राजनीतिक उठापटक, और अपने
चैनल के दर्शकों की मानसिकता को ‘कैश’ करने की व्यवसायिक दक्षता उन
संवाददाताओं ने प्राप्त जो कर ली थी।

असगर भाई ने यह विडम्बना भी देखाी  कि किस तरह नेतृत्व विहीन अल्पसंख्यक
समाज की विध्वसंक ओसामा बिन लादेन के साथ सुहानुभूति बढ़ती जा रही थी।
जबकि ‘डबल्यू टी ओ’ की इमारत सिर्फ अमरीका की बपौती नहीं थी। वह इमारत तो
मनुश्य की मेधा और विकास की दशा का जीवन्त प्रतीक थी। जिस तरह से बामियान
के बुद्ध एक पुरातात्विक धरोहर थे।
‘डबल्यू टी ओ’ की इमारत में काम करने का स्वप्न सिर्फ अमरीकी ही नहीं
बल्कि तमाम देशों के नौजवान नागरिक देखा करते हैं। बामियान प्रकरण हो या
कि ग्यारह सितम्बर की घटना, असगर भाई जानते हैं कि ये सब गैर-इस्लामिक
कृत हैं, जिसकी दुनिया भर के तमाम अमनपसंद मुसलमानों ने कड़े “ाब्दों में
निन्दा की थी।

लेकिन फिर भी इस्लाम के दुश्मनों को संसार में भ्रम फेलाने का अवसर मिल
आया कि इस्लाम आतंकवाद का पर्याय है।
असगर भाई को बहुसंख्यक हिंसा का एकतरफा ताण्डव और “ाासन-प्रशासन की
चुप्पी देख और भी निराशा हुई थी।
ऐसा ही तो हुआ था उस समय जब इंदिरा गांधी का मर्डर हुआ था।
असगर तब बीस-इक्कीस के रहे होंगे।
उस दिन वह जबलपुर में एक लॉज में ठहरे थे।
एक नौकरी के लिए साक्षात्कार के सिलसिले में उन्हें बुलाया गया था।
वह लॉज एक सिख का था।

उन्हें तो खबर न थी कि देश में कुछ भयानक हादसा हुआ है। वह तो
प्रतियोगिता और साक्षात्कार से सम्बंधित किताबों में उलझे हुए थे।
“ााम के पांच बजे उन्हें कमरे में धूम-धड़ाम की आवाजें सुनाई दीं।
वह कमरे से बाहर आए तो देखा कि लॉज के रिसेप्शन काउण्टर को लाठी-डंडे से
लैस भीड़ ने घेर रखा था। वे सभी लॉज के सिख मैनेजर करनैल सिंह से बोल रहे
थे कि वह जल्द से जल्द लॉज को खाली करवाए, वरना अन्जाम ठीक न होगा।
मैनेजर करनैल सिंह घिघिया रहा था कि स्टेशन के पास का यह लॉज मुद्दतों से
परदेसियों की मदद करता आ रहा है।

वह बता रहा था कि वह सिख जरूर है किन्तु खालिस्तान का समर्थक नहीं। उसने
यह भी बताया कि वह एक पुराना कांग्रेसी है। वह एक जिम्मेदार हिन्दुस्तानी
नागरिक है। उसके पूर्वज जरूर पाकिस्तानी थे, लेकिन इस बात में उन बेचारों
का दोश कहां था। वे तो धरती के उस भूभाग में रह रहे थे जो कि अखण्ड भारत
का एक अंग था। यदि तत्कालीन आकाओं की राजनीतिक भूख नियंत्रित रहती तो
बंटवारा कहां होता ?
कितनी तकलीफें सहकर उसके पूर्वज हिन्दुस्तान आए।  कुछ करोलबाग दिल्ली में
तथा कुछ  जबलपुर में आ बसे। अपने बिखरते वजूद को समेटने का पहाड़-प्रयास
किया था उन बुजुर्गों ने। “ारणार्थी मर्द-औरतें और बच्चे सभी मिलजुल,
तिनका-तिनका जोड़कर आशियाना बना रहे थे।
करनैल सिंह रो-रोकर बता रहा था कि उसका तो जन्म भी इसी जबलपुर की धरती
में हुआ है।
भीड़ में से कई चिल्लाए–’’मारो साले को…झूट बोल रहा है। ये तो पक्का
आतंकवादी है।’’
उसकी पगड़ी उछाल दी गई।
उसे काउण्टर से बाहर खींच गया।
जबलपुर वैसे भी मार-धाड़, लूट-पाट जैसे ‘मार्शल-आर्ट’ के लिए कुख्यात है।
असगर की समझ में न आ रहा था कि सरदारजी को काहे इस तरह से सताया जा रहा है।
तभी वहां एक नारा गूंजा–
‘‘ पकड़ो मारों सालों को
इंदिरा मैया के हत्यारों को!’’
असगर भाई का माथा ठनका।
अर्थात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई !
उसे तो फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ के अलावा और कोई सुध न थी।
यानी कि लॉज का नौकर जो कि नाश्ता-चाय देने आया था सच कह रहा था।
देर करना उचित न समझ, लॉज से अपना सामान लेकर वह तत्काल बाहर निकल आए।
नीचे अनियंत्रित भीड़ सक्रिय थी।
सिखों की दुकानों के “ाीशे तोड़े जा रहे थे। सामानों को लूटा जा रहा था।
उनकी गाड़ियों में, मकानों में आग लगाई जा रही थी।
असगर भाई ने यह भी देखा कि पुलिस के मुट्ठी भर सिपाही तमाशाई बने
निश्क्रिय खड़े थे।

जल्दबाजी में एक रिक्षा पकड़कर वह एक मुस्लिम बहुल इलाके में आ गए।
अब वह सुरक्षित थे।
उसके पास पैसे ज्यादा न थे।
उन्हें परीक्षा में बैठना भी था।
पास की मस्जिद में वह गए तो वहां नमाज़ियों की बातें सुनकर दंग रह गए।
कुछ लोग पेश-इमाम के हुजरे में बीबीसी सुन रहे थे।
बातें हो रही थीं कि पाकिस्तान के सदर को इस हत्याकाण्ड की खबर उसी समय
मिल गई, जबकि भारत में इस बात का प्रचार कुछ देर बाद हुआ।
ये भी चर्चा थी कि फसादात की आंधी “ाहरों से होती अब गांव-गली-कूचों तक
पहुंचने जा रही है।
उन लोगों से जब उन्होंने दरयाफ्त की तो यही सलाह मिली –’’बरखुरदार!  अब
पढ़ाई और इम्तेहानात सब भूलकर घर की राह पकड़ लो, क्योंकि ये फसादात खुदा
जाने जब तक चलें।
बात उनकी समझ में आई।
वह उसी दिन घर के लिए चल दिउ । रास्ते भर उन्होंने देखा कि जिस
प्लेटफार्म पर गाड़ी रूकी सिखों पर अत्याचार के निशानात साफ नजर आ रहे
थे।

उनके अपने नगर में भी हालात कहां ठीक  थे।
वहां भी सिखों के जान-माल को निशाना बनाया जा रहा था।
टीवी और रेडियो से सिर्फ इंदिरा-हत्याकाण्ड और खालिस्तान आंदोलन के
आतंकवादियों की ही बातें बताई जा रही थीं।
लोगों की सम्वेदनाएं भड़क रही थीं।
खबरें उठतीं कि गुरूद्वारा में सिखों ने इंदिरा हत्याकाण्ड की खबर सुन कर
पटाखे फोड़े और मिठाईयां बांटीं हैं।
अफवाहों का बाजार गर्म था।
दंगाईयों-बलवाइयों को डेढ़-दो दिन की खुली छूट देने के बाद प्रशासन जागा
और फिर उसके बाद नगर में कफ्र्यू लगाया गया।
यदि वह धिनौनी हरकत कहीं मुस्लिम आतंकवादियों ने की होती तो ?
उस दफा सिखों को सबक सिखाया गया था।
इस बार…
जफर आ जाएं तो फैसला कर लिया जाएगा।
जैसे ही असगर भाई कुछ समर्थ हुए, उन्होंने अपना मकान मुस्लिम बहुल इलाकों
में बनवा लिया था।

जफर तो नौकरी कर रहा है किन्तु उसने भी कह रखा है कि भाईजान मेरे लिए भी
कोई अच्छा सा सस्ता प्लॉट देख रखिएगा।
अब अब्बा को समझाना है कि वे उस भूत-बंगले का मोह त्याग कर चले आएं इसी
इब्राहीमपुरा में।
इब्राहीमपुरा ‘मिनी-पाकिस्तान’ कहलाता है।
असगर भाई को यह तो पसंद नहीं कि कोई उन्हें ‘पाकिस्तानी’ कहे किन्तु
इब्राहीमपुरा में आकर उन्हें वाकई सुकून हासिल हुआ था। यहां अपनी हुकूमत
है। गैर दब के रहते हैं। इत्मीनान से हरेक मजहबी तीज-त्योहारों का लुत्फ
उठाया जाता है। रमजान के महीने में क्या छटा दिखती है यहां। पूरे महीने
उत्सव का माहौल रहता है। चांद दिखा नहीं कि हंगामा “ाुरू हो जाता है।
‘तरावीह’ की नमाज में भीड़ उमड़ पड़ती है।
यहां साग-सब्जी कम खाते हैं लोग क्योंकि सस्ते दाम में बड़े का गोश्त जो
आसानी से मिल जाता है।
फ़िजा में सुब्हो-शाम अजान और दरूदो-सलात की गूंज उठती रहती है।
‘शबे-बरात’ के मौके पर स्थानीय मजार “ारीफ में गजब की रौनक होती है।
मेला, मीनाबाजर लगता है और कव्वाली के “ाानदार मुकाबले हुआ करते हैं।
मुहर्रम के दस दिन “ाहीदाने-कर्बला के गम में डूब जाता है इब्राहीमपुरा !
सिर्फ मियांओं की तूती बोलती है यहां।
किसकी मजाल की आंख दिखा सके। आंखें निकाल कर हाथ में धर दी जाएंगी।
एक से एक ‘हिस्ट्री-शीटर’ हैं यहां।
अरे, खालू का जो तीसरा बेटा है यूसुफ वह तो जाफरानी-जर्दा के डिब्बे में
बम बना लेता है।
बड़ी-बड़ी राजनीतिक हस्तियां भी हैं जिनका संरक्षण इलाके के बेरोजगार
नौजवानों को  मिला हुआ है।

असगर भाई को चिन्ता में डूबा देख मुनीरा ने टीवी ऑफ कर दिया।
असगर भाई ने उसे घूरा–
‘‘ काहे की चिन्ता करते हैं आप…अल्लाह ने ज़िन्दगी दी है तो वही पार
लगाएगा। आप के इस तरह सोचने से क्या दंगे-फसाद बन्द हो जाएंगे ?’’
असगर भाई ने कहा–’’ वो बात नहीं, मैं तो अब्बा के बारे में ही सोचा करता
हूं। कितने ज़िद्दी हैं वो। छोड़ेंगे नहीं दादा-पुरखों की जगह…भले से
जान चली जाए।’’
‘‘ कुछ नहीं होगा उन्हें, आप खामखां फ़िक्र किया करते हैं। सब ठीक हो जाएगा।’’
‘‘खाक ठीक हो जाएगा। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करूं ? बुढ़ऊ सठिया गए
हैं और कुछ नहीं । सोचते हैं कि जो लोग उन्हेे सलाम किया करते हैं मौका
आने पर उन्हें बख़्श देंगे। ऐसा हुआ है कभी। जब तक अम्मा थीं तब तक ठीक
था अब वहां क्या रखा है कि उसे अगोरे हुए हैं।’’
मुनीरा क्या बोलती। वह चुप ही रही।
असगर भाई स्मृति के सागर में डूब-उतरा रहे थे।
अम्मा बताया करती थीं कि सन इकहत्तर की लड़ाई में ऐसा माहौल बना कि लगा
उजाड़ फेंकेंगे लोग। आमने-सामने कहा करते थे कि हमारे मुहल्ले में तो एक
ही पाकिस्तानी घर है। चींटी की तरह मसल देंगे।
‘‘चींटी की तरह…हुंह..’’ असगर भाई बुदबुदाए।
कितना घबरा गई थीं तब वो। चार बच्चों को सीने से चिपकाए रखा करती थीं।
अम्मा घबराती भी क्यों न, अरे इसी सियासत ने तो उनके एक भाई की पार्टीशन
के समय जान ले ली थी।

‘‘ जानती हो पिछले माह जब मैं घर गया तो वहां देखा कि हमारे घर की
चारदीवारी पर स्वास्तिक का निशान बनाया गया है। बाबरी मस्जिद के बाद उन
लोगों का मन बढ़ गया है।  मैंने जब अब्बा से इस बारे में बात की तो वह
जोर से हंसे और कहे कि ये सब लड़कों की “ौतानी है। ऐसी-वैसी कोई बात
नहीं। अब तुम्हीं बताओ कि मैं चिन्ता क्यों न करूं ?’’
‘‘अब्बा तो हंसते-हंसते ये भी बताए कि जब ‘एंथ्रेक्स’ का हल्ला मचा था तब
चंद स्कूली बच्चों ने चाक मिट्टी को लिफाफे में भरकर प्रिंसीपल के पास
भेज दिया था। बड़ा बावेला मचा था। अब्बा हर बात को ‘नार्मल’ समझते हैं।’’
‘‘अब्बा तो वहां के सबसे पुराने वाशिन्दों में से हैं। सुबह-शाम अपने
बच्चों को ‘दम-करवाने’ सेठाइनें आया करती हैं। अबा के साथ कहीं जाओ तो
उन्हें कितने गैर लोग सलाम-आदाब किया करते हैं। उन्हें तो सभी
जानते-मानते हैं।’’ मुनीरा ने अब्बा का पक्ष लिया।
‘‘खाक जानते-मानते हैं। आज नौजवान तो उन्हें जानते भी नहीं और पुराने
लोगों की आजकल चलती कहां   है ?  तुम भी अच्छा बताती हो।  सन् चैरासी के
दंगे में कहां थे पुराने लोग ? सब मन का बहाकावा है। भीड़ के हाथ में जब
हुकूमत आ जाती है तब कानून गूंगा-बहरा हो जाता  है।’’
मुनीरा को लगा कि वह बहस में टिक नहीं पाएगी इसलिए उसने विशय-परिवर्तन करना चाहा–
‘‘ छोटू की ‘मैथ्स’ में ट्यूशन लगानी होगी। आप उसे लेकर बैठते नहीं और
‘मैथ्स’ मेरे बस का नहीं।’’

‘‘ वह सब तुम सोचो। जिससे पढ़वाना हो पढ़वाओ। मेरा दिमाग ठीक नहीं। जफर आ
जाए तो अब्बा  से आर-पार की बात कर ही लेनी है।’’
तभी फोन की घण्टी घनघनाई।
मुनीरा फोन की तरफ झपटी। वह फोन घनघनाने पर इसी तरह हड़बड़ा जाती है।
फोन जफर का था, मुनीरा ने रिसीवर असगर भाई की तरफ बढ़ा दिया।
असगर भाई रिसीवर ले लिया–
‘‘ वा अलैकुम अस्स्लाम! जफर…! कहां से ?  यहां मैं तुम्हारा इनतेजार कर
रहा हूं ।’’
…….

‘‘अब्बा पास में ही हैं क्या ? जरा बात तो कराओ।’’
मुनीरा की तरफ मुखातिब होकर बोले–’’जफर भाई का फोन है। यहां न आकर वह
सीधे अब्बा के पास से चला गया हैैं।’’
‘‘ सलाम वालैकुम अब्बा… मैं आप की एक न सुनूंगा। आप छोड़िए वह सब और
जफर को लेकर सीधे मेरे पास चले आइए।’’
पता नहीं उधर से क्या जवाब मिला कि असगर भाई ने रिसीवर पटक दिया ।
मुनीरा चिड़चिड़ा उठी–
‘‘ इसीलिए कहती हूं कि आप से ज्यादा होशियार तो जफर भाई हैं। आप खामखां
‘टेंशन’ में आ जाते है। डॉक्टर ने वैसे भी आपको फालतू की चिन्ता से मना
किया है।’’

बस इतना सुनना था कि असगर भाई हत्थे से उखड़ गए।
‘‘तुम्हारी इसी सोच पर मेरी — सुलग जाती है। मेरे वालिद तुम्हारे लिए
‘फालतू की चिन्ता’ बन गए। अपने अब्बा के बारे मैं चिन्ता नहीं करूंगा तो
क्या तुम्हारा भाई करेगा ?’’
ऐसे मौकों पर मुनीरा चुप मार ले तो बात बढ़े। अपने एकमात्र भाई के बारे
में अपशब्द वह बदाश्त नहीं कर पाती है, किन्तु जाने क्यों मुनीरा ने आज
जवाब न दिया।
असगर भाई ने छेड़ा तो था किन्तु मुनीरा को चुप पाकर उनका माथा ठनका,
इसलिए सुलहकुन आवाज में वह बोले–
‘‘ लगता है कि अब्बा नहीं मानेंगे, वहीं रहेंगे…!’’


प्रस्तुति
नित्यानन्द गायेन
Assitant Editor
International News and Views Corporation

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अनवर सुहैल

 कवि -कथाकार

प्रकाशित किताबें -कथा संग्रह : कुंजड कसाई, ग्यारह सितम्बर के बाद, चहल्लुम ।
उपन्यास : पहचान, दो पाटन के बीच ।

कविता संग्रह : और थोडी सी शर्म दे मौला , संतो काहे की बेचैनी।
सम्पादन : ‘संकेत ‘ लघुपत्रिका 

सम्पर्क : टाईप 4/3 , आफ़ीसर्स कालोनी, पो -बिजुरी ,जिला -अनूपपुर म. प्र. -484440 – Mobile-09907978108

7 COMMENTS

  1. Very well written story. It will be useful to anybody who usess it, including myself. Keep up the good work – looking forward to more posts

  2. कहानी को पढ़ते-पढ़ते इतना असामान्य महसूस करने लगा कि तब कुछ भी नहीं लिख पाया | अनवर सुहैल साहब ने जो तस्वीर पेश की है वो इतना जीवंत है , जैसे हर हादसे के समय मैं खुद खड़ा था |

  3. अनवर साहब आपकी कलम को सलाम आपनी किताब खरीद कर पढ़ी ! आपकी कहानियाँ दिलो के आस-पास की हैं ! बधाई !

    • शुक्रिया आप सभी का, इस वेब पत्रिका का, भाई नित्यानंद गायेन का…इस माध्यम से आप मित्रों तक मैं अपने विचार पहुंचा सका…सादर

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