– जावेद अनीस –
पिछले साल गर्मियों में लोकसभा चुनाव नतीजे आने के दिन 16 मई 2014 को कर्नाटक के मंगलौर में नरेंद्र दामोदरदास मोदी के जीत के जश्न में दो मस्जिदों पर पथराव हुआ था, मोदी सरकार के गठन के बाद पुणे में कुछ इस तरह से जश्न मनाया गया कि मोहसिन शेख नाम के आईटी इंजीनियर नमाज पढ़ कर अपने घर लौट रहा था इस दौरान हिंदू राष्ट्र सेना के सदस्यों ने उसकी पीट-पीटकर हत्या कर दी। हत्या के बाद आरोपी हिंदू सेना के कार्यकर्ता ने मोबाइल से एक मैसेज फॉरवर्ड किया, जिसमें लिखा था, ‘पहली विकेट पड़ी’ यानी पहला विकेट गिर गया है। मोहसिन शेख पर यह इल्जाम लगाया गया था कि उसने सोशल साइट पर शिवसेना प्रमुख प्रमुख बाल ठाकरे और छत्रपति शिवाजी के आपत्तिजनक तस्वीरों को शेयर किया था। हालांकि घटना के वक्त मोहसिन के साथ रहे उसके दोस्त रियाज ने खुलासा किया कि मोहसिन को भीड़ ने इसलिए निशाना बनाया क्योंकि वह ‘मुस्लिम टोपी’ पहने हुए था और लंबी दाढ़ी रखे था। रियाज उस वक्त किसी तरह से अपनी जान बचा कर भाग निकला था। इसके कुछ दिनों के बाद महाराष्ट्र में ही शिवसेना के एक सांसद द्वारा एक रोजेदार के मुंह में जबरदस्ती रोटी ठूसे जाने का मामला सामने आया था ।
पहली बार हर साल दशहरे पर नागपुर में होने वाला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रम का प्रसारण दूरदर्शन पर किया गया, इस दौरान इसकी झांकी दिखाई गई और संघ प्रमुख मोहन भागवत का पूरा भाषण दिखाया गया। मोहन भागवत ने अपने भाषण में केरल में जिहादी गतिविधियों और गोरक्षा जैसे मुद्दों का ज़िक्र किया। यह सरकारी मशीनरी का खतरनाक दुरुपयोग था और साथ ही सन्देश भी कि आने वाले दिनों में मोदी सरकार के लिए संघ परिवार और उससे जुड़े संगठनों की क्या अहमियत रहने वाली है। देश के शीर्ष इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने इसपर सवाल उठाते हुए कहा कि “आर.एस.एस. एक सांप्रदायिक हिन्दू संगठन है, यह एक गलत परंपरा की शुरुआत है।’ इसपर तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावेड़कर ने इस तरह के सवाल उठाने वालों को जवाब दिया कि “लोग आर.एस.एस. प्रमुख को सुनना चाहते हैं..सवाल तो ये उठना चाहिए कि अब तक इस वार्षिक कार्यक्रम को क्यों नहीं दिखाया जाता था।” खुद प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट किया कि “आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत ने अपने भाषण में सामाजिक सुधारों के जो मुद्दे उठाए हैं वो आज भी प्रासंगिक हैं।” साथ ही साथ उन्होंने भागवत के भाषण का लिंक भी सांझा किया।
मोदी सरकार के शुरुवाती दिनों में ही इसी तरह का एक और मामला सामने आया था जिसमें तेलंगाना के एक भाजपा विधायक ने पूरी दुनिया में भारतीय महिला टेनिस खिलाडी के रुप में पहचान बना चुकीं टेनिस स्टार सानिया मिर्जा को “पाकिस्तानी बहु” का खिताब देते हुए उनके राष्ट्रीयता पर सवाल खड़ा किया था। इसी कड़ी में गोवा के एक मंत्री दीपक धावलिकर का वह बयान काबिले गौर है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत हिन्दू राष्ट्र बन कर उभरेगा।‘
नयी सरकार के गठन के बाद पिछले एक सालों में लगातार ऐसी घटनायें और कोशिशें हुई हैं जो ध्यान खीचती हैं, इस दौरान धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा बढ़ी है और उनके बीच असुरक्षा की भावना मजबूत हुई है, देश के लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर हमले हुए हैं और भारतीय संविधान के उस मूल भावना का लगातार उलंघन हुआ है जिसमें देश के सभी नागरिकों को सुरक्षा, गरिमा और पूरी आजादी के साथ अपने-अपने धर्मों का पालन करने की गारंटी दी गयी है। मई 2014 में निर्वाचित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नई सरकार आने के बाद से भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने का एक सिलसिला सा चल पड़ा है। संघ परिवार के नेताओं से लेकर केंद्र सरकार और भाजपा शासित राज्यों के मंत्रियों तक हिन्दू राष्ट्रवाद का राग अलापते हुए भडकाऊ भाषण दिए जा रहे हैं, नफरत भरे बयानों की बाढ़ सी आ गयी है, पहले छः महीनों में “लव जिहाद”, “घर वापसी” जैसे कार्यक्रम चलाये गये, 2015 में गणतंत्र दिवस के दौरान केंद्र सरकार द्वारा जारी विज्ञापन में भारतीय संविधान की उद्देशिका में जुड़े ‘धर्मनिरपेक्ष‘ और ‘समाजवादी‘ शब्दों को शामिल नहीं किया गया था। केंद्र के एक वरिष्ठ मंत्री ने इस विज्ञापन को सही ठहराया। भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना ने तो इन शब्दों को संविधान की उद्देशिका से हमेशा के लिए हटा देने की वकालत ही कर डाली थी। दरअसल मोदी सरकार के सत्ता में आते ही संघ परिवार बड़ी मुस्तैदी से अपने उन एजेंडों के साथ सामने आ रहा है, जो काफी विवादित रहे है, इनका सम्बन्ध धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों, इतिहास, संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के करीब नब्बे साल पुराने सपने से है।
एक साल हिन्दू राष्ट्रवाद की नीवं
नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के शुरुआत में मुम्बई की गलियों में होर्डिंग्स लगवाये थे जिसमें लिखा हुआ था ‘मैं हिंदू राष्ट्रवादी हूं’। यह एक स्वयंसेवक की सावर्जनिक अभिव्यक्ति थी जिसने तमाम अड़चनों को पार करते हुए अपने पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी हासिल की थी और फिर बाद में सम्पूर्ण बहुमत के साथ भारत की सत्ता को हासिल किया था, इसमें उन्हें मनमोहन सरकार की गैर-जवाबदेही, निराशा, दंभ, निक्कमेपन और जनता का उनके प्रति गुस्से का फायदा तो मिला ही साथ ही साथ उन्होंने महत्वकांक्षी मध्य वर्ग और बड़ी संख्या में सामने आई एक युवा पीढ़ी के आकांक्षाओं को साधने में भी कोई गलती नहीं की। इस बार के चुनाव भाजपा ने नहीं अकेले मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लड़ा था, इतने खुले तौर पर संघ इसलिए चुनाव में शामिल हुआ क्योंकि इस दौरान वह एक मुश्किल दौर से गुजर रहा था, तमाम कोशिशों के बाद भी संघ का विस्तार रुका हुआ था, उसकी शाखाओं में नये स्वयंसेवकों की आमद घट रही थी, कई शाखायें बंद हो रही थी, “भगवा आतंकवाद” की लौ सरसंघचालक तक पहुचने लगी थी। मोदी और मोहन भागवत की जोड़ी ने न केवल सामने आये अवसर को सिर्फ पहचाना बल्कि अपने पुराने खोल से बाहर निकल कर जरुरत के हिसाब से अपने को बदला, नयी रणनीतियां बनायीं जिसके तहत विकास,सुशासन के नाम पर नए नारे गढ़े गये और जातीय ध्रुवीकरण को सांधने के लिए हिन्दुत्व और जाति के फर्क को कम किया गया, विवादित समझने जाने वाले एजेंडों को कुछ समय के लिए ऐसे परदे के पीछे डाल दिया हैं, जहाँ से वह केवल उसके कैडर और समर्थकों को ही नज़र आ सके।
इसमें कोई शक नहीं कि मोदी सरकार आजाद भारत की पहली बहुसंख्यकवादी और सम्पूर्ण दक्षिणपंथी सरकार है और अब आर.एस.एस. के एक वरिष्ठ और पूर्णकालिक कार्यकर्ता इस देश का प्रधानमंत्री है। यह पिछले सभी सरकारों से कई मायनों में अलग है, उनके अपने एजेंडे हैं जिसे वे लागू करने में बहुत स्मार्ट साबित हो रहे हैं, संघ परिवार और मोदी सरकार का ताल-मेल भी बहुत गज़ब का है, कहीं कोई रुकावट नही है।
अब पूरे संघ परिवार का सब से बड़ा एजेंडा आजादी के लडाई के दौरान निकले सेकुलर और प्रगतिशील “भारतीय राष्ट्रवाद” के जगह “हिन्दू राष्ट्रवाद” को स्थापित करना है, जिसमें संघ परिवार के साथ सरकार के लोग पूरे मुस्तैदी के साथ लगे हुए है लेकिन इस पर चर्चा करने से पहले आईये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को समझते हैं।
आर.एस.एस. की स्थापना 1925 में विजयदशमी के दिन नागपुर में हुई थी। यह एक अतिवादी दक्षिणपंथी संगठन है, जिसका कोई संविधान नहीं है, इसके लक्ष्य और उद्देश्यों को कभी स्पष्ट रुप से परिभाषित नहीं किया गया। आम लोगों को सामान्यतः बताया जाता है कि इसका उद्देश्य केवल शारीरिक प्रशिक्षण है, लेकिन असली उद्देश्य आर.एस.एस. के आम सदस्यों को भी नहीं बताए जाते हैं। केवल ‘अंदरूनी हलकों’ को ही विश्वास में लिया जाता है। अपने नेचर में यह एक गुप्त संस्था की तरह है, संगठन का कोई रिकॉर्ड नहीं हैं, कोई सदस्यता रजिस्टर नहीं और ना ही आमदनी और खर्च के भी कोई रिकॉर्ड, कुल मिलाकर यह बहुत ही अनौपचारिक तरीके से काम करता है, जिसकी वजह से इसके असली मकसद और कारनामों का थाह लगा पाना बहुत ही मुश्किल है। दरअसल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझने के लिए यह जानना जरुरी है कि संघ ने समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपने अनुषंगिक संगठन बना रखे है जिनके जरिये वह देश और समाज के लगभग हर क्षेत्र में हस्तेक्षप करता है यानी अपने असली काम को वह इन्हीं संगठनों के जरिये अंजाम देता है जिन्हें संक्षेप में संघ परिवार कहा जाता है। आमतौर पर इन संगठनों के नेतृत्व में वही लोग होते हैं जो संघ से भेजे जाते हैं। इन्हें प्रचारक या पूर्णकालिक कार्यकर्ता कहा जाता है, संघ की हर तीन महीने और सालाना बैठक होती हैं, ऐसी बैठकों को प्रतिनिधि सभा की बैठक कहा जाता है। इनमें तमाम संगठनों के प्रतिनिधि भाग लेते हैं और अपने भावी कार्यक्रमों की रुपरेखा तैयार करते हैं। जनसंघ और बाद में भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा की तौर पर काम करते रहे हैं। संघ पर इटली की लेखिका मारिया कासोलारी का एक महत्वपूर्ण शोध लेख ‘हिंदुत्वाज़ फारेन टाइ-अप इन द थर्टीज़’ में जो की इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में जनवरी, 2000 के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसमें कासोलारी ने विभिन्न दस्तावेजों के माध्यम से बताया है कि 1930 के दशक में जब आर.एस.एस. अपने संगठन को मजबूत बनाने की योजनाएँ बनाने में लगा था, इनके नेता वास्तव में इटली में जाकर मुसोलिनी से मिले थे, वहां उसकी सेनाओं की प्रशिक्षण-पद्धति को जाना-समझा तथा भारत में वापिस आकर उसी पद्धति को संघ के माध्यम से लागू करने का प्रयास किया।
संघ का उद्देश्य भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना है। संघ की ओर से बार-बार कहा जाता है कि भारतीय राष्ट्रीयता का आधार हिन्दुत्व है। संघ की तरफ से यह दावा किया जाता है कि हिन्दुत्व धर्म नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति है । संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरू गोलवलकर की एक किताब है जिसका नाम है “Bunch of Thoughts” इस किताब में संघ के समग्र दर्शन की व्याख्या की गई है। इस किताब में गुरू गोलवलकर ने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर विचार प्रगट किए हैं। इसमें मुस्लिम और ईसाई समुदाय को लेकर गोलवलकर कहते हैं कि “वैसे तो भारत हिन्दुओं का एक प्राचीन देश है। इस देश में पारसी और यहूदी मेहमान की तरह रहे हैं परन्तु ईसाई और मुसलमान आक्रामक बन कर रह रहे हैं। मुसलमान और ईसाई भारत में रह सकते हैं परन्तु उन्हें हिन्दू राष्ट्र के प्रति पूरे समर्पण के साथ रहना पड़ेगा”। संघ परिवार का अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया गुरू गोलवलकर के इसी विचार से निर्देशित होता है जिसे हर स्वयंसेवक को घुट्टी की तरह घोल कर पिलाया जाता है। हिन्दू राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्र का कुल जमा फलसफा यही है। पिछला एक साल को इसी फलसफे की नीवं के तौर पर इस्तेमाल किया गया है।
इसी साल जून में सरसंघचालक ने मथुरा में आयोजित आर.एस.एस. के पश्चिमी क्षेत्र के ट्रेनिंग कैंप में कहा है कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है, इस विचार को छोड़कर कुछ भी बदला जा सकता है। भागवत ने आगे कहा कि “कुछ लोग खुद को हिंदू कहते हैं, कुछ खुद को भारतीय बताते हैं और कुछ आर्य। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मूर्ति पूजा में यकीन नहीं रखते। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि भारत तो हिंदू राष्ट्र ही है।” इसका मतलब है कि वे कह रहे हैं, देश में रहने वाला हर शख्स हिन्दू है भले ही वह किसी भी मजहब को मानता हो और उनके हिसाब से हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति है और इसे सभी को मानना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो वह माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर के उन्हीं शब्दों को दोहरा रहे हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि “मुसलमान और ईसाई को भारत में रहना है तो उन्हें हिन्दू राष्ट्र के प्रति पूरे समर्पण के साथ रहना पड़ेगा।”
संघ का अंतिम लक्ष्य संगठन को ही समाज बना देना है यानि इतना विस्तार की समाज और संगठन का भेद ही मिट जाए और पूरा बहुसंख्यक समाज ही संगठन में समां जाए, निश्चित रूप से गोलवलकर के अनुयायीयों ने इस बार पूर्ण बहुमत के साथ भारत की सत्ता को लोकतान्त्रिक तरीके से जीता हैं और अब वे अपने गुरु के सपनों का भारत बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, जबरदस्ती गीता पढ़ाने, योग कराने और घर वापसी जैसी उपक्रम इसी दिशा में बढ़ाये गये कदम हैं। जब पूरे देश में योग का हल्ला मचा था तो मोहन भगवत प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस में बयां दे रहे थे कि “भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए योग, शाखा और साधना अहम त्रिकोण है।“ लेकिन यह अंतिम त्रिकोण नहीं है देखते रहिये अभी तो हमें ऐसे ना जाने कितने त्रिकोणों का सामना करना पड़ सकता है।
लोकतान्त्रिक संस्थानों का संघीकरण
विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल का मानना है कि “दिल्ली में 800 सालों के उपरान्त पृथ्वीराज चौहान के बाद पहली हिंदुओं की सरकार बनी है और सत्ता हिंदू स्वाभिमानियों के हाथ आई है।” ज्ञात हो कि पृथ्वीराज चौहान को अंतिम हिन्दू सम्राट माना जाता है, सरसंघचालक ने यह भी कहा है कि “आर.एस.एस. के लिए यह अनुकूल समय है, इस समय आर.एस.एस. से जुड़े संगठनों की संख्या और प्रभाव दोनों बढ़ाने हैं।”
भारत के प्रख्यात न्यायविद फली एस. नरीमन जैसी शख्सियत ने मोदी सरकार को शुरूआती दिनों में ही बहुसंख्यकवादी बताते हुए चिंता जाहिर की थी कि बीजेपी-संघ परिवार के संगठनों के नेता खुलेआम अल्पसंख्यकों के खिलाफ बयान दे रहे हैं लेकिन पार्टी और सरकार के सीनियर लीडर इस पर कुछ नहीं कहते हैं। मुल्क में जिस तरह के हालात हैं उनसे नरीमन की चिंता बहुत वाजिब हैं। खुद नरेंद्र मोदी ने जबसे प्रधानमंत्री बने हैं तबसे दो मौकों पर भारत में धर्मनिरपेक्षता और इसमें विश्वास करने वाले लोगों पर सवाल खड़े करके इसका मजाक उड़ा चुके हैं, सबसे पहले अपनी जापान यात्रा के दौरान उन्होंने वहां सम्राट अकीहितो को अपनी तरफ से हिंदू धर्म की पवित्र ग्रंथ ‘भगवद्गीता’ की एक प्रति तोहफे के तौर पर देने को लेकर ‘धर्मनिरपेक्ष मित्रों’ पर चुटकी लेते हुए कहा था कि “हो सकता है कि इससे हंगामा खड़ा हो जाए और और टीवी पर बहस होने लगें।“ इसके बाद बर्लिन में उन्होंने संस्कृत भाषा को नज़रअंदाज़ किए जाने के लिए सेक्युलरवाद को ज़िम्मेदार ठहराया दिया था। भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए भगवद् गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की वकालत कर डाली, हमारे देश का संविधान सेक्युलर है और सभी भारतीयों का राष्ट्रीय ग्रन्थ भारतीय संविधान है, सरकार से एक वरिष्ठ मंत्री द्वारा गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की वकालत करना देशहित में नहीं है। लेकिन सरकार द्वारा ही पिछले एक साल से लगातार लोकतान्त्रिक संस्थानों, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और उदारवादी व बहुलतावादी सोच पर चौतरफ़ा हमले किए जा रहे हैं, भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद रहे प्रशासनिक, क़ानूनी, वैज्ञानिक और शैक्षिक ढांचों के साथ छेड़छाड़ करके उन्हें कमजोर करने की कोशिश की जा रही है और यहाँ संघ के विचारधारा के साथ जुड़े लोगों की भर्तियाँ हो रही हैं, जिससे वर्चस्ववादी हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा को बढावा दिया जा सके और उदारवादी धर्मनिरपेक्ष सोच का दायरा सीमित हो जाए। फिल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) में गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति का ताजा मामला इसी की एक कड़ी है, इससे पहले आर.एस.एस. के मुखपत्र पांचजन्य के पूर्व संपादक बलदेव शर्मा को नेशनल बुक ट्रस्ट का अध्यक्ष बनाया जा चुका है, सुदर्शन राव को प्रतिष्ठित भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष पद पर पहले ही नियुक्त किया जा चुका है। राव की अकादमिक गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वे जाति प्रथा को कोई बड़ी सामाजिक बुराई नहीं मानते हैं और यह स्थापित करने की कोशिश में लगे रहते है कि मुगलों के आक्रमण के बाद इसमें कठोरता आई और कई तरह की बुराईयां उसका हिस्सा बन गई।
हिन्दू धर्म से प्रेरित संस्कृति लोगों पर थोपा जा रहा है, पिछले साल केन्द्रीय विद्यालयों को सकुर्लर जारी कर कहा गया कि 25 दिसंबर को क्रिस्मिस के दिन पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की वर्षगांठ और मदनमोहन मालवीय की जयंती के अवसर पर इसे सुशासन दिवस के रूप में मनाया जाएगा। भगवद्गीता को स्कूलों में अनिवार्य रूप से पढाये जाने की तैयारीयां चल रही हैं,हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि ‘नए अकादमिक सत्र से स्कूलों में छात्रों को भगवद्गीता के श्लोक पढ़ाए जाएंगे।’ 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रुप में तय किया गया है, उसी दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के संस्थापक केशव बलीराम हेडगेवार की पुण्यतिथि भी है, यह कनेक्शन कोई इत्तेफाक नहीं है, सब कुछ सोच समझ कर तय किया गया है। यहाँ पर फेसबुक पर एक्टिव एक संघ कार्यकर्ता के स्टेटस का जिक्र मुनासिब रहेगा जिसने लिखा कि “राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रथम संस्थापक परम पूजनीय डॉ. केशव बलिराम हेडगवार जी की पुण्य तिथि है और उस दिन पूरा विश्व योग करेगा एक साथ….एक स्वंयसेवक के लिए इससे बड़ी गर्व की बात क्या हो सकती है।” अगर इस विषय की गहराई में जाए तो यह समझते देर नहीं लगेगी कि योग को लेकर सरकार की अतिसक्रियता के पीछे सरकार में बैठे लोगों का आर.एस.एस. में पले बढे लोगों का संघ के विचारधारा से प्रभावित दिमाग ही काम कर रहा था।
ईसाईयों और मुसलमानों पर हमले
पहला हमला “अल्पसंख्यक” और “सेकुलरिज्म” के कांसेप्ट पर ही है, आर.एस.एस. के वरिष्ठ नेता दत्तात्रेय होसाबले के बयान पर ध्यान दीजिये जिसमें वे कहते हैं कि “भारत में कोई अल्पसंख्यक नहीं है यहाँ सब लोग ‘सांस्कृतिक, राष्ट्रीयता और डीएनए से हिंदू’ हैं।“ उनके मुखिया मोहन भागवत ने कई बार कहा है कि ‘भारत में जन्म लेने वाले सभी लोग हिंदू हैं. चाहे वे इसे मानते हों या नहीं, सांस्कृतिक, राष्ट्रीयता और डीएनए के तौर पर सब एक हैं।‘ बहुत ही दिलचस्प तरीके से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी होसाबले और भागवत की हाँ में हाँ मिलाते हुए नज़र आते हैं। पिछले ही दिनों मुसलमानों के एक प्रतिनिधिमंडल से मुलाक़ात के दौरान नरेन्द्र मोदी ने कहा कि ‘बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की राजनीति देश को पहले ही बहुत नुकसान पहुंचा चुकी है। वह ऐसी राजनीति में विश्वास नहीं रखते जो लोगों को मज़हब के आधार पर बांटती है।‘ भारत में अल्प धार्मिक समूहों को अल्पसंख्यक समूह का दर्जा यूँ ही नहीं मिला है,हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-समझ कर यह प्रावधान किया था जिसके वजह से देश में सभी धार्मिक समुदाय बिना किसी डर और भेदभाव के अपने–अपने पंथो को मानने के लिए आजाद है और उनपर किसी दूसरे मजहब और कल्चर को थोपा भी नहीं जा सकता है। संघ के निशाने पर अल्पसंख्यकों मिला यह अधिकार और सुरक्षा हमेशा से निशाने पर रहा है। कहने की जरूरत नहीं है यह संघ परिवार के हिन्दू राष्ट्र के रास्ते में एक बड़ा रोड़ा है इसलिए आज यह संघ प्रमुख से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक के निशाने पर है। दूसरा निशाना “सेकुलरिज्म” है, इस साल मई में दिल्ली विश्वविद्यालय के माता सुंदरी कॉलेज में राष्ट्र सेविका समिति की बौद्धिक शाखा ‘सिंधुसृजन’ द्वारा ‘सेकुलरिज्म: तथ्य और मिथक’ केंद्रित विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया था । इसमें मुख्य अतिथि के रूप में भाजपा के वरिष्ठ नेता डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा था कि “भारत में सेकुलर शब्द का दुरुपयोग हो रहा है, सेकुलरिज्म की आड़ लेकर अल्पसंख्यक इसका अलग मतलब निकालते हैं और विशेष मांग करते हैं।“
मुस्लिम समुदाय के प्रति बढ़ रही कटुता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मोदी सरकार के आने के बाद से यह दूसरा मौका है जब भारत के उपराष्ट्रपति को उनके मजहब की वजह से निशाना बनाया गया है। योग दिवस के मौके पर संघ और भाजपा से जुड़े राम माधव ने उपराष्ट्रपति की गैरमौजूदगी पर सवाल खड़े कर दिए साथ ही उन्होंने आरोप भी लगाया कि क्या राज्यसभा टीवी जो टैक्स देने वालों के पैसे से चलता है, ने योग डे का ब्लैक आउट किया। इस पर उपराष्ट्रपति के ऑफिस की तरफ से स्पष्टिकरण देना पड़ा कि उपराष्ट्रपति को सरकार की ओर से कार्यक्रम का न्योता ही नहीं दिया गया था और प्रोटोकॉल के मुताबिक उपराष्ट्रपति तभी किसी आयोजन में जाते हैं जब संबंधित मंत्री की ओर से उन्हें आमंत्रित किया जाता है। हालांकि बाद में राम माधव को माफी मांगनी पड़ी और सरकार की तरफ से भी प्रोटोकॉल का हवाला देते हुए उपराष्ट्रपति को निमंत्रित नहीं करने की बात को स्वीकार किया गया। लेकिन इन सबसे यह बात उजागर हो गयी कि राम माधव जैसे बड़े नेता के दिमाग में मुसलामानों को लेकर क्या चल रहा है। पहली घटना गणतंत्र दिवस के दौरान हुई थी जब राष्ट्रपति ओबामा भी यहां आए हुए थे। गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर परेड के आयोजन के वक्त़ जब भारत के राष्ट्रपति सेनाओं की सलामी ले रहे थे, तब उपराष्ट्रपति सावधान की मुद्रा में खड़े दिखे थे। इस पर सवाल उठाया गया कि आखिर हामिद अंसारी ने राष्ट्रीय झंडे को सलामी क्यों नहीं दी, उन्हें और उनके मजहब को अपमानित करने वाले तमाम संदेशों की बाढ़ सी आ गयी जिसमें उन्हें “देशद्रोही” और “गद्दार” तक कह डाला गया, बाद में स्पष्ट हुआ कि दरअसल यह प्रोटोकाल है कि गणतंत्र दिवस की परेड में, सर्वोच्च सेनापति होने के नाते केवल भारत का राष्ट्रपति ही सलामी लेते हैं और प्रोटोकाल के हिसाब से उपराष्ट्रपति खड़े रहते हैं।
जूलियो रेबेरो जैसे जानेमाने पुलिस अधिकारियों ने मार्च महीने में इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा कि “86वें वर्ष में हूँ, मगर आहत और अवांछित महसूस करता हूँ, मानों अपने ही देश में अजनबी की हैसियत में सिकुड़ गया होऊं।…जैसे मैं भारतीय ही नहीं रहा, कम से कम हिन्दू राष्ट्र के उन्नायकों की नजरों में।“ भारत के इस असाधारण पुलिस अधिकारी को देश में ईसाई समुदाय के प्रति बढ़ रही हिंसा और अविश्वास के रूप में देखा जाना चाहिए, पिछले एक सालों में सलीबियों और चर्चों पर हमले बढे हैं हैं।
आर.एस.एस. के सरसंघचालक ने यह कह कर आग में हवा देने का काम किया कि “मदर टेरेसा परोपकार का जो कार्य करतीं थीं उसका मुख्य उद्देश्य धर्मपरिवर्तन करवाना था।“ इस वक्तव्य के बाद हरियाणा के हिसार की चर्च पर हमला हुआ और वहां लगे क्रास को हटाकर उसकी जगह भगवान हनुमान की मूर्ति स्थापित कर दी गई और हद तो यह है कि इस पर संघी पृष्ठभूमि वाले हरियाणा के मुख्यमंत्री की तरफ से बयान दिया गया कि उक्त चर्च के पास्टर धर्मपरिवर्तन की गतिविधियों में संलग्न थे। इसपर हौसला पाकर संघ के अनुषांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद ने कहा कि अगर धर्मपरिवर्तन बंद नहीं हुए तो चर्चों पर और हमले होंगे।
प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार के साल पूरे होने पर न्यूज एजेंसी यूएनआई को दिए इंटरव्यू में कहा कि “संविधान सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता की आजादी की गारंटी देता है और इसमें कोई भी हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं किया जाएगा”। इस पर अदा जाफरी की यह लाईनें याद आती है,
इन्हें पढ़ सको तो किताब हैं, इन्हें छू सको तो गुलाब हैं
यह जो रेजा: रेजा: हैं सिसकियाँ, यह जो खार खार है उंगलियाँ
हाल ही में विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा ‘365 दिन-मोदी के शासन में प्रजातंत्र और धर्मर्निरपेक्षता’ के नाम से जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार 26 मई 2014 से लेकर जून 2015 तक ईसाइयों पर 212 हमले के मामले और मुसलमानों पर 175 हमले के मामले सामने आए हैं।इन हमलों में कम से कम 43 लोग मारे गए हैं।इसी दौरान भड़काऊ भाषण के 234 मामले भी सामने आए हैं।इस रिपोर्ट में दर्ज 90% से अधिक मामले उन 600 हिंसक वारदातों से अलग हैं जिनका अगस्त 2014 में इंडियन एक्सप्रेस अख़बार ने ख़ुलासा किया था ।
उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसार अब रणनीति बदल गई है और संघ परिवार को इस बात का एहसास हो गया है कि बड़े पैमाने पर हिंसा अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित करती है और इसलिए अब बहुत ही सुनियोजित ढंग से पूरे भारत में स्थानीय स्तर पर हिंसा और नफ़रत फैलाने की राजनीति की जा रही है जिससे लोंगों को बांटा जा सके और अल्पसंख्यकों को ओर हाशिए पर धकेला जा सके।
वैश्विक चिंताये
शायद वर्ष 2002 के बाद यह पहला मौका है जब भारत में अल्पसंख्यक समूहों की सुरक्षा और बहुसंख्यक दक्षिणपंथियों के उभार के खतरे को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इतनी गंभीरता के साथ चिंतायें सामने आई है। अमरीका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की वार्षिक रिपोर्ट 2015 में भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ़ हिंसा की आलोचना की गई है और धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति को चिंताजनक बताया गया है। यूएस कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजीयस फ़्रीडम या अमरीकी धार्मिक स्वतंत्रता आयोग ने भारत को टीयर-2 सूची में रखा है, इस सूची में उन देशों को रखा जाता है जहां धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन में कथित तौर पर सरकारें या तो खुद लिप्त होती हैं या ऐसे उल्लंघन को बर्दाश्त करती हैं। साल 2009 से भारत को इसी सूची में रखा जा रहा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सन् 2014 से मोदी सरकार द्वारा सत्ता संभालने के बाद से धार्मिक अल्पसंख्यकों को सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं की ओर से अपमानजनक टिप्पणियों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आर.एस.एस.) एवं विश्व हिन्दू परिषद(वि.हि.प.) जैसे हिन्दू राष्ट्रवादी समूहों की ओर से हिंसक हमलों और जबरन धर्मांतरण का सामना करना पड़ रहा है।”
इससे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने दो बार भारत में बढ़ रही धार्मिक असहिष्णुता का जिक्र किया था जिसमें एक दफा तो उन्होंने गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के तौर पर भारत के जमीन पर ही संविधान के अनुच्छेद 25 का बाकायदा उल्लेख करते हुए यह भी याद दिलाया कि सभी लोगों को अपनी पसंद के धर्म का पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार है। दूसरी बार अमरीका में नेशनल प्रेयर-ब्रेकफास्ट कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘भरपूर सौंदर्य लिए इस अद्भुत देश में जबरदस्त विविधता है लेकिन पिछले कुछ सालों के दौरान यहां हर धर्म के मानने वालों को दूसरे धर्मों की असहिष्णुता का शिकार बनना पड़ा है’, उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि ‘भारत में धार्मिक असहिष्णुता जिस स्तर पर पहुंच चुकी है, उसे देख कर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्तब्ध हो गए होते।’
इसी कड़ी में अमेरिका के नामी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी अपने एक संपादकीय में देश की रुलिंग पार्टी बीजीपी और उसकी मातसंस्था आर.एस.एस. और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों के घर वापसी जैसे कार्यक्रमों, चर्च पर हो रहे हमले पर सवाल उठाते हुए इसे ‘आग से खेलना’ करार दिया है, अखबार ने लिखा है कि ‘इन ज्वलंत मुद्दों पर मोदी की चुप्पी से ऐसा लगता है कि या तो वह हिंदू कट्टरपंथियों को कंट्रोल करना नहीं चाहते या फिर ऐसा कर नहीं पा रहे हैं।’
ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जारी वर्ल्ड रिपोर्ट 2015 में भी मुजफ्फरनगर दंगों में हिंसा भड़काने के आरोपी बी.जे.पी के संजीव बल्यान जैसे नेताओं को संसदीय चुनावों में प्रत्याशी बनाये जाने और केंद्र सरकार में मंत्री भी नियुक्त करने पर सवाल उठाया गया था।
बदलता हुआ माहौल
पिछले एक साल के दौरान मोदी सरकार द्वारा उठाये गये क़दमों और लिए गये फैसलों तथा संघपरिवार के हरकतों से यह आशंका सही साबित हुई है कि राष्ट्र के तौर पर हम ने अपना रास्ता बदल लिया है? भारतीय समाज की सबसे बड़ी खासियत विविधतापूर्ण एकता है, यह जमीन अलग अलग सामाजिक समूहों, संस्कृतियों और सभ्यताओं की संगम स्थाली रही है और यही इस देश की ताकत भी रही है। सहनशीलता, एक दूसरे के धर्म का आदर करना और साथ रहना असली भारतीयता है और हम यह सदियों से करते आये हैं।
आजादी और बंटवारे के जख्म के बाद इन विविधताओं को साधने के लिए सेकुलरिज्म को एक ऐसे जीवन शैली के रुप में स्वीकार किया गया जहाँ विभिन्न पंथों के लोग समानता, स्वतंत्रता, सहिष्णुता और सहअस्तित्व जैसे मूल्यों के आधार पर एक साथ रह सकें। हमारे संविधान के अनुसार राज्य का कोई धर्म नहीं है, हम कम से कम राज्य व्यवस्था में धर्मनिरपेक्षता की जड़ें काफी हद तक जमाने में कामयाब तो हो गये थे। लेकिन अब इसपर बहुत ही संगठित तरीके से बहु आयामी हमले शुरु हो चुके हैं, हिन्दू संस्कृति को पिछले दरवाजे से जनता पर लादने का तरीका अपनाया जा रहा है।
दरअसल संघ परिवार की ये हरकतें परोक्ष रूप से दूसरी तरफ के संगठनों और मुल्क में मौजूद उनके तलबगारों को मदद पहुँचा सकती हैं। भारत विश्व की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी का मुल्क है, मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बना देने कि संघी सनक इस समुदाय में अतिवादियों और इस्लामिक स्टेट या अलकायदा जैसे घात लगाए संगठनों का रास्ता ही आसान करेगी, क्योंकि इसी बहाने वे नवजवानों को जुल्म और भेद-भाव का हवाला देकर अपने साथ खड़ा करने कि कोशिश कर सकते हैं। अगर इस मुल्क के एक-आध फीसीदी मुसलमान भी इस्लामिक स्टेट और अलकायदा जैसे जिहादी संगठनों की इमामत स्वीकार कर लेते हैं तो हम भी आग का शिकार हो सकते हैं जिसमें पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान जल रहे हैं। हालांकि इसका सबसे ज्यादा असर यहाँ के मुसलमानों पर पड़ेगा।
लेकिन ऐसा होना उतना आसान नहीं है, दक्षिण एशिया में इस्लाम का इतिहास करीब हजार साल पुराना है, इस दौरान यहाँ सूफियों का ही वर्चस्व रहा हैं, पूरी दुनिया में कट्टरवाद के उभार के बावजूद भारतीय मुसलमान अपने आप को रेडिकल होने से बचाये हुए है, जरा याद कीजिये जब उन्होंने 26/11 के मुंबई हमले में मारे गये नौ आतंकियों के लाशों को यह कहते हुए लेने से इनकार कर दिया था कि “वे भले ही खुद को इस्लाम का शहीद कहते हुए मरे हों लेकिन हमारे लिए वे इंसानियत के हत्यारे हैं” यही नहीं इनको लाशों को मुंबई के “बड़े कब्रिस्तान” में दफनाने के लिए जगह देने लायक भी नहीं समझा गया था। इस बार भी सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह के तौर पर मुसलमानों को संयम रखना होगा और भारत की सियासत में धर्म के आधार पर गोलबंद ना होने के अपने विश्वास को बनाये रखना होगा फिर वो चाहे एम्.आई.एम्. जैसी पार्टी ही क्यों ना हो।
जरुरत इस बात की है कि हमारी विविधता और बहुलता पर हो रहे इस बहु आयामी हमले और इससे होने वाले नुक़सान से लोगों को सचेत कराया जाए और संविधान, लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों, संस्थाओं पर हो रहे हमले का एकजुट होकर विरोध किया जाए।
हिंदी के मशहूर साहित्यकार असग़र वजाहत अपने पाकिस्तान के यात्रा संस्मरण पर लिखी गयी किताब “पाकिस्तान का मतलब क्या” का अंत इन पंक्तियों के साथ करते हैं “मैं एक इस्लामी मुल्क देख आया हूँ. मैं मुसलमान हूँ. अब मैं लौट कर लोकतंत्र में आ गया हूँ. चाहे जितनी भी ख़राबियां हों लेकिन मैं इस लोकतंत्र में पाकिस्तान का ‘हिन्दू’ या ‘ईसाई’ नहीं हूँ. मैं काद्यानी भी नहीं हूँ …. मैं जो हूँ वो हूँ …. मुझे न अपने धार्मिक विश्वासों की वजह से कोई डर है और न अपने विचारों की वजह से कोई खौफ है …..मैंने एक गहरी साँस ली ….
हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हिन्दुस्तान के सन्दर्भ में असग़र वजाहत यह पंक्तियाँ सही साबित ना होने पायें और हम एक और पकिस्तान ना जायें ।
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जावेद अनीस
लेखक ,रिसर्चस्कालर ,सामाजिक कार्यकर्ता
लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे , उन्होंने अपनी पढाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पूरी की है पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द के मुद्दों पर काम कर रहे हैं, विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है !
जावेद नियमित रूप से सामाजिक , राजनैतिक और विकास मुद्दों पर विभन्न समाचारपत्रों , पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेबसाइट में स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं !
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