कविताएँ
बेटियां
बेटियां यूँ ही ससुराल नहीं जाती . .
वो छोड़ जाती है अपना सुनहरा बचपन उस पीहर में
वो बैठक में लगी हुई शीशे वाली झालर में अपनी झलक छोड़ जाती है
वो आँगन वाली तुलसी में अपनी महक छोड़ जाती है
वो बाबा के किस्सों में गंभीरता तलाश लेती है
और दादी की कहानियो में परियो को भी फ़ांस लेती है
वो सहेलियों के साथ शरारत से स्कूल को सर पर उठा लेती है
और घर आये मेहमान को पलकों पर बैठा लेती है
वो माँ की साडी से पापा की कमीज तक सब प्रेस करना जरुरी समझती है
और खुद के लिए खाना खाने तक को मज़बूरी समझती है
वो सबकी दवाई का समय भी ध्यान रखती है
और खुद बीमार होकर भी पुरे घर में नाचती है
वो पैसो की तंगी के कारण शौक मार लेती है
पर भाई के झगड़ा करने पर भी सब कुछ संभाल लेती है
वो सब्जी वाले से मोल भाव भी करती है
और बुड्डी भिखारन को देख आंसू भी भरती है
वो पापा की मजबूरियों को पल में ताड लेती है
और हर मुश्किल का हल पल में निकाल लेती है
वो विदाई में पलकों को इसलिए भिगोती है
क्युकी पीहर की कमी उसे महसूस होती है
बेटियां यूँ ही ससुराल नहीं जाती
वो छोड़ जाती है अपना सुनहरा बचपन उस पीहर में
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संघर्ष
हमने दो जून की रोटी में भी सुकून तलाशा है
हमारी मुफलिसी में भी जिन्दादिली की आशा है
हम तकदीर के हौसले भी बुलंद कर देते है
हम किस्मत के सिक्को को यूँ ही पलट देते है
हम जवान कंधो के बोझ की अनसुलझी पहेली है
हम दुश्मन के खौफ और दोस्तों की अठखेली है
हम गरीब के चूल्हे की जलती हुई लकड़ी है
हम दुनिया के जालो में फंसी हुई मकडी है
हम मजदूरो के बच्चो की भूख और प्यास है
हम हिम्मत हारे हुए किसी मजबूर की आस है
हम धूल है धक्कड़ है रस्ते की मिट्टी है
हम परदेस में आई अपने देस की चिठ्ठी है
हम काजल है आंसू है चेहरे की रौनक है
हम भीड़ में मिली कोई खोई हुई ऐनक है
हम झूट है सच है , एक टूटी सी ख्वाइश हैं
हम दुनिया के दस्तूरो में एक जोर आज़माइश है
हम भक्त है भगवान है विधि का विधान है
हम संघर्षो से जूझे हुए बस एक इन्सान हैं
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सुनहरा बचपन
लो बिसरे हुए उन ख्वाबों को पाले
फिर बीते हुए कल की यादे सजाले
उन रातों की लोरी का प्यारा सा मौसम
उस नन्हे से बचपन का प्यारा सा आँगन
छोटी सी हसरतो को फिर से सजाले
चलो बिसरे हुए उन ख्वाबों को पाले
उन टूटे हुए खिलौनों की यादे
उन बिसरे हुए दोस्तों की बाते
वो चंदा को मामा कहने की हसरत
वो छोटी सी ख्वाइश को जीने की चाहत
उन बचपन के रंगों को फिर से सजाले
चलो बिसरे हुए उन ख्वाबों को पाले
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हम कौन है
कभी इस बात को गंभीरता से समझा गया है कि कौन है हम अगर नहीं तो चलिए बताते हैं ।
हम वो है जो आये दिन होते दंगो में मरते हैं।
हम वो है जो घंटो सरकारी दफ्तरों की लाइनो में लगते हैं।
हम वो है जो सडक पर गुंडो से धमकाये जाते हैं।
हम वो है जो केवल चुनावो में ही याद आते हैं।
हम वो है जो गलत देख कर भी चुप्पी साध लेते हैं।
हम वो है जो धर्म समुदाय मे ही खुद को बांट लेते हैं।
हम वो है जो सिर्फ सैलून में सरकारे बदलते हैं।
हम वो है जो नेताओं की खुशामद करते हैं।
हम वो है जो नौकरियों के लिए चप्पलें घिसते है।
हम वो है जो आरक्षण की चक्की में पिसते है।
हम वो है जो ईमानदारी से अपना घर चलाते हैं ।
हम वो है जो शाम के बाद बाहर निकलने से कतराते है।
हम वो है जो भारतीयता का झूठा पाठ पढाते है।
हम वो है जो बाहर हिन्दी बोलने मे शरमाते है।
हम वो है जो भगतसिंह के संघर्षों को भूल जाते हैं।
हम वो है जो मरने पर मुआवजा बन जाते हैं।
हम वो है जो महीने के आखिरी में सूखा भात खाते हैं ।
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रंगोली वैश्य
कवियत्री व् लेखिका
शिक्षा – अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक ( अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद )
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