– राजेश पाण्डेय –
सामाजिक चिन्तन की अवधारणा का सिद्धान्त तो बहुत पहले से हम सुनते चले आ रहे है परन्तु आज भी एक ‘‘यक्ष प्रश्न’’ हमेंशा की तरह सामने खड़ा है कि वास्तव में समाज की गति किस दिशा में है? और जो गति है वह वास्तविक है या भ्रम? तबके में बट चुकेे समाज में जहाँ एक ओर सम्पूर्ण आर्थिक सम्पनता का आवरण ओढ़े हुए वो अभिजात वर्ग है जो कहता है ‘‘अहम् ब्रम्हास्मी’’ समाज मेरे नियन्त्रण में है। वही दूसरी ओर एक ऐसा वर्ग जो समाजिकता की चक्की में पिसते हुए घड़ी के चौबिसों घंटो का उपयोग करने को तत्पर है कि उसकी वास्तिक क्षमता को पहचाना जाय तथा उसे भी जीविकों पार्जन के सम्मानजनक साधन सुलभ हो परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा बहुत कम देखने को मिल रहा है।
देश के विकास और कल्याण के लिए 1951-52 में पंचवर्षिय योजनाओं का आरम्भ किया गया था। योजना आरम्भ करने के अवसर पर आचार्य बिनोवा भावे ने कहा था- ‘‘किसी भी राष्ट्रीय योजना की पहली शर्त सबकों रोजगार प्रदान करना है। यदि योजना से सबकों रोजगार नही मिलता तो यह पक्षीय होगा राष्ट्रीय नहीं’। आचार्य भावे की आशांका सत्य सिद्ध हुई। प्रथम पंचवर्षिय योजना काल से ही बेरोजगारी घटने के स्थान पर निरन्तर बढ़ती चली गयी जो कि विकराल रूप धारे आज भी युवाओं के सम्मुख खड़ी है। हमारे देश में बेरोजगारी की इस भीषण समस्या का सबसे बड़ा कारण ‘‘आधुनिक शिक्षा प्रणाली में रोजगारोन्मुख शिक्षा का सर्वथा अथाव’’ होना है।
इस कारण आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों के सम्मुख भटकाव के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं रह गया है। बेरोजगारी की इस विकराल समस्या के समाधान के लिए कुछ राहे तो खोजनी ही पड़ेगी। इस समस्या के समाधान के लिए युवाओं के मनोभावना में परिवर्तन लाना आवश्यक है। मनोभावना में परिवर्तन का तात्पर्य – ‘‘किसी भी कार्य को छोटा न समझना ’’ से है। इसके लिए सरकारी व अन्य नौकरियों की ललक छोड़कर उन उद्योग धन्धों को अपनाना होगा जिसमें श्रम की आवश्यकता होती है। इस अर्थ में घरेलू उद्योग धन्धों को पुनः जीवित करना तथा उन्हें विकसित करना आवश्यक है केवल डिग्री ले लेना ही महत्वपूर्ण नहीं है उससे अधिक महत्वपूर्ण है योग्यता व कार्य कुशलता प्राप्त करना।
आज समाज में फैल रही युवाओं में कुंठा व हताशा का प्रमुख कारण बेकारी तथा बेरोजगारी ही है। योजनाएं बन तो रही है उनके उद्धार हेतु, परन्तु जमीनी स्तर पर उनका कितना क्रियावन्यन हो रहा है यह सोचने योग्य है। मतलब साफ है कि सरकार की नीतियों मे ंकहीं न कहीं कोई व्यवहारिक कठिनाई अवश्य है सरकारों को चाहिए कि वह बेरोजगारी के निराकरण हेतु एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाये और समस्या को बढ़ने न दे।
अन्तिम बार युवाओं के लिए कि वे दिगभ्रमित न होकर अपना निर्माता स्वयं बनें। सामाजिक चिन्तन से पूर्व उसे स्वआत्म चिन्तन की अवधारणा पर बल देना होगा तथा समाज में खुद को स्थापित करने के लिए नकारात्मक ऊर्जा को स्वयं से अलग कर जीत की प्रबल ईच्छा शक्ति का खुद के भीतर निर्माण करना होगा। यह प्रबल ईच्छा शक्ति ही हमारी योग्यता को सही दिशा देने के लिए हमें ऊर्जा एवं उचित मार्ग दर्शन प्रदान करेगी।
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राजेश पाण्डेय
विचारक व् लेखक
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लेखन पूर्वी उत्तर प्रदेश के जाने माने युवा नेता व उद्द्योगपति है , सामाजिक व समसामयिक मुद्दो पर इनके विचार और लेख विभिन्न पत्र -पत्रिकाओ में आते रहते है
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