– डॉ. मयंक चतुर्वेदी –
कई बार खयाल आया कि यह जो वामपंथ और दक्षिणपंथ की चर्चा अक्सर सुनने को मिलती है, क्यों न इसके बारे में गहराई से जाना जाए। जब जाना तो इसके कई संदर्भ मालूम हुए। समझमें आया कि दक्षिणपंथी राजनीति उस विचारधारा को कहते हैं जो सामाजिक असमता को प्राकृतिक मानती है। वामपंथियों के अनुसार दक्षिणपंथ वह है जहां परंपराओं को अधिक महत्व दिया जाता है, जबकि वामपंथी वे हैं जो यह कहते हैं कि संसाधनों पर सभी का समान अधिकार है इसलिए उसका बंटवारा भी बराबर होना चाहिए। भले ही फिर कोई योग्य हो या न हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । लाभ में कम श्रम करनेवाले और अधिक श्रम करने तथा योजना बनानेवालों के बीच पूंजी का बटवारा समान हो।
इन दो शब्दों को राजनीतिक अर्थों में देखें तो सबसे पहले ‘बाएँ’ और ‘दाएँ’ शब्दों का प्रयोग फ़्रान्सीसी क्रान्ति के दौरान शुरू हुआ था। फ़्रांस में क्रान्ति से पूर्व सम्राट को हटाकर गणतंत्र लाने की जो चाह रखते थे तथा स्वयं को जिन्हें धर्मनिरपेक्ष कहलवाना पसंद था वे अक्सर बाई तरफ़ बैठते थे। जिसके बाद से वामपंथी शब्द प्रचलन में आ गया । उसके बाद समाजवाद, मार्क्सवाद और लेनिनवादियों के लिए भी वामपंथी शब्द प्रयोग किया जाने लगा। यह तो हुई वामपंथ और दक्षिणपंथ को समझने और समझाने की बात। किंतु इन दिनों जब से केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, वामपंथियों की ओर से लगातार केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाया जा रहा है। अभी हाल ही में कुछ लेख आए हैं, इन्हें पढ़कर जो निष्कर्ष निकला, उसके अनुसार दक्षिणपंथी भावनाओं की राजनीति करते हैं और भावनाएं उनके लिए किसी ब्रह्मास्त्र से कम नहीं।
वैसे तो हर बात का जवाब देना जरूरी नहीं, लेकिन जब बात सार्वजनिक हो जाए और खासतौर से वह सोशल मीडिया का हिस्सा बन जाए तो प्रश्नों का उत्तर देना जरूरी हो जाता है । दूसरी दृष्टि से भारतीय परंपरा भी कहती है कि कोई पक्ष है तो उसका विपक्ष होगा। प्रतिपक्ष को अपनी बात तार्किक ढंग से अवश्य कहनी चाहिए । सच, आज वामपंथियों की सोच पर तरस आता है, यं दक्षिणपंथ के नाम पर संपूर्ण राजनीतिक पार्टियों को कटघरे में खड़ा कर देते हैं, बिना यह सोचे किमनुष्य एक मननशील प्राणी है। उसका संपूर्ण जीवन विचार एवं भावनाओं के समुच्च से सतत प्रवाहित है। फिर जीव जगत में ऐसा कौन है जो भावनाओं से संचालित नहीं होता? यदि भावनाएं न हों तो जीवन की शुरूआत न होती । बच्चे को पैदा करने का जोखिम और दर्द कोई औरत क्यों उठाए ? कुल मिलाकर मनुष्य जीवन विचारों के साथ भावनाओं से संचालित है इसलिए यह आरोपित कर देना कि दक्षिणपंथी राजनैतिक पार्टियां सिर्फ़ और सिर्फ़ भावनाओं की राजनीति करती हैं, कह देना सरासर गलत होगा।
देखाजाए तो वामपंथी जनवाद का नारा बुलंद करते हैं, जबकि अक्सर उन पर अपने साथियों का शोषण करने के आरोप लगते रहे हैं। आज उनसे यह क्यों न पूछा जाए कि क्या, वे भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे? ये सर्वविदित है कि वामपंथी समाजवाद का नारा और स्वर्णिम भविष्य का सपना दिखाकर गरीब ग्रामीणों,नवागत बौद्धिकों के हाथों में नक्सलवादी आंदोलन, वर्ग संघर्ष, सर्वहारा के नाम पर हथियार थमा रहे हैं और संवेदनहीन होकर निरीह लोगों की हत्याएं करवा रहे हैं।आज इनके बीच जो असमानता है, वह भी किसी से छिपी नहीं। कम से कम इनसे कई गुना श्रेष्ठ दक्षिणपंथी हैं, वे हाथों में हथियार नहीं अपनी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना सिखाते हैं। यदि भारत की प्राचीन परंपरा और संस्कृति कहती है ‘सत्यं वद। धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमद:।’ अर्थात सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय में आलस्य मत करो। अपने श्रेष्ठ कर्मों से कभी मन नहीं चुराना चाहिए और सृष्टि के विकास में सदा सहयोगी बनाना चाहिए। तो क्या यह शिक्षा सही नहीं ? यहां आचार्य क्या गलत बताते हैं- ‘मातृ देवो भव। पितृ देवो भव। आचार्य देवो भव। अतिथि देवो भव।’ यानि माता को, पिता को, आचार्य को और अतिथि को देवता के समान मानकर उनके साथ व्यवहार करो।
वस्तुत: यह भारतीय संस्कृति की उच्चता है कि यहाँ माता-पिता और गुरु तथा अतिथि को भी देवता के समान सम्मान दिया जाता है। श्रेष्ठ जीवन के ये श्रेष्ठ सिद्धान्त हैं, जिन्हें भारतीय संस्कृति और दक्षिणपंथियों द्वारा बताए जाते रहे हैं। वास्तव में यदि भारत की प्राचीन संस्कृति दूसरों की नजरों में दक्षिणपंथी ज्ञान है तो क्यों नहीं इस पर समस्त भारतवासियों को गर्व होना चाहिए ? यदि दक्षिणपंथी कहते हैं कि विभिन्न पंथ मत दर्शन अपने भेद नहीं वैशिष्ट हमारा, एक-एक को ह्दय लगाकर विराट शक्ति प्रगटाएं, मां भारती की करें प्रतिष्ठा विश्व पताका लहराएं तो इसमें गलत क्या है ? अमेरिका की तरह विश्वशक्ति बनने का स्वप्न क्यों नहीं प्रत्येक भारतवासी को देखना चाहिए ? या इजराइल बन चारों ओर से शत्रुओं से घिरे होने के बाद भी शक्तिसंचय कर प्रकाशपुंज क्यों नहीं बनना चाहिए ? यहां यह कहने का कतई मतलब नहीं निकाला जाए कि भारत अभी कमजोर है। हमारा देश एक संप्रभु एवं सुसम्पन्न राष्ट्र है, यह और शक्ति सम्पन्न बने यही कामना है।
दक्षिणपंथियों पर भाषा को लेकर भी आरोप मड़े जाते हैं, किंतु दक्षिणपंथी किसी भाषा के विरोधी नहीं रहे। वे इस बात के पक्षधर जरूर हैं कि जब दुनिया के तमाम देशों की अपनी एक मानक भाषा है तो भारत की भी एक भाषा सर्वस्वीकृत होनी चाहिए, जिसमें वह स्वयं को दूसरे देशों के सामने अभिव्यक्त कर सके। फिर वह कोई भी हो सकती है, उधार की अंग्रेजी को छोड़कर। यदि भारत का अधिकांश जनमानस चाहता है तो वह मराठी, गुजराती, असीमिया, तेलगु, तमिल, मलयालम, कन्नड़, हिन्दी या अन्य कोई भी भाषा हो सकती है। दक्षिणपंथी तो यह भी कहते हैं कि संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी है, यदि हिन्दी या अन्य किसी भाषा को राष्ट्र की भाषा स्वीकारने में जनमानस को संकोच है तो क्यों न संस्कृत को भारत में पुनर्प्रतिष्ठित किया जाए।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत लोकतंत्रात्मक देश है और लोकतंत्र में जन ही सबसे बड़ी शक्ति है। यह जन किसी राजनीतिक पार्टी के भुलावे में नहीं आता, उसे जो उचित लगता है वह वही करता है । दक्षिण पंथी राजनैतिक पार्टियां आस्था, धर्म, राष्ट्रीयता, संस्कृति, संस्कार, सांस्कृतिक विरासत के मुद्दों का अति सरलीकरण करके वास्तव में यदि कुछ करती हैं तो जनमानस का जागरण ही करती हैं। यह पार्टियां अपने राष्ट्र पर गर्व करना सिखाती हैं, अपने अतीत पर गौरव करना सिखाती हैं। अपने पूर्वजों पर अभीमान करना सिखाती हैं। अपने इतिहास को सच के आईने पर कसने की शिक्षा देती हैं। इतिहास से सबक लेकर यथार्थ में जीने की शिक्षा सिखाती हैं।
यदि कुछ नहीं सिखाती तो वह वामपंथियों की तरह यह है कि भारत कभी एक देश नहीं रहा, यह तो कई राष्ट्रों का समुच्चय है। यदि नहीं सिखाती तो यह कि बंदूक से हर बात का हल नहीं निकाला जाता। राष्ट्रवादी पार्टियां देश में नक्सली बनना तो नहीं सिखाती । कला के माध्यम से नाटक और नौटंकी करते हुए अपने ही देश के विरोध में कला का प्रदर्शन करना बिल्कुल नहीं सिखाती हैं। हमारी मांगे पूरी हो, चाहे जो मजबूरी हो का नारा देने वाले वामपंथियों की ऐसी तमाम बातें हैं जो देश और समाज के विरोध में जाती हैं जिनसे विध्वंस होता है, सृजन नहीं वह सभी बातें दक्षिणपंथ कभी नहीं सिखाता है। दक्षिणपंथ की यही शिक्षा है कि हम करे राष्ट्र आराधन, तन, मन, धन, जीवन से। भारत में दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों का सीधेतौर पर मानना है कि राष्ट्र सर्वोपरि है, उसके लिए अनेक जीवन समर्पित किए जा सकते हैं। राष्ट्र है तो हम हैं। इसके लिए दक्षिणपंथियों द्वारा कहा जाता है कि पुर के कल्याण के लिए, ग्राम और नगर के साथ देश के हित में अपना जीवन स्वाहा करना पड़े तो राष्ट्र भक्तों को कभी पीछे नहीं हटना चाहिए।
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डॉ. मयंक चतुर्वेदी
वरिष्ठ पत्रकार एवं सेंसर बोर्ड की एडवाइजरी कमेटी के सदस्य
डॉ. मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है।
सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।
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