डॉ० प्रद्युम्न कुमार कुलश्रेष्ठ की कविताएँ
(1)
कुछ क्षणिकाएं–
आज धूप निकली
क्या खूब निकली
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दिल ने कहा
दिल ने सहा
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जनतंत्र की रेल
संख्या का खेल
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कुछ सवाल खो गए
कुछ जवाब खो गए
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इंसान अधूरा रहा
गाँठ का पूरा रहा
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सच ने ढंग बदला
सिक्का चल निकला
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दफ्तर बार बना
जनता ने सर धुना
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पूरी नहीं हुई डिमांड
काम हुआ रिमांड
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जेब हो टकसाल
काम हो तत्काल
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बाहर है अबला है
घर पर तो बला है
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(2)
क्या ये ही..
नज़र के रस्ते
सवार होती है
और सीधे
जा पहुँचती है दिल तक
हूक उठती रहती है दिल में
जब तब अक्सर
मचलती है फड़फड़ाती है
कुरेदती है.. नश्तर चलाती है..
और चाहती है
बस वो आ जाये …
क्या ये ही मुहब्बत हैं …
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(3)
बोलो बाबू
सब बिकता है बाबू….. सब..
कुछ प्रेम के रुक्कों में
कुछ खनकते सिक्कों में
सही कीमत लगाओ, ले जाओ
बोलो…
क्या लोगे ?
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नैनों का बांकपन
कि तिरछी चितवन
मेहँदी वाले हाथों की रंगत
कि चेहरे पे सिमटी लाली की लज्ज़त
गाल पे आई बालों की लट
या वो लम्बा घूँघट
वो मस्तानी चाल
जो जीना करे मुहाल
या फिर कोई बाजारू चीज
जैसे नफरत के बीज…
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घर लोगे या पनघट
तय करो झटपट
खलिहान लो या खेत
ले लो किसी भी नदिया की रेत
गंगा-जमुना के घाट
या साहबी के ठाट
मेम साब की अलबेली अदा
या वो जिससे साहब दिखें सबसे जुदा
ये पेड़ या बाग़
लो सावन या फाग
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ये वीआईपी आइटम हैं
सिर्फ वीआईपी को बिकते हैं
मोहल्ला बिकता है
बदमाशों के सरदार को
इलाका थानेदार को
शहर सिपहसलार को
देश सरकार को…
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ओह.. तुम शायद ये ढूंढ रहे थे…
नेता कहते हैं इसे
नई प्रजाति है
बहुत बिकता है
मंहगा नहीं है……
जो इस पॅकेज को लेगा
मौज करेगा
नेता बन जायेगा
ऊपर की सारी चीजों के साथ
फरेब करने धोखा देने बरगलाने
मक्कारी झूठ बोलने वादे तोड़ने
लोगों को मरवाकर झूठे आंसू बहाने की
कला मुफ्त पायेगा…
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इसकी कीमत…
बेहद मामूली
विवेक गिरबी रख दो
ईमान बेच खाओ
इंसानियत खूंटी पर टांग दो
शराफत का ढोंग करो
कुछ समझ न आये उसे सिद्धांत बना लो
बिना स्वार्थ की सेवा भूल जाओ
लो जी… बन गए नेता !!.
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उत्तर प्रदेश के नगर आगरा में जन्म , यही के एस एन मेडिकल कॉलेज से पी० एच० डी० की शिक्षा पूर्ण की ! बचपन में अपने स्वर्गीय पिताश्री को कवितायेँ रचते देखा करता था ! बहुत से कवि सम्मेलनों में कविता का आनंद लेने का अवसर भी जीवन में बहुत शुरू में ही मिला !
बाद में संस्कार भारती संस्था से उसके प्रारम्भ से ही परोक्ष रूप से जुड़ा रहा बाद में सीधे जुड़ने का भी अवसर मिला ! तो बस कविता ने कहीं न कहीं धीरे से एक स्थान बना लिया मेरे अंतर में !
फिर कभी कुछ लिख दिया यूँ ही… फिर फाड़ भी दिया… अब जब मन में कोई ज्वार सा उमड़ता है तो शब्दों के रूप में बाहर आ जाता है… उसे कविता/ग़ज़ल या कोई और नाम जो उचित लगे दिया जा सकता है !