आभा द्धिवेदी की पांच कविताएँ
1) ‘तुम’
तुम सुपात्र नहीं हो
नायक भी नहीं हो मेरी कहानी के
किसी भी रचना में
पर तुम हो
तुम ना जाने क्यूँ हो
तुम्हारा होना नहीं बनता है
किसी भी किरदार में
पर तुम हो
तुम प्रेमी नहीं हो,शायद
किसी कवि की कल्पना नही हो
किसी भी आधारशिला में
पर तुम हो
तुम थे नहीं मध्य में
ना अंत होगा तुम्हारा, ना आदि हो
किसी अनंत से अनंत तक
पर तुम हो
तुम “प्रेम” हो, नहीं
हमसफ़र भी नहीं हो मेरे
किसी साये की तरह
पर तुम हो
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२) ”ख़ामोश मुलाक़ात”
कल्पना नहीं, मुलकात थी हमारी
ठण्ड ने शॉल घसीट लिया हम पर से
फ़लक पर चाँद जल उठा
बुझती लकड़ियों के अलाव में
सुनो,,,ये रेत, जो काँच हो उठी है
ये कतरने, आग उगलते चाँद की नहीं
हमारी रगों में अब तलक
जिन्दा कपकपाती रौशनी की है
चार घंटे हो गए थे, साथ बैठे
शब्दों की इस कदर कमी, तुम और चुप
तुमने हमेशा सघन बाग़ देखा है
जरा अक्षरों का ये बनवास भी देखो
लफ़्ज़ों से अब लपटें उठती हैं
डर है,, तुम्हे कहीं खुद में ना लपेट लें
ये तौहीन होगी उस आग की
जिसकी चिंगारी तुम्हे भस्म न कर दे
उठो, और यादों के इस शॉल में
पलों को लपेट मेरे सामने ही नदी में बहा दो
कुछ कोलाहल तो कम होगा ही
सरसराहट पीपल पर फिर से जा लगेगी
चलो, अब हाथ थाम ले चलो
मरघट की राख हाथों से ही समेटते हैं
आज जश्न की रात है
शहनाई की धुन पर अँधेरे को कांपने दो
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3) हाँ ! याद है मुझे—
उस झील के पानी पर
एक-दूजे को, थाम चलना
पेड़ों के बीच से
मज़ार को टेकना
अँधेरे में टिमटिमाती
हज़ारों बत्तियों को
एक-दूजे के काँधे पर
समेट देना
रात की सरसराहट को
एक-दूजे में सिहरने देना
भीतर के लावे को
वहीँ उड़ेल देना
वहीँ एक बार खड़े हो
झील के पानी में
एक-दूजे को फिर से
पिघलते देखना
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4 ) साज़ और आवाज़
म्हारे हाथ गिटार पर थे उस रोज़
ऐसा पहली बार तो नहीं हुआ था न
मेरा नाम गुनगुना उठे थे वो तार
हाँ ,,,,, तुम्हारी उँगलियों का “ये कमाल पहला था”
हवा की वो थिरकती हुई सरसराहट
जो तेरा संगीत ले मुझ तक आई थी
वो पहला नाद था, ‘तेरी मोहब्बत का’
जो मेरी हर ख़ामोशी पर,, “तेरा गीत सुना रहा था”
कहा तुमने, तोहफा भेज दूँ, सुन सकोगी ?
एक कोने मे सिमट आई मैं सिरहन लिये
कह उठी तुमसे, “इश्क़ भर ज़िंदा हो रही हूँ”
उस नग़मे मे, जो हर धुन पर “तुमने मुझे गाया था”
तेरे हर साज़ से कहा मैने, वापस हो जाओ
अटकी हुई साँसों की महक यहीँ छोङ जाना
कल्पनायें हंस पड़ेंगी, नज़्में रात भर तड़पेंगी
ऐे खुदा !! मैंने तो इस फ़क़ीर की “ख़ामोशी को माँगा था”
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5 ) शाम, सूर्यास्त के क्षणिक बाद की
जाने कैसे
मैं ढेरों असफल प्रयास के साथ
निरंतरता से शून्य में खोजती हुई
“जहाँ सूर्य”
अपनी अंतिम लालिमा में विलुप्त हुआ है
ठीक वैसे
भूमि पर स्थिर हो
व्योम में विचरण कर खोजती हुई
“वो तारा” जो चमक कर घनाभ में विलुप्त हुआ था
और जैसे
जल के उस कोलाहल, और
रात्रि की नीरवता के मध्य खोजती हुई
“एक सुर” जो मौन का संगीत बन विलुप्त हुआ था
और ऐसे ही
जीवन की बंद किताब के
खुले अध्याय में अनवरत खोजती हुई
“कोई व्यक्ति” जो साँसों के आगोश में विलुप्त हुआ था
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आभा द्धिवेदी
कवयित्री व् लेखिका
लिखना तो आया ही नही, बस बचपन से भाव बुनने लगी और वो कब शब्दों का आकर लेने लग गए पता ही नहीं चला, रसायन शास्त्र और शिक्षा-शास्त्र में अध्ययन और फिर अध्यापन करते-करते न जाने कब साहित्य के साथ केमिस्ट्री हो गयी !
कानपुर में जन्म लेना और शिक्षा ग्रहण करना सौभाग्य है ! देश के कुछ महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, लेख व कवितायों का प्रकाशन मेरे स्वतंत्र लेखन का मान है !!
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विचारों का भावों से ऐसा सुखद प्रणय
कम ही होता दिखता है।
खूबसूरत अभिव्यक्ति।
Behatareen Rchanaaen
Abha Ji you wrote Live Love Prem strength higth moving in life.
sham mai worte Good Apprication to sweetly fight with eveary moment in Life.
Maa Saraswati aap ko ist tarah likhnai ki shakti gaiti rahi
God and Godess Bless you Always.
Thanks & regards
thnx
आभा जी ,खूबसूरत पंक्तियाँ । प्रेम और प्रेम की विडम्बनाओं के खूसूरत एहसास ।
स्नेह आपको
शुक्रिया 🙂
तुम “प्रेम” हो, नहीं हमसफ़र भी नहीं हो मेरे किसी साये की तरह पर तुम हो –
कितनी प्यारी पंक्ति….
आप बेहतरीन लिखती हो, शुभकामनायें !!
शुक्रिया