कई सालों से देश के किसान मुसलसल आत्महत्या कर रहे हैं लेकिन किसानों के इस देश में यह एक मुद्दा तब बन पाया जब एक किसान का बेटा लुटियंस की दिल्ली में ठीक हुक्मरानों के सामने खुदकशी कर लेता है। इसके बाद देश भर में भूमि अधिग्रहण कानून और किसान आत्महत्या से जुड़े मुद्दे कुछ समय के लिए बहस के केन्द में तो आ जाते हैं लेकिन इसकी मियाद ज्यादा लम्बी नहीं होती है, व्यवस्था के चेहरे से गजेन्द्र के खून के छीटें अभी सूखे भी नहीं थे कि इधर मध्यप्रदेश में नर्मदा की संतानें अपने आप को रूह बनाने के लिए मजबूर हैं। खंडवा जिले के घोघलगांव में ओंकारेश्वर बांध क्षेत्र के डूब प्रभावित किसान पिछले11अप्रैल से नर्मदा की पानी में अपना शरीर गलाते हुए प्रतिरोध कर रहे हैं और सैकड़ों लोग पानी से बाहर से उनका साथ दे रहे हैं। यह वही नर्मदा नदी है जिसे यहाँ के लोग प्यार और सम्मान से “नर्मदा मैया” कर के बुलाते है और जो सदियों से उनकी जीवन रेखा रही हैं, लेकिन विडम्बना देखिये कि हमारे सिस्टम ने सैकड़ों सालों से लोगों की पालनहार रही नर्मदा की धारा को उसकी आँचल में बसे लोगों के लिए जानलेवा बना दिया है, यह विस्थापन बनाम तथाकथित “विकास” की लडाई है जिसमे जीत अक्सर “विकास” की ही होती है और जिनकी कीमत और नाम पर यह “विकास” होता है वह हार जाते हैं। भोपाल और दिल्ली में बैठे इस लोकतंत्र के हुकमरानों के कानों में जैसे लोहा जम गया है क्योंकि अपनी जान की बाजी लगाकर जल-समाधि ले रहे इन आवाजों को सुनने के लिए उन्हें पूरे 21 दिन लग गये। इक्कीसवें दिन बाद सरकार सत्याग्रहियों से मिलने के लिए पुनासा के तहसीलदार को अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजती है जिसके नतीजे में ना तो कोई हल निकलना था और ना ही निकला। इससे पहले प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बीते 24 अप्रैल को खंडवा के चांदेल में पुनासा उद्वहन सिंचाई योजना का लोकार्पण के लिए आये थे लेकिन उन्होंने सत्याग्रहियों से मिलना मुनासिब नहीं समझा उलटे उन्होंने जलसत्याग्रहियों से कहा कि ‘निमाड़ अंचल के किसानों की आकांक्षाएं पूरा करनें के लिए ओंकारेश्वर बांध की उंचाई 191 मीटर तक करना जरूरी है और जो लोग पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर सत्याग्रह में शामिल हो गये हैं वे जनहित की आवश्यकता को समझते हुये इसे तत्काल समाप्त कर दें और निमाड़ के समृद्धि उत्सव में शामिल हो जायें।‘ अब मुख्यमंत्री महोदय को कैसे समझाया जाए कि बर्बादी के उत्सव में शामिल होना कितना दर्दनाक होता है, यह मुख्यमंत्री और उनकी सरकार के लिए निमाड़ का समृद्धि उत्सव तो हो सकता है लेकिन उन किसानों के लिए बर्बादी का दंश हैं जिनकी उपजाऊ जमीने इसकी भेंट चढ़ाई जा रही हैं। उनके लिए इस उत्सव में शामिल होने से अच्छा है कि वह अपने लोगों के लिए इन्साफ की उम्मीद में खुद के शरीर को उसी नर्मदा में गला दे जो उन्हें और उनके पुरखों की सदियों से जीवन और समृद्धि देती आई है।
सत्याग्रही यही तो कर रहे हैं, वे ओंकारेश्वर बांध के जलस्तर बढ़ाए जाने को लेकर जल सत्याग्रह कर रहे हैं, क्योंकि पिछले दिनों मध्यप्रदेश सरकार द्वारा ओंकारेश्वर बांध के जलस्तर को 189 मीटर से बढ़ाकर 191 मीटर कर दिया गया है जिससे उस क्षेत्र में आने वाले किसानों की कई एकड़ उपजाऊ जमीन डूब क्षेत्र में आ गयी है। किसानों का कहना है कि सरकार ने अपनी मनमर्जी से बांध का जलस्तर बढ़ा दिया है, इसके बदले सरकार द्वारा जो जमीन दी गयी है वह किसी काम की नहीं है। इधर लगातार पानी में खड़े होने से सत्याग्रही किसानों की हालत लगातार बिगड़ती ही जा रही अब उनके पैर लगभग गल चुके हैं ,वह बीमार भी हो रहे हैं,उन्हें सूजन,सर्दी- जुखाम, बदन दर्द हो रहे हैं,धूप भी लगातार तीखी होती जा रही है, डॉक्टरों ने सत्याग्रहियों के पैरों की जांच और इलाज की सलाह दी है मगर उन्होंने उपचार लेने से मना कर दिया है, इतना सब होने के बावजूद प्रदेश सरकार असंवदेनशीलता नजर आ रही है, लेकिन जल सत्याग्रही “लड़ेंगे, मरेंगे ज़मीन नहीं छोड़ेंगे”, “हक लेंगे या जल समाधि दे देंगे” के नारों के साथ डटे हुए हैं। उनका कहना है कि सरकार हमें जीते जी मारने पर तुली हुई है इसलिए हमने भी ठान लिया है कि मर जाएंगे, मगर जमीन नहीं छोड़ेंगे।
सत्याग्रहियों की मांग है कि पुनर्वास नीति के तहत जमीन के बदले जमीन और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित मुआवजा दिया जाए। यह आन्दोलन नर्मदा बचाओ आंदोलन और “आप” के नेतृत्व में चल रहा है, आदोलनकारियों के समर्थन में अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को एक पत्र भी लिख चुके हैं जिसमें प्रभावितों के उचित पुनर्वास की मांग की गयी है। इस बीच आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास भी घोघलगांव पहुँच जल सत्याग्रह को अपना समर्थन जता चुके हैं।
विस्थापन और पुनर्वास की यह लडाई पुरानी है जिसे नर्मदा बचाओ आंदोलन पिछले 30 सालों से अहिंसात्मक तरीके से लड़ रही है, लेकिन घोघलगांव के सत्याग्रहियों के प्रति सरकार के रिस्पांस को देख कर यही लग रहा है कि इसका हमारी सरकारों पर खास प्रभाव नहीं हुआ है। ओंकारेश्वरबांध के विस्थापित अपने हक के लिए पिछले नौ सालों से नर्मदा बचाओ आन्दोलन के बैनर तले संघर्ष कर रहे हैं। ओंकारेश्वर बांध का निर्माण 2006 में पूरा हो गया था। उस समय वायदा किया गया था कि इससे प्रभावित होने वाले सभी लोगों का पुनर्वास बांध निर्माण के 1 वर्ष पूर्व यानी 2005 में ही कर लिया जाएगा,लेकिन पुनर्वास नीति का पालन नहीं किया गया और प्रभावितों का पुनर्वास नहीं किया गया, तब से यह संघर्ष चल रहा है। इससे पहले वर्ष 2012 में भी राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले एवं पुनर्वास नीति को नजर अंदाज़ करते हुए ओंकारेश्वर बांध को 189 मीटर से बढ़ाकर 193 मीटर ऊंचाई तक भरने का निर्णय लिया था जिससे 1000 एकड़ जमीन और 60 गांव डूबने के कगार पर आ चुके थे, इसके विरोध में इसी घोघलगांव में 51 पुरुष और महिलायें जल सत्याग्रह करने को मजबूर हुए थे जिनके समर्थन में वहां के आसपास के 250 गांवों के करीब 5000 लोग जुड़ गए थे। यह आंदोलन 17 दिनों तक चला और सरकार द्वारा जमीन के बदले जमीन देने और ओंकारेश्वर बांध के जल स्तर को 189 मीटर पर नियंत्रित रखने के आदेश के बाद समाप्त हुआ था।
अब एक बार फिर वही कहानी दोहराई जा रही है लेकिन इस बार सरकार ज्यादा उदासीन दिखाई दे रही है और वह किसानों और प्रभावितों की बात ही सुनने को तैयार नहीं दिखाई पड़ती है, इक्कीसवें दिन बाद पुनासा के तहसीलदार सरकारी नुमाइंदे के तौर पर आन्दोलनकारियों से मिलने आते हैं लेकिन वह सुनने से ज्यादा सुनाकर चले जाते है, यहाँ भी सरकार का वही ना झुकने वाला रवैया दिखाई पड़ा, सरकारी नुमाइंदे के तौर पर आये तहसीलदार ने अपनी बात- चीत में वही सब दोहराया जो सरकार पहले से कहती आ रही है। उन्होंने विस्थापितों से जल-सत्याग्रह समाप्त करके सरकार के पास उपलब्ध लैंड बैंक और प्लाट लेने का विकल्प चुनने को कहा, जिसको प्रभावितों ने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि वे लैंड बैंक की इन बंजर एवं अतिक्रमित जमीनों को पहले भी कई बार देख चुके हैं जहाँ से कई विस्थापितों को अतिक्रमणकारियों ने पहले ही भगा दिया था। आन्दोलनकारियों का कहना है कि राज्य सरकार के राजस्व विभाग के पत्र 28 मई 2001 में साफ कहा गया है कि नर्मदा घाटी मंत्रालय द्वारा पुनर्वास के लिए आरक्षित की गई लैंड बैंक की जमीनें अनउपजाऊ है। आन्दोलनकारियों ने सरकारी नुमाइंदे के सामने मांग रखी है कि सरकार या तो उन्हें जमीन खरीद कर दे या वर्तमान बाजार भाव पर पात्रता अनुसार न्यूनतम पांच एकड़ जमीन खरीदने के लिया अनुदान दे ताकि उनका उचित पुनर्वास हो सके।
इससे पहले सरकार के कारिंदे लगातार यही कहते रहे कि बांध का जलस्तर बढ़ाए जाने से किसी की जमीन डूब में नहीं आई है। राज्य सरकार के नर्मदा घाटी विकास राज्यमंत्री लाल सिंह आर्य ने इस आंदोलन का आधारहीन करार देते कहा था कि “महज कुछ लोग ही जलस्तर बढ़ाने का विरोध कर रहे हैं…ओंकारेश्वर नहर से हजारों किसानों को सिंचाई का लाभ देने का विरोध समझ से परे है”। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो नर्मदा बचाओ आंदोलन को विकास और किसान विरोधी तक करार दे चुके है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के वरिष्ठ कार्यकर्ता और आम आदमी पार्टी (आम) के प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल का कहना है कि सरकार ने मनमर्जी से बांध का जलस्तर बढ़ा दिया है, जिससे किसानों की जमीन डूब में आ गई है, विस्थापितों को बंजर और अतिक्रमित जमीन देकर धोखा दिया गया है, आज तक एक भी प्रभावित को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार सिंचित व् उपजाऊ जमीन नहीं दी गयी है। बिना पुनर्वास, प्रभावितों से जमीन का पैसा वापस लेने के बाद, इन जमीनों को डुबाना सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का खुला उल्लंघन है, उनका आरोप है कि सरकार ओंकारेश्वर विस्थापितों का उचित पुनर्वास इसलिए नहीं कर रही है क्योंकि वह बांध बना रही सरकारी कंपनी नर्मदा हाइड्रो इलेक्ट्रिक कंपनी को लाभ पहुंचाना चाहती है जिसने 4000 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ कमाया है।
इंसानी हौसले और सरकार की हठधर्मिता के बीच ओंकारेश्वर बांध से प्रभावित रमेश कडवाजी जैसे किसान अपना अहिंसक सत्याग्रह जारी रखे हुए है जिनकी 4.5 एकड़ जमीन डूब में आ रही है। उनकी जमीन उपजाऊ थी जिसमें वह पर्याप्त मात्र में गेहूं, मूंग, चना, सोयाबीन जैसी फसलें उगाते थे। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद शिकायत निवारण प्राधिकरण ने अपने आदेश में कहा था कि वे 5 एकड़ जमीन के पात्र हैं,आदेश के अनुसार रमेश ने मुआवजे के मिले 3 लाख रूपये वापस कर दिए इसके बदले में उन्हें अतिक्रमित व गैर उपजाऊ जमीन दिखाई गयी। जिसे उन्होंने लेने से इंकार कर दिया। अभी तक उन्हें कोई दूसरी जमीन नहीं दिखाई गयी है। उनका कहना है कि अब हम सब किसान से मज़दूर हो गए हैं और उन जैसे सैकड़ों किसान अपने पैरों को सड़ा का अपना प्रतिरोध जताने को मजबूर है।
गेंद एक बार फिर सरकार के पाले में है, दूसरी तरफ सत्याग्रही हैं जो हर बीतते दिन के साथ समाधि के कगार पर पहुँच रहे है, अब समय बहुत कम बचा है, लेकिन इन आन्दोलनकारियों की हिम्मत,जुझारूपन,संघर्ष और लड़ने का हौसला कायम है, तब तक जब तक कि इस व्यवस्था की कानों पर पड़ा लोहा पिघल ना जाए। इस लोहे को पिघलाने के लिए अब बच्चे भी मैदान में आ गये हैं। 11 अप्रेल से लगातार जल सत्याग्रह कर रहे किसान सोहन लाल की बेटी संतोष ने अपने आपको प्रदेश भर के बच्चों का मामा कहलवाना पसंद करने वाले मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को एक ख़त लिखा है जिसमें उसने लिखा है कि “प्रिय मामा जी, मेरा नाम संतोष है मैं घोघलगावं में रहती हूँ, कुछ दिन पहले हमारे खेत में ओंकारेश्वर बांध का पानी भर गया, मेरे पापा ने कर्ज लेकर मुआवजा वापस कर दिया। उन्हें कोई जमीन दिए बिना हमारे खेत में पानी भर दिया। मेरे पापा पिछले बाईस दिनों से पानी में सत्याग्रह कर रहे हैं, उनके पैर गल गये हैं और उनकी तबीयत बहुत खराब है, आप उनकी बात क्यूँ नहीं सुन रहे हैं, आप हमारे मामा है तो आप हमारी मां का परिवार नहीं बचओंगे क्या? जल्दी हमारे गांव आओ और हमारा गांव बचाओ”।
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जावेद अनीस
लेखक ,रिसर्चस्कालर ,सामाजिक कार्यकर्ता
लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे , उन्होंने अपनी पढाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पूरी की है पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द के मुद्दों पर काम कर रहे हैं, विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है !
जावेद नियमित रूप से सामाजिक , राजनैतिक और विकास मुद्दों पर विभन्न समाचारपत्रों , पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेबसाइट में स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं !
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