साहित्य,गीत-संगीत,कला तथा लोककला आदि ऐसे माध्यम हैं जिनके द्वारा क्षेत्रीय आधार पर देश में एकता व मज़बूती सुनिश्चित की जा सकती है। इतना ही नहीं बल्कि इनके आदान-प्रदान से वैश्विक स्तर पर भी सांसकृतिक दर्शन का आदान-प्रदान होता रहता है। विभिन्न अलग-अलग राज्यों,क्षेत्रों व देशों के लोग साहित्य,गीत-संगीत,कला तथा लोककला आदि के माध्यम से एक-दूसरे की संस्कृति,उनके पहनावे,कला कौशल,उनकी बोल-भाषा,उनके रंग,खान-पान,वेशभूषा आदि से परिचित होते हैं। भारतवर्ष को भी दुनिया के चंद विशाल देशों में गिना जाता है। हमारे देश में राज्यों की अलग-अलग भाषा,संस्कृति,कला तथा गीत-संगीत आदि में भिन्नताएं हैं। देश की कई सरकारी व गैर सरकारी संस्थाएं इन विभिन्न संस्कृतियों को एक-दूसरे से रूबरू कराने के लिए सेतु का कार्य करती हैं। ऐसा ही केंद्र सरकार का एक मंत्रालय है भारतीय संस्कृति मंत्रालय। इसके अंतर्गत् देश के सात विभिन्न क्षेत्रों में सांस्कृतिक केंद्र बनाए गए हैं। यह सभी सातों क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र पूरे देश के सांस्कृतिक आयोजनों का प्रबंधन करते रहते हैं। इसी मकसद के तहत 2006 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री डा० मनमोहन सिंह ने ओक्टेव अर्थात सप्टम के नाम से एक ऐसी अनूठी शुरुआत की थी जिससे कि देश के दूर-दराज़ केआठ पूर्वोतर राज्यों असम,नागालैंड,त्रिपुरा,मिज़ोरम,मणिपुर,सिक्किम,अरूणाचल प्रदेश तथा मेघालय के लोक कलाकारों के कला कौशल को देश के अन्य राज्यों के लोगों से परिचित कराया जा सके।
इस प्रकार ‘ओक्टेव फेस्टीवल’ की शुरुआत मार्च 2006 में नई दिल्ली में की गई जिसका उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री डा० मनमोहन सिंह द्वारा किया गया। तबसे लेकर अब तक उत्तर पूर्वी क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र (सीएनईज़ेडसीसी)दीमापुर अपने अन्य 6 समकक्ष क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों के सहयोग से देश के विभिन्न भागों में ओक्टेव फेस्टीवल का आयोजन करता आ रहा है। और इसी बैनर तले पूर्वोत्तर के लोक कलाकार पूरे देश को अपनी सुंदर व आकर्षक संस्कृति से अवगत कराते आ रहे हैं। 2007 में ओक्टेव हैदराबाद व केरल में,2008 में पटना व सूरत में, ओक्टेव 2009 गोआ व मुंबई में,ओक्टेव 2010 अमृतसर में 2011 में हिमाचल प्रदेश में 2013 में जम्मू-कश्मीर में तथा 2014 में चंडीगढ़ में आयोजित किया गया था। इन दिनों एक बार फिर ओक्टेव 2015 का यह रंगारंग आयोजन उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र पटियाला तथा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र दीमापुर के परस्पर सहयोग से चंडीगढ़ तथा पंजाब,हरियाणा के विभिन्न शहरों व कस्बों में आयोजित किया जा रहा है। मज़े की बात तो यह है कि पूर्वोत्तर के 150 से भी अधिक लोक कलाकारों की कला का प्रदर्शन केवल शहर के संभ्रांत व संपन्न लोगों के मनोरंजन के लिए शहरों के थियेटर्स तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि पूर्वोत्तर की इस आलीशान लोक कला को कस्बों और गांवों तक पहुंचाने की भी कोशिश की जा रही है। और यह प्रयास निश्चित रूप से देश की राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करने के लिए बहुत सकारात्मक कदम है। उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र पटियाला ओक्टेव 2015 को सफल बनाने के लिए विभिन्न जि़लों व कस्बों के प्रतिष्ठित संगठनों,समितियों अथवा क्लब आदि के सहयोग से इस फेस्टीवल को अंजाम दे रहा है।
गत् 3 मार्च को ओक्टेव 2015 के अंतर्गत् होली मिलन समारोह का आयोजन उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र पटियाला ने चार बार लिम्का रिकॉर्ड हासिल करने वाले श्री रामलीला क्लब बराड़ा के सहयोग से अंबाला जि़ले के बराड़ा कस्बे में आयोजित किया। अंबाला व आसपास के जि़लों में पूर्वोत्तर के लोक नर्तकों का यह पहला अनूठा प्रदर्शन था। सर्वप्रथम इन लोक कलाकारों ने बराड़ा के मुख्य बाज़ार में अपनी पूरी साज-सज्जा व पारंपरिक वेशभूषा के साथ नगर में एक विशाल जुलूस निकाला। उसके पश्चात बराड़ा के ही बंसल पैलेस में इन सभी आठ राज्यों के लोक कलाकारों द्वारा अपने-अपने क्षेत्रीय लोकनृत्य प्रस्तुत किए गए। इन लोक कलाकारों को जिन्हें बराड़ा कस्बे के लोग कभी टेलीविज़न के पर्दे पर या 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर होने वाली राजपथ की परेड में देखा करते थ,े अपने कस्बे में उन्हें देखकर बेहद रोमांचित हुए। आमतौर पर एक या दो घंटे तक किसी कार्यक्रम का लुत्फ उठाने वाली जनता लगभग 4 घंटों तक पूर्वोत्तर राज्यों के कलाकारों के लोक कला प्रदर्शन को निहारती रही। आमतौर पर पंजाबी भंागड़ा,पंजाबी गिदा अथवा हरियाणवी लोक गीत-संगीत का आनंद उठाने वाली जनता के समक्ष जिस समय असम का बीहू,त्रिपुरा का हिजगिरी,मेघालय का नांगक्रम तथा वांगला नृत्य,मणिपुर का लाई हरूबा,ताईवा तथा चोलम नृत्य,सिक्किम का घाटू,अरूणाचल प्रदेश का मिशांग,नागालैंड का युद्ध नृत्य तथा मिज़ोरम का चारो नृत्य पेश किया गया उस समय हरियाणाा के लोगों ने पूरे जोश व उत्साह के साथ अपने इन अतिथियों की अद्भुत कला का भरपूर आनंद उठाया। जिस प्रकार पंजाब में बैसाखी में फ़सल काटने के समय पंजाबी किसान भांगड़ा नृत्य कर अपनी खुशी का इज़हार करते हैं उसी प्रकार मेघालय में भ्ी नांगक्रम नृत्य खलिहान में धान पकने के समय किया जाता है। इसी तरह मणिपुर में होली के दौरान चोलम अथवा ढोल नृत्य किया जाता है। मणिपुर का ही थंगटा नृत्य वहां के राजाओं द्वारा मार्शल आर्ट के अभ्यास को विकसित करने हेतु शुरु किया गया था। यह नृत्य बेहद रोमांचक तो है ही साथ-साथ तलवार व ढाल धारण किए मणिपुरी पुरुषों द्वारा इसे पूरे कौशल के साथ प्रदर्शित करना इस नृत्य की और भी शोभा बढ़ा देता है। इस प्रकार अरूणाचल प्रदेश में होने वाले कई लोकनृतय ऐसे हैं जो गौतम बुद्ध की कहानियों पर आधारित हैं। पूर्वोत्तर के कई लोकनृत्य ऐसे हैं जिन्हें पेश करते समय कलाकार राक्षस अथवा जानवरों के मुखोटे पहनते हैं। असम का बीहू नृत्य वहां का सबसे लोकप्रिय नृत्य माना जाता है। यह असम में प्रचलित बीहू त्यौहार का एक अभिन्न अंग है। बीहू फ़सल की कटाई के समय अप्रैल के मध्य में मनाया जाता है। और लगभग एक महीने तक चलता है। असमी युवक व युवतियों द्वारा ड्रम तथा पाईपों की संगत के साथ इस नृत्य को किया जाता है। इसी प्रकार असम का जैमिस व जि़लियांग्स कंभालिम नृत्य भी प्राय: फ़सल के पकने की अवधि के दौरान प्रदर्शित किए जाते हैं। त्रिपुरा का हिजगिरी नृत्य युवकों व युवतियों द्वारा विभिन्न उपकरणों के बीच संतुलन साधने की एक अद्भुत कला है। यह भी देवी लक्ष्मी को खुश करने के लिए तथा खेतों में अच्छी फ़सल सुनिश्चित करने के मकसद से किया जाता है।
इसमें कोई शक नहीं कि श्री रामलीला क्लब बराड़ा ने उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र पटियाला के साथ मिलकर इस अद्भुत आयोजन को हरियाणा के बराड़ा कस्बे में करवा कर राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करने का जो संदेश दिया है उसकी जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है। श्री रामलीला क्लब पहले भी बराड़ा महोत्सव जैसा पांच दिवसीय आयोजन कर देश में कला,संस्कृति व साहित्य को बढ़ावा देने का काम करता आ रहा है। आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में भी उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र पटियाला,श्री रामलीला क्लब बराड़ा जैसे अन्य प्रतिष्ठित संगठनों के साथ मिलकर उत्तर क्षेत्र के सातों राज्यों के विभिन्न जि़लों में खासतौर पर ग्रामीण अंचलों में पूर्वोत्तर की लोक कला का प्रदर्शन कराता रहेगा। इस प्रकार के आयोजन न सिर्फ राष्ट्रीय एकता व अखंडता को बढ़ावा देते हैं बल्कि ऐसे आयोजनों के माध्यम से आम लोगों को एक-दूसरे की संस्कृति,उनके खानपान,उनके रहन-सहन,उनकी बोली,रंग,वेशभूषा तथा कलाकौशल आदि से परिचित होने का सीधा अवसर भी प्राप्त होता है। और किसी भी देश के नागरिक के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि वे कम से कम अपने ही देश की विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृति,सभ्यता तथा वहां के कला कौशल से वाकिफ रहेें।
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परिचय : –
निर्मल रानी
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
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