शैलेन्द्र शर्मा कलम से गीत
गीत -1
मायवी भरपूर यहाँ मनमानी कर रहे राम जी
और जती-ग्यानी-ध्यानी,नादानी कर रहे राम जी
ताने-फिकरे सुन चुप रहना,यही कथा घर बाहर की
एक नही अनगिनत अहिल्या,मूर्ति हो गयीं पत्थर की
कामी-पुरुष पुरन्दर सी,छल-छानी कर रहे राम जी
फिकर किसे अफरा-तफरी में ,कौन दबा है किधर कहाँ
सबकी अपनी राम-कहानी,निर्वासित अधिकान्श यहाँ
भरत-शत्रुघन आपस में,दीवानी कर रहे राम जी
गाँव-गाँव हैं दंडकवन,पर रिश्यमूक अब रहे कहाँ
हनूमान -सुग्रीव सरीखे,वो सलूक अब रहे कहाँ
सभी मिताई आपस में,बे-मानी कर रहे राम जी
तुम तो नायक थे त्रेता के ,हम पर कलजुग भारी है
घंटी बाँधे कौन तय नही,बाकी सब तैय्यारी है
हम बस कल्पित नायक की,अगवानी कर रहे राम जी
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गीत –2
तुमने पत्र लिखा है प्रियवर
घर के हाल लिखूँ
घर में कमरे,कमरे में घर
बिस्तर बँटे हुए
किरच-किरच दर्पण के टुकडे
जैसे जडे हुए
एक ‘ फ्रेम ‘ में है तो लेकिन
कैसे एक कहूँ
एक रहे घर इसके खातिर
क्या-क्या नहीं किया
चषक-चषक भर अमृत बाँटा
विष है स्वयं पिया
टुकडे-टुकडे बिका हाट में
कैसे और बिकूँ
इंद्रप्रस्थ के राजभवन सा
हमको यह लगता
थल में जल का जल में थल का
होना ही दिखता
भ्रम के चक्रव्यूह में पड़कर
कैसे सहज दिखूँ
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गीत–3
यादों में शेष रहे सावन के झूले
गाँव-गाँव फैल गई , शहरों की धूल
छुई-मुई पुरवा पर,हँसते बबूल
रह-रह के सूरज,तरेरता है आँखें
बाँहों में भरने को,दौड़ते बगूले
मक्का के खेत पर,सूने मचान
उच्छ्वासें लेते हैं,पियराये धान
सूनी हैं पगडंडियाँ,सूने हैं बाग
कोयल पपीहे के कंठ गीत भूले
मुखिया का बेटा,लिये चार शोहदे
क्या पता कब -कहाँ,फसाद कोई बोदे
डरती आशंका से,झूले की पेंग
भला कहो कब-कैसे अंबर को छूले
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गीत–4
दस रुपये की प्यारी गुडिया
टेडी-बियर हजार का
कसने लगा गले में फंदा
‘ ग्लोबल ‘ के व्यापार का
आलू भरे पराठे भूले
जीरा डाला छाछ
‘ पीज़ा-बर्गर ‘ अच्छे लगते
‘ कोल्ड- ड्रिंक ‘ के साथ
‘ स्लाइस-माज़ा ‘ मन को भाये
आम लगे बेकार का
चटनी और मुरब्बे फीके
‘ सास- जैम ‘ की धूम
लम्बा ‘ पेग ‘ चढा कर ‘ डाली ‘
रही नशे में झूम
पानी-पानी जिसके आगे
झोंका सर्द बयार का
क्यारी-क्यारी उगे कैक्टस
कमतर हुए गुलाब
लोक-संस्कृति लगती जैसे
दीमक लगी किताब
भूल गये इतिहास पुराना
हम अपने बाज़ार का
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गीत– 5
खुली ‘ फेस-बुक ‘ हुई दोस्ती
शीला – श्याम मिले
यौवन की दहलीज़ो पर थे
द्वार-अनंग खुले
सोलह की शीला थी केवल
सत्रह के थे श्याम
‘ इंटर-नेट ‘ पर ‘ चैटिन्ग ‘ करना
मन-भावन था काम
सच कहते हैं दूर ढोल के
लगते बोल भले
धीरे-धीरे बढी गुटुर-गूँ
फिज़ां हुई मदमस्त
चाहे-अनचाहे समाज की
हुई वर्जना ध्वस्त
फिर उडान के पहले ही
पाँखी के पंख जले
‘ आनर-किलिंग ‘ श्याम के हिस्से
शीला को एकांत
और कोख में ही विप्लव को
किया गया फ़िर शांत
अलग- अलग साँचे पीढी के
किसमे कौन ढले
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शैलेन्द्र शर्मा
लेखक व् ,कवि
सम्प्रति : भारतीय रिज़र्व बैंक से सेवानिव्रित्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन
विधायें : गीत-नवगीत,गज़ल,दोहे कुंडलिया,अतुकान्त -रचनायें,साहित्यिक/सामाजिक लेख व यात्रा-संस्मरण
प्रकाशन : सन्नाटे ढोते गलियारे (गीत- नवगीत संग्रह– वर्ष 2009 ) तथा धड़कन को विषपान( दोहा- संग्रह ) व घुटने-घुटने पानी में ( गज़ल संग्रह ) शीघ्र प्रकाश्य एवं ” राम जियावन बाँच रहे हैं ” ( गीत-नवगीत संग्रह) यंत्रस्थ
अन्य प्रकाशन : एक दर्जन समवेत संकलनों में रचनायें संकलित व देश की विभिन्न स्तरीय पत्र /पत्रिकाओं में रचनाओं का अनवरत प्रकाशन
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