जातिवादी जकड़न और लोहिया का समाजवाद

Ram Manohar Lohia,Ram Manohar , ramLohia-घनश्याम भारतीय-

बीती शदी में दुनिया भर में भेद भाव को लेकर छिड़े रहे वैचारिक युद्ध में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले डॉ0 राम मनोहर लोहिया के अंतस में विद्यमान विचारों के प्रकाश पुंज ने उन्हे मानवता का प्रवक्ता बनाया। लोहिया किसी व्यक्ति का नहीं अपितु समूचे व्यक्तित्व का नाम है। जीवन काल में अपने कार्यो और विचारों के चलते बहुप्रसंसित बहुचर्चित, आलोचित, और विवादास्पद रहे इस व्यक्तित्व ने समाजवाद की स्थापना के लिए जातिवाद, भेद-भाव जैसी कुरीतियों की संकीर्ण दीवार ढहाने के लिए संघर्ष किया।

उत्तर-प्रदेश के अम्बेडकरनगर जिला मुख्यालय स्थित शहजादपुर कस्बे में 23 मार्च 1910 को गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित उद्भट देशभक्त परिवार में जन्में और यहीं पले-बढे़ डॉ0 राम मनोहर लोहिया ने जब दुनियावी माहौल में कदम रखा तो उन्हे भी अनन्य कुरीतियों का सामना करना पड़ा। डॉ0 लोहिया ने देखा कि भारत में फैली कुरीतियों और विषमताओं में जातिप्रथा और उससे उत्पन्न भेद-भाव अत्यन्त विनाशक है। जो सामाजिक ढांचे की चूरे हिला रही थी। ’’जब तक इसे समूल नष्ट नही किया जाता तब तक समाजवाद की कल्पना साकार नही हो सकती।’’ ऐसा मानने वाले डॉ0 लोहिया आर्थिक और सामाजिक समता को समाजवाद का सर्वप्रमुख लक्ष्य मानते थे। इसीलिए डॉ0 लोहिया ने आर्थिक गैर बराबरी और जाति-पाति को जुड़वा राक्षस बतातें हुए समाजवाद के सपने को साकार करने के लिए दोनांे से लड़ना आवश्यक बताया।
वास्तव में जाति प्रथा एक बडे़ समूह को आध्यात्मिक, सामाजिक और आर्थिक समताओं से वंचित रखती हैं। लोहिया, जन्म की नहीं अपितु कर्म की प्रतिष्ठा को कायम करना चाहते थे। इसीलिए मात्र जन्म के आधार पर किसी ब्राह्मण के चरण स्पर्श का तात्पर्य वे जाति प्रथा, गरीबी और दुःख दर्द को बनाये रखने की प्रत्याभूति मानते थे। ’’जाति-प्रथा’’ नामक पुस्तक में उन्होने लिखा है-’’जिसके हाथ सार्वजनिक रूप से ब्राह्मणों के पैर धो सकते हैं उसके पैर शूद्रों और अति शूद्रों को ठोकर भी तो मार सकते हैं।’’ शूद्रों, दलितों व अन्य गरीब शोषित समूहों को ठोकर मारने की स्थिति जहां हो वहां समाजवाद की कल्पना बिल्कुल निरर्थक हैं। इसके लिए वर्ग-उन्मूलन के साथ-साथ जाति-उन्मूलन भी आवश्यक देख डॉ0 लोहिया ने एक क्रंाति का बीजारोपण किया।

’जाति’ को डॉ0 लोहिया ने एक ’जड़ वर्ग’ के रूप में परिभाषित किया है। वास्तव में जाति जकड़न का दूसरा नाम है। इसी जाति-पाश के कारण भारत का जीवन निष्प्राण सा हो गया है। यहां का व्यक्ति पहले हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, जैन, पारसी, आदि के नाम पर विभाजित है, फिर जातियांे और उपजातियों के नाम पर देश का हिन्दू (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के साथ-साथ) असंख्य उपजातियों में विभाजित है। जातीय जकड़न एकता की दुश्मन होती है। जाति-प्रथा के मामले में लोहिया का मत कडुवां भले हो परन्तु इस सत्य से विचलित नहीं हुआ जा सकता कि देश की जनता पर जाति-प्रथा थोपने वाले लोगों ने ऐसी व्यवस्था निर्मित की जिसमें ब्राह्मण को मस्तिष्क का स्वामी और वैश्य को धन का मालिक बनाकर युद्ध और सेवा का दायित्व क्रमशः क्षत्रिय और शूद्र पर आयोजित हुआ। यही कार्य विभाजन ऊंच-नीच, छोटे-बडे़, शासक-शासित के गैर समाजवादी भाव के परिणाम के रूप में सामने आया। इसी परिणाम को डॉ0 ताराचन्द दीक्षित ने अपने शोध में देश के पतन के लिए उत्तरदायी माना है।
डॉ0 लोहिया ने भारत की हजार वर्षीय दासता का कारण आंतरिक कलह और छल कपट को नहीं जाति को माना है। उनके विचार से वहीं देश विदेशी आक्रमण के समक्ष नतमस्तक न होकर उसका डटकर मुकाबला करता है, जिसमंे जाति के बंधन ढीले होते हैं। जबकि भारत में ऐसा नहीं हैं। हमारे देश में तमाम संतो और समाज सुधारको जैसे महात्मा बुद्ध, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, नामदेव, नानक, कबीर, रविदास, अम्बेडकर, स्वामीं दयानन्द सरस्वती, और गांधी आदि तमाम लोगों ने जाति-प्रथा समाप्त करने के लिए प्रयास किये। परन्तु डॉ0 लोहिया ने इस कुरीति पर जिस कदर प्रभावशाली प्रहार किया वह अपने आप में एक अनूठी मिसाल है।

डॉ0 लोहिया के मतानुसार गरीबी और जाति-प्रथा एक दूसरे के कीटाणुओं से पनपती है। उनके हृदय में इस प्रथा के विरूद्ध एक सशक्त तूूफान आजीवन उमड़ता रहा। उन्होने जाति-प्रथा पर चौतरफा प्रहार किया। ब्रह्ज्ञान और अद्धैतवाद की तर्कपूर्ण सार्थक व्याख्या करके सिद्ध किया कि जाति-प्रथा समाप्त करना ही सच्चा ब्रह्ज्ञान और अद्धैतवाद है। कठोपनिषद् के एक मंत्र ’’एकस्तथा सर्व भूतांतरात्मा। रूपं-रूपं प्रति रूपो बभूव’’ को ब्रह्ज्ञान का मूल आधार बताते हुए उन्होने मूल रूप से सबको एक बताया है। 27 मई 1960 को हैदराबाद में आर्यसमाज की एक सभा में डॉ0 लोहिया ने अपने व्यक्तिगत संकुचित शरीर और मन से हटकर सबके प्रति अपने पन का अनुभव करने को ही सच्चा ब्रह्ज्ञान बताया था।
जति-प्रथा का आरम्भ तत्समय किसी अच्छे उद्देश्य से बेशक किया गया हो परन्तु कालान्तर में यह एक बुराई बन गयी। इसी से घातक जातिवाद उदित हुआ। लोहिया ने स्पष्ट किया कि इसी प्रथा के चलते छोटी जातियां सार्वजनिक जीवन से बहिष्कृत की जाती हैं। जिससे दासता उत्पन्न होती है। जो शोषण की जननी है। भेद-भाव को जन्म देकर समाज को विघटित करने वाली जाति-प्रथा आत्मीयता और सौहार्द समाप्त कर देती है, और सामाजिकता का लोप हो जाता है। डॉ0 लोहिया ने इस कुरीति को दूर करने के लिए दो उपाय ढूंढे़। सहभोज और अन्तर्जातीय विवाह। इन दोनों उपायों को वे कानूनी जामा पहनाना चाहते थे। इन दोनों शर्तो से इन्कार करने वाले को नौकरी व अन्य सेवाओं के लिए अयोग्य घोषित किये जाने के पक्षधर रहे।

डॉ0 लोहिया ने देखा जातिवादी जकड़न के कारण देश की अधिकांश जनता राजनैतिक कार्यो में सक्रिय सहभागिता नहीं निभा पाती। उसमें राजनैतिक चेतना भरने और सशक्त राष्ट्र के लिए डॉ0 लोहिया ने प्रत्यक्ष चुनाव, वयस्क मताधिकार और विशेष अवसर के सिद्धांत की आवश्यकता पर बल दिया। डॉ0 लोहिया दबे कुचले लोगों की आत्मा को जागृत कर उन्हे सुसंस्कृत बनाना और उनमें अधिकार भावना भरना चाहते थे। उनकी अभिलाषा थी कि ’द्विज’ और ’शूद्र’ दोनों अपने दोषांे से मुक्त हों। वे पद दलितों मंे अधिकार के प्रति चेतना इसलिए भी लाना चाहते थे क्योंकि यह भावना व्यक्ति का साहस बढ़ाती है।

उनकी इन नीतियों का जनमानस पर एक अच्छा असर पड़ा। आज जातिवाद की पहले जैसी जहरीली हवा नहीं चलती। ऐसा इसलिए क्योंकि वे इसके दुष्परिणामों के प्रति सदैव सचेत रहे और दूसरो को करते भी रहे। साथ ही विभिन्न आन्दोलनों के माध्यम से उन्होनें जाति भेद ही नहीं अपितु जाति की संज्ञा को आग के सुपुर्द करने का आह्वान भी किया। परन्तु दुर्भाग्य है कि आज सैद्धान्तिक रूप से जो लोग जाति प्रथा को नहीं मानते वे भी व्यवहारिक रूप में उस पर चलते हैं।

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Ghanshyam-Bhartiपरिचय :-
घनश्याम भारतीय
स्वतन्त्र पत्रकार/स्तम्भकार

ग्राम व पोस्ट-दुलहूपुर अम्बेडकरनगर उ0प्र

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