-घनश्याम भारतीय-
प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेन्द्र मोदी ने जिस अच्छे दिन की कल्पना की थी और देश वासियों को उसके सपने दिखाये थे उन्हें साकार होने में सामाजिक विदू्रपताएं बाधक बनी हुई है। जिन्हें दूर किये बिना अच्छे दिन की कल्पना बेमानी होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि व्यक्तियो की एक लम्बी श्रृंखला से बनने वाला समाज माला की तरह है जिसमें व्यक्ति मोती की भूमिका में होता है। समाज पर व्यक्ति के समूह का असर होता है और जीवन का प्रत्येक पहलू उसके व्यक्तित्व के अनुसार होता है। व्यक्ति यदि नैतिक मूल्यो का पोषक है तो उससे सांस्कृतिक जीवन की एक दिशा निर्धारित होती हैं। यदि वह अनैतिक होगा तो उससे एक असांस्कृतिक, जीवन मूल्य विहीन दशा का निर्माण होगा। पाखण्डो, छद्मो एवं सामाजिक रूढियो से घिरा समाज किसी पुनर्मूल्याकंन की अवस्था से नही गुजर सकता है। गिरा हुआ समाज उन गलित जर्जर, अशुभ तथा अमंगलकारी भावनाओ का पोषक होता है जिनसे वह खुद पर ही एक आक्रमण कर लेता है। जिस समाज में भाग्यवाद का प्रचलन होगा वहां कर्म के निष्ठा के प्रति अनास्था का जन्म होगा।
सामाजिक विदू्रपता हर तरह के विकास में बाधक है क्योंकि इसका शिकार समाज आत्म उन्नयन से गुजरता ही नही। ऐसे में हमारे मन में राष्ट्रीय विकास तो दूर अपने विकास के लिए भी कोई क्रांति नही आती। हमारी राष्ट्रीय नीतियां हम पर सरकारी नियंत्रण तो रख सकती है परन्तु इससे हम सहजता के साथ अपने व्यक्तित्व को जोड नही पाते। स्वास्थ्य के नियमो का पालन करना, समाज को भाई-चारा देना, एक दूसरे के प्रति सहयोग की भावना रखना, किसी को क्षति न पहुंचाना, आदि तमाम ऐसे हमारे स्वयं के अधिकार है जो सरकार के हिस्से जाते ही नही। सरकार इन सब मसलो पर हमारी नैतिक जिम्मेदारियो के प्रति हमें आगाह करती है। लेकिन हम उसके प्रति सजग नहीं हो पा रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योकि एक विकसित समाज तमाम नैतिक जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वाह करता है, और एक गिरा हुआ समाज उसका विरोध करता है। सामाजिक स्तर पर पिछडे पन के कारण स्वयं को तथा स्वयं की नैतिक जिम्मेदारियो को न समझ पाने की मजबूरी होती है। इसके विपरीत विकसित समाज को रास्ते में अपने लोगो द्वारा न तो हिंसा का भय होता है और न ही स्वयं को लूट लिए जाने की त्रासदी ही। जबकि गिरे हुए समाज की प्रत्येक सुबह मकतलो का व्याकरण लेकर आती है। वहां इंसान को इंसान भय सताता है। एक व्यक्ति दूसरे को लूटता है। पैसे के लिए एक दूसरे की हत्या कर दी जाती है। अबलाओ का दैहिक व मानसिक शोषण होता है। इस तरह समाज के विभिन्न पहलू चाहे वे आर्थिक हो, सामाजिक हो सांस्कृतिक पहलू हो, सब पर उसके जीवन दृष्टि का व्यापक असर होता है।
एक ही राष्ट्र में तमाम तरह की सामाजिक अवस्थाएं है। जहां सही जीवन बोध है, जिन्दगी के प्रश्नो से जुडे सही उत्तर देने के तरीके है और पुनर्मूल्यांकन की शक्ति है वहां जिन्दगी का हर पहलू मजबूत होता है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति जो सुबह सो कर उठने के बाद दैनिक क्रियाओ से निवृत्त होकर अपने विकास के लिए एक नयी कर्मभूमि तैयार करता है उसे स्वयं को तो बल मिलता ही है साथ ही उसका पूरा समाज एक शक्ति प्राप्त करता है। यदि हम स्वास्थ्य के नियमो का पालन नही करेगे तो अस्पताल जाकर पानी की तरह पैसा बहाना ही पडेगा। सरकार तो केवल अस्पताल व दवाईयो की व्यवस्था दे सकती है, प्रयोग के तरीके हमारे अपने होते है। जैसा समाज होगा वैसा ही तरीका होगा। सरकार यदि हमारे लिए अस्पताल व दवाओ की व्यवस्था करती जाय और हम अपने लिए नयी-नयी बीमारियो को जन्म देते रहे तो वह दिन शायद कभी न आयेगा जब एक स्वस्थ मनुष्य होकर आर्थिक तंगी से हम ऊपर उठ सके।
ऐसे ही तमाम तरह की और सामाजिक गिरावटे है जो हमें बदतर जीवन जीने एवं आर्थिक तंगी से जूझने के लिए बाध्य कर देती है। सामाजिक स्तर पर पिछडे पन के कारण ही संतान को ईश्वर व खुदा की देन मानकर परिवार नियोजन अपनाना लोग पाप समझते है। कम आय में बच्चो के स्वास्थ्य, पढाई-लिखाई, भोजन वस्त्र का उचित प्रबन्ध न हो पाने से परिवार का मुखिया घुटन का शिकार तो होता ही है बच्चे भी कुछ खास नही हो पाते। पढने-लिखने की उम्र में ही भैस चराने, होटलो में बर्तन माजने, ठेला खीचने, जूते मंे पालिस करने के बाध्य हो जाने से बच्चे जीवन के अंधकार में खो जाते है और अभिभावक मजबूरन गलत आदतो नशा आदि के शिकार हो जाते है और फिर शुरू हो जाती है परिवारिक कलह। ऐसे लोग विकसित समाज की विलासताओ की नकल तो बडी आसानी से कर लेते है जबकि आय के साधन व तरीको की नकल करने का प्रयास नही करतें। इससे उत्पन्न आर्थिक समस्या से पूरा जीवन पहाड हो जाता है। लोग कर्ज में पैदा होकर कर्ज में ही मौत को प्यारे हो जाते है। अगली पीढी को विरासत के रूप में कर्ज दे जातें है।
कुल मिलाकर जनसंख्या वृद्धि, नशाखोरी, फिजूलखर्चो, ढोग और पाखण्डो को हमने यदि गले लगाये रखा और जीवन के विकसित मूल्यो से दूर रहे तो कोई सरकारी तंत्र हमंे विकास नही दे सकता। यदि हमने जान बूझकर अपनी आंखे फोड लिया तो उन आंखो को सरकार रोशनी कहां तक बांटेगी। आज चाहे हमारे खाद्यान की समस्या हो, चाहे मकान की समस्या हो, चाहे हमारी शिक्षा व्यवस्था से सम्बन्धित समस्या हो, इन सबके लिए हमें खुद जागरूक होना पडेगा। हमारे ही समाज में ऐसे मकान है जिनसे बडे-बडे वैज्ञानिक, दार्शनिक, सामाजसेवी, तथा लोक मंगल की अनुभूति वाले लोग पैदा होतें है। जबकि इसी समाज में ऐसे भी मकान है जहां माफिया तश्कर व स्मगलर भी पैदा होतें है। एक पूरे समाज को सींचता है तो दूसरा पूरे मुल्क को तहस नहस करता है।
जापान का नागरिक जिस वाहन मंे यात्रा करता है उसकी सीट फटी देखते ही सुई-धागा निकाल कर सिल देता है और हिन्दुस्तान का नागरिक बस्ता बनाने हेतु पूरी सीट ही काट लेता है। ऐसे गिरे समाज में राष्ट्रीयता के सन्दर्भ किस हालत में मजबूत होगें ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। क्योंकि राष्ट्र का गिरा हुआ नागरिक न तो अपना विकास कर सकता है और न ही राष्ट्र का। जिन पैसो से पौष्टिक चीजे खाकर अपना शारीरिक संवर्धन कर सकते है उन्ही पैसो को यदि शराब इत्यादि में लगा देगे तो हम सीधे आत्मविरोधी कहें जायेगें। आत्मविरोधी व्यक्तित्व अपने आर्थिक तथा सांस्कृतिक ढंाचे से कभी मजबूत नही हो सकता। व्यक्ति की संस्कृति ही उसे मूल्यो से जोडती है और मूल्य ही उसे जीवन की मूल धारा से जोडते है। सरकार जिन योजनाओ का क्रियान्वयन करती है एक अपसंस्कृति से जुडा हुआ समाज उन्हे कभी भी ठीक से लागू नही कर सकता। चूंकि समाज का एक विकसित रूप ही राष्ट्र होता है। इस नाते सामाजिक विद्रूपता भले ही देश के किसी कोने में हो परन्तु उससे पूरा देश प्रभावित होता है। हमारे अर्थ तंत्र पर बिगडी हुई अफशर शाही व नौकर शाही का बहुत बडा असर तो है ही हमारे समाज की गिरावट भी इसके लिए जिम्मेदार है। एक उठा हुआ समाज कभी अन्याय को तरजीह नही देता परन्तु गिरा समाज सब कुछ झेलने को मजबूर होता है। यदि हम युद्धों की भाषा बोलंेगे तो विधवाओं की फसलंे अवश्य पैदा होगी। शोषण की भाषा बोलेगे तो लुटे हुए देश का विकृत मानचित्र तैयार होगा। आज रूढियो से जुडी तमाम विसंगतिया जिन्दगी में अलंकरण की तरह सजा ली गयी है। जिससे सवरने के बजाय जिन्दगी विद्रूपता का शिकार हो गयी है। इस तरह की ढेर सारी सामाजिक विकृतियां अच्छे दिन की कल्पना को कभी साकार नहीं होने देंगी। यदि अच्छे दिन देखना है तो पहले इन विदू्रपताओं से मुक्ति पानी होगी।
_______________________
परिचय:-
घनश्याम भारतीय
स्वतन्त्र पत्रकार/स्तम्भकार
निवास : ग्रा0 व पो0-दुलहूपुर अम्बेडकरनगर उ0प्र0
संपर्क : मो0 9450489946
ईमेल : ghanshyamreporter@gmail.com
Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC.