अतिक्रमण मुद्दा: क्या सचमुच असहाय है सरकार

Encroachment issue, What is the government really helpless-घनश्याम भारतीय-

वर्तमान समय में अतिक्रमण एक ऐसी समस्या है जिससे गांव या शहर नहीं अपितु पूरा देश कराह रहा है। सियासी संरक्षण में धनबल व बाहुबल के सहारे यह कारोबार तेजी से बढ़ा है। अतिक्रमण चाहे जमीनों पर हो अथवा स्वतंत्रता के अधिकारों पर, प्रत्येक दृष्टिकोण से यह समाज और राष्ट्र के लिए घातक है। यह तब और भी खतरनाक मोड़ पर पहुँच जाता है जब इसे रोकने हेतु अतिक्रमण कारियों के दमन पर सरकारें हाथ खडे़ कर लेती हैं। ऐसे में उन लोगों के उम्मीदों की सांस टूट जाती है जिनके पास न धनबल है न बाहुबल और वे अतिक्रमण के शिकार हैं। अंतिम पंक्ति के आखिरी व्यक्ति की पीड़ा को यदि थोड़ी देर के लिए दर किनार भी कर दें तो स्वयं सरकार भी इससे पीड़ित है और अतिक्रमण कारियों के सामने असहाय है।

इस अटपटी बात में वह कड़वी सच्चाई छिपी है जिसमें सरकार और उसके मंत्रियों के असहाय होने की हास्यास्पद स्थिति सामने आती है। उ0प्र0 सरकार में बड़बोलेपन के लिए मशहूूर संसदीय कार्य मंत्री आजम खां का वह बयान आज प्रासंगिक हो जाता है, जो उन्होंने विगत दिनों विधानसभा सत्र के दौरान एक भाजपा विधायक के सवाल के जवाब में दिये। राज्यपाल के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान जब भाजपा सदस्य डॉ0 अरूण कुमार ने नाली और नालों की सफाई का मुद्दा उठाया तो संसदीय कार्यमंत्री ने जो जवाब दिया उससे असहाय होने की शर्मनाक पीड़ा ही झलकी। अब अतिक्रमण मुद्दे पर आजम खां असहाय हैं या पूरी सरकार। इस पर मंथन आवश्यक है। बकौल आजम ’’नाले-नालियों पर अवैध अतिक्रमण है। जब तक वह नही हटेगा, सफाई संभव नही है। जब नगर निगम का स्टॉफ जेसीबी लेकर अतिक्रमण हटाने जाता है कोई न कोई नेता खड़ा होकर अतिक्रमण पर जेसीबी चलाने से पहले अपने ऊपर जेसीबी चढ़ाने को ललकार कर टीम को वापस लौट ने पर विवश कर देता है।’’
अब सवाल यह उठता है कि अतिक्रमणकारी बडे़ है या सरकार…? अथवा अतिक्रमणकारियों को संरक्षण देने वाले नेता…? यदि अतिक्रमणकारी और उनके सफेदपोश संरक्षक बडे़ नही हैं तो उनके विरूद्ध कार्रवाई से सरकार कदम पीछे क्यों हटा रही है ? क्या वह सिर्फ गरीबों व मजलूमों का ही दमन करने का माद्दा रखती है ? जबकि वह गरीबों के साथ न्याय और संविधान में आस्था की शपथ के साथ सत्ता में आयी है। स्पष्ट है कि सरकार अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं करना चाहती। शायद इसीलिए कि तमाम सरकारी और गैर सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण करने वालों के सरकार में शामिल लोगों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सम्बन्धों के निर्वहन में हम नैतिक पतन की ओर अग्रसर होते जा रहे हैं। समाज और राष्ट्र को स्वार्थों की बलि वेदी पर हर रोज चढ़ाया जा रहा है। आज हम अपने अवदान के प्रति कहीं न कहीं अभिशप्त और अंजान बने हुए हैं। सरकार और उसमें शामिल लोग इससे वंचित नहीं हैं। तभी संसदीय कार्यमंत्री अतिक्रमणकारियों के सामने असहाय महसूस कर रहे हैं। जब असरदार मंत्री ही हिम्मत हारेगें तो सरकार कहां तक हिम्मत जुटाएगी।
यह समस्या सिर्फ उत्तर-प्रदेश की ही नहीं अपितु कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैले विशाल भारत की हैं। जहां गांव की गलियों से लेकर शहर की हवेलियों तक अतिक्रमण हावी हैं। नाली, नाले, तालाब, चारागाह, खलिहान, खडं़जा, सड़क, बाजार, के अधिकांश हिस्से पर बाहुबलियों का कब्जा हैं। जिन्हे बडे़ नेताओं का संरक्षण भी है। और तो और धार्मिक व सार्वजनिक स्थल अवैध अतिक्रमण से कराह रहे हैं। तमाम सरकारी जमीनों पर दंबगों द्वारा या तो निर्माण कर लिया गया है। अथवा किया जा रहा हैं। और सरकार है कि उन पर हाथ डालने के बजाय अपने हाथ खडे़ कर ले रही हैं। दूसरी तरफ अधिकांश जगहों पर निरीहों की निजी जमीनों से सत्ता की हनक दिखा कर दंबगों को लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से सड़के बनवायी जा रही हैं। एनटीपीसी जैसे विद्युत उत्पादक संस्थान के विस्तारीकरण तथा तमाम अन्य औद्योगिक संस्थानों की स्थापना के नाम पर गांवों को खाली कराया जा रहा है। और मुआवजे व विस्थापन के नाम पर गरीब ग्रामीणों को चन्द ठीकरे थमाये जा रहे हैं। उसमें भी बडे़ पैमाने पर कमीशन बाजी का खेल-खेला जा रहा है।
गांवों को उजाड़ कर उद्योगों का विस्तार करने वाले लोगों के पौरूष का क्या हुआ ? क्या उनका पुरूषत्व क्षीण हो गया है ? यदि ऐसा नही है तो सरकार और उसके कद्दावर मंत्री अतिक्रमणकारियों के सामने असहाय क्यों महसूस कर रहे हैं ? असहाय हों भी क्यों न…। अवैध रूप से अतिक्रमण करने वालों में अधिकांश तो खुद माननीय हैं और जो बचे खुचे है वे या तो माननीयों के नात रिश्ते के लोग हैं अथवा माननीयों द्वारा दी गयी उर्बरक से पुष्पित पल्वित आपराधिक छवि के लोग। जिनकी दहशत से स्थानीय प्रशासन इसलिए मुंह मोड़ लेता है क्यांेकि उसकी जरा भी सक्रियता पर उच्च पदासीन लोगों द्वारा कान उमेठ लेने का भय है। ऐसे में आजम खां वह बयान तमाम सवाल खड़ा करता है। जिसका उत्तर तलाशने की आवश्यकता है।
इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि आज वह सरकार अतिक्रमणकारियों के आगे घुटने टेकती नजर आ रही है, जिसमें सारे अधिकार निहित हैं।.. फिर आम जनता की क्या विसात। शक्तिशाली होने के बाद भी अतिक्रमण न हटा पाने की विवशता का रोना रोने वालों को शर्म भी नही आती। आखिर यह कैसा संकेत है! मशहूर शायर अल्लामा इकबाल के इस शेर से सीख भी नहीं लेते-

खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तदबीर से पहले !
खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।! 

वास्तव में यह अतिक्रमण सिर्फ जमीनों पर ही नही अपितु लोगों की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों पर भी किया जा रहा है। धनबल व बाहुबल व्यवस्था पर भारी पड़ रहा है। सही को गलत और गलत को सही साबित करने का दौर आ गया है। छोटे और कमजोर लोगों का अस्तित्व ही सिमटता जा रहा है। जिन पर दबंगों के खौफ की काली छाया हावी हो रही है। राष्ट्रीयता के सूर्य को निगलने और राष्ट्र को खूनी पंजे में जकड़ने की कोशिश भी जारी है। ऐसे में जिनके पास अधिकार है वे अपने कर्तव्यों से विमुख हो रहे हैं और कर्तव्य के पुजारियों के पास कोई अधिकार ही नही है। परिणामतः राष्ट्रीयता के संदर्भ प्रभावित हो रहे है।
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Ghanshyam Bhartiपरिचय : –
घनश्याम भारतीय
स्वतन्त्र पत्रकार/स्तम्भकार

 

निवास :  ग्रा0 व पो0-दुलहूपुर अम्बेडकरनगर उ0प्र0

संपर्क :  मो0 9450489946 –

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