{सोनाली बोस***} इस मर्तबा लोकसभा चुनाव का अन्दाज़ और नज़ारा कुछ जुदा जुदा सा रहा। 12 मई के आखरी दौर के मतदान के साथ ही 2014 के आम चुनाव का पटाक्षेप हो गया है। इस बार चुनावी कवरेज, बयान बाज़ी और उम्मीदवारोँ के रूख ने हिन्दोस्तानी चुनाव को जैसे अमरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के तर्ज़ का जामा पहना दिया है। 2014 की चुनावी गर्मी ने इस बार मौसम को भी मात दे दी है। इस बार चुनावी गर्मी की जो तपन देखने को मिली है वो बहुत कम ही देखने को मिलती है। इस बार ना जाने क्यूँ लग रहा है कि देश की आबो हवा मेँ ज़बर्दस्त फेरबदल होने जा रहा है।
फिर भी जितना बड़ा कवरेज मीडिया ने इन इन 2014 के लोकसभा चुनावोँ मेँ किया उसके मुक़ाबले आम जनता के बीच इन चुनावोँ की तपन ठंडी ही रही है। जहाँ कई राजनीतिक पंडितोँ द्वारा ये क़यास लगाये जा रहे थे कि 2014 के चुनाव 1977 की मानिन्द आंधी तूफान लेकर आयेंगे और जनता ज़बर्दस्त तरिके से इस महापर्व मेँ अपना योगदान देगी, उनका भी अनुमान ग़लत ही साबित हुआ है। कुछ राज्योँ की constituency को अगर छोड़ दिया जाये तो बाकि सारी जगहोँ पर जनता का बर्ताव और मतदान फीका फीका ही रहा है। ऐसा लगता तो है कि वोटरों का गुस्सा फूटा है लेकिन कई वोटर पुराने ढर्रे पर लौटे भी हैं। कुछ ने नये लोगोँ को चुना है तो ज़्यादातर अपने पीढ़ी दर पीढ़ी से पसन्द किये जा रहे दलोँ और उम्मीदवारोँ से ही जुड़े रहे हैँ।
वैसे अगर यूपीए के पीछले दस साल के काम की रिपोर्टकार्ड देखी जाये तो तमाम घोटाले, कमियाँ, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार के पीटारे खुल जायेंगे। लेकिन फिर भी ये कहना अतिशयोक्ति नहीँ होगी कि जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद मनमोहन सिंह ही अकेले ऐसे प्रधानमंत्री रहे हैँ जो लगातार 10 साल तक देश की बागडोर संभाले हैं, भले ही उनके व्यक्तित्व को लेकर मज़ाक बनते रहेँ कि वो आम से दिखने वाले, कमज़ोर , और कम बोलने वाले ‘मौनमोहन ‘ हैँ लेकिन इस बात को तो दरकिनार नहीँ किया जा सकता है कि उनकी शख्सियत इतनी बड़ी है कि वो इतनी आलोचनाओँ के बावजूद देश के ऐसे पीएम साबित हुए हैं जिन्होने एक स्थिर सरकार इस देश को दी है। अब ये तो हर सरकार की कार्यशैली है कि कौन कैसे काम करता है। जहाँ उनकी उपलब्धियां हैं तो वहीँ शिकायतों का पिटारा भी खुलना लाज़मी है।
सरकार की लगातार हर मोर्चे पे हो रही नाक़ामयाबी से जनता के मिज़ाज में आहिस्ता आहिस्ता ज़बर्दस्त बदलाव आया लेकिन सरकार इस बदलाव को समय पर समझने में सिरे से नाकाम रही। नतीजतन उसे जनता का हर मोर्चे पर गुस्सा झेलना पड़ा है। लेकिन आम जनता की सोच अचानक नहीँ बदली; उसमेँ शनै शनै परिवर्तन आता चला गया। आज से पहले जितनी भी सरकार बनी उन सभी सरकार में बैठी पार्टियोँ और नेताओं की पकड़ व्यवस्था पर ढीली पड़ती चली गयी, या हालात ने खुद इस पकड़ को ढीला बना दिया। नतीजा ये रहा कि सरकार पीछे रह गई और जनता आगे निकल गयी।
इन चुनावोँ मेँ मीडिया की ज़बर्दस्त भूमिका रही है। मीडिया खुद को जनता के सिर पर अपनी सोच, सुझावोँ और दृष्टिकोण की रंग-बिरंगी टोपी पहना कर खुद को सरकार से ज़्यादा ताकतवर साबित करने में जुटी रही है, यहाँ तक कि मीडिया के कई दिग्गजोँ ने खुद को पाक-साफ साबित करने मेँ कोई कोर कसर नहीँ छोड़ी है और इसके लिये कई कई बार टीवी की बहसोँ मेँ खुद की परस्ती करते भी नज़र आये हैँ। वैसे नता के इन बदले तेवरोँ को हर पॉवर सेंटर ने अपने-अपने ढंग से प्रभावित करने की कोशिश की है। और इसीलिये शायद सभी राजनीतिक पार्टियों ने यहां भी ध्रुवीकरण के ज़रिये जनता को अपने पक्ष में खड़ा करने की कोशिश की है, ऐसा नहीं है कि ये पहली बार देश में हो रहा है, समाज को बांट कर सत्ता हासिल करने की हमारे देश की परम्परा पुरानी है।
1947 मेँ देश बंटा नेहरू प्रधानमंत्री बने, लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस ने फिर छलांग मारी और स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की। लेकिन 1984 और 1990 के दौरान ऐसे कई सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए जिनकी वजह से कांग्रेस की ज़मीन ढीली होती गई और क्षेत्रीय पार्टियां मज़बूत होती गईं। नौवीं लोकसभा यानि 1989 के लोकसभा चुनावों ने भारतीय राजनीति में एक नए युग की शुरुआत की। वो शुरुआत थी गठबंधन सरकारों का दौर। इसी के साथ शुरू हुई मंडल की राजनीति। सामाजिक न्याय के एक नए मसीहा वी.पी. सिंह ने भारतीय राजनीति में कदम रखा। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों के लिए वी पी सिंह ने नए अवसरों के द्वार खोल दिये। लेकिन कई लोगों के मुताबिक वी पी सिंह ने अपनी मंडल की राजनीति से जाति विभेदों को और बढ़ावा दिया। ‘मंडल’ आया तो जाति बंटी और पिछड़ी जाति के रहनुमाओं की सरकारें बनीं, राजनीति का ध्रुवीकरण होता रहा है, मंडल की आग को ठंडा करने के कमंडल आया तो ध्रुवीकरण हुआ, मंदिर-मस्जिद की चपेट में राजनीति को धकेला गया , इन तमाम मौकों पर जनता पर गहरा असर पड़ता रहा है। इसबार भी सरकार बनाने और बचाने के लिये बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण को हथियार बनाया जा रहा है, लेकिन बताईये तो कभी जाति के नाम पर , कभी समुदाय के नाम पर समाज को बांट कर हुकूमत करना मज़बूत लोकतंत्र के लिये कितना सही है?
ऐसा सुनने मेँ आया है कि जैसे ही नरेन्द्र मोदी नामक ‘पीएम इन वेटिंग जीव’ की राजनीति के पटल मेँ एंट्री हुई है तभी से एन डी ए से अलग हुए जेडीयु के नीतीश कुमार को अचानक ही ‘सेक्यूलरिज़्म का जिन्न’ हर तरफ दिखायी पड़ने लगा। इन चुनावोँ मेँ एक अहम रोल सोशल मीडिया का भी रहा है और ये कहना ज़्यादती नहीँ होगी कि इसकी एंट्री से आम लोगोँ का राजनीति से गहरा जुड़ाव तो हुआ ही साथ ही साथ कुछ तथाकथित ‘भक्तोँ’ की वजह से राजनीति का स्तर ज़बर्दस्त गिरा भी है। नेताओं के नाम पर अनर्गल पोस्ट्स और कमेंट्स और ‘पेज’ पे आने वाली लाखोँ ‘लाईक्स’ से राजनीति का झुकाव और नज़रिया तय किया जाने लगा है। अब की बार चुनाव पूरी तरह बाज़ारवाद की भेंट चढ़ गया, इसे सजाया गया , संवारा गया , वोटरों को लुभाने के लिये बड़े नेताओं को प्रोडक्ट की तरह बेशकीमती बनाया गया, और गाड़ी, साबुन के महंगे ऐड की तरह उन्हेँ इन चुनावी रैंप पर उतारा गया। और ये सबकुछ हुआ ग़रीब जनता के नाम पर, लोकतंत्र के नाम पर। ग़रीब देश की ग़रीब जनता को मुंह चिढ़ाते हुए सियासी पार्टियों ने जमकर पैसे लुटाये, इस बार ये हाईटेक,हाईप्रोफाइल चुनाव उस देश में हो रहा है जहां कि बड़ी आबादी दो वक़्त की रोटी के लिये हर दिन मशक्कत करती है। आखिर ये लोकतंत्र का कैसा मिज़ाज है, ये लोकतंत्र का कौन सा चेहरा है.जहां हर नेता , हर पार्टी लोकतंत्र के नाम पर जनता की भावनाओं से खेलती तो ज़रूर हैं लेकिन करती कुछ नहीं है।
देश के इन हालात पर चलते चलते पेश है ये शेर जो शायद हमारे दिली जज़्बात को समझाने मेँ बखूबी क़ामयाब होगा;
”हुई मुद्दत, ग़ालिब मर गया, पर अब भी याद आता है
वो हर एक बात पे ये कहना,कि यूँ होता तो क्या होता।”
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लेखिका सोनाली बोस वरिष्ठ पत्रकार है , उप सम्पादक – अंतराष्ट्रीय समाचार एवम विचार निगम –
“Great, thanks for sharing this article post.Really looking forward to read more. Great.”
While checking out DIGG yesterday I found this…
बढ़िया आलेख सोनाली जी …. साधुवाद।